यूपी में स्थापित अल फारूक ग्रुप के संस्थापक शेख शब्बीर अहमद मदनी
नई दिल्ली:
देश में सऊदी स्टाइल इस्लाम (सलाफी या वहाबी संप्रदाय) का प्रभाव बढ़ाने और प्रोत्साहन देने के लिए जो फंड आ रहा है, उसकी जमीनी हकीकत की पड़ताल जरूरी है? गृह मंत्रालय के केवल विदेशी अनुदान नियमन एक्ट (एफसीआरए) के जरिये ही आधिकारिक रूप से इस तरह के फंड के रास्ते का पता लगाया जा सकता है.
NDTV ने पिछले तीन साल का एफसीआरए के डाटा का विश्लेषण यह जानने के लिए किया है कि इस्लामिक चैरिटीज से कितने सलाफी एनजीओ को चंदा मिला है. इसके तहत करीब 134 करोड़ रुपये के चंदे का ब्यौरा मिला जो एफसीआरए के तहत सालाना आने वाली राशि का बेहद छोटा हिस्सा है. आम धारणा यह है कि सबसे अधिक इस तरह का चंदा सऊदी अरब से आता है जबकि इस विश्लेषण से पता चलता है कि ऐसा नहीं है. सर्वाधिक 51 करोड़ रुपये का चंदा संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) से मिला, उसके बाद ब्रिटेन से 36 करोड़ रुपये का चंदा मिला. कुवैत से 23 करोड़ रुपये और कनाडा से 10 करोड़ रुपये आए. इस अवधि में सऊदी अरब से चंदे के रूप में 4.5 करोड़ रुपये मिले.
वास्तव में ये आंकड़े देश भर में फैले सलाफी मस्जिदों और मदरसों के आंकड़ों की पूरी तस्वीर पेश नहीं करते. दिल्ली में देश के प्रमुख सलाफी संगठन ऐहल-ए-हदीस के हेड-ऑफिस में हमें बताया गया कि इसके पूरे देश में करीब एक हजार मदरसे हैं. यह आंकड़ा एफसीआरए में सूचीबद्ध सलाफी एनजीओ की कुल संख्या की तुलना में 10 गुना अधिक है. हालांकि इस संगठन के सदस्यों का कहना है कि स्थानीय डोनेशनों या सेल्फ फंडिंग से यह विस्तार हुआ है.
लेकिन इस संबंध में दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ कांफिलिक्ट मैनेजमेंट एंड साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर अजय साहनी का कहना है कि कुछ विस्तार अवैध धन के प्रवाह से भी संबंधित हो सकता है. उनके मुताबिक, ''बड़े पैमाने पर अवैध लेनदेन दिखाई देता है. हवाला, गलत तथ्यों को पेश करने वाले हालिया केसों जैसा कि जाकिर नाईक मामले में देखने को मिलता है. उसकी मीडिया कंपनियों के माध्यम से अनेक लेनदेन हुए.''
हालांकि सलाफी लोग कहते हैं कि उनकी अपील इस्लाम की शुद्धतावादी वर्जन पर आधारित है और इसी की शिक्षा देना उनका मकसद है और उनके बढ़ाव से चिंतित होने की कोई बात नहीं है. लेकिन यूपी और कर्नाटक में जब NDTV ने कई सलाफी मदरसों का दौरा किया तो हमने पाया कि कई विवादित सऊदी सलाफी विद्धानों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है. मसलन 13वीं सदी के उपदेशक इब्न तैयमियाह को शामिल किया गया है जो प्रभावी मर्दिन फतवा के लेखक हैं. आमतौर पर पूरी दुनिया में जिहादी समूह हिंसा को न्यायोचित ठहराने के लिए इसका सहारा लेते हैं.
इस मामले में मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के अरेबिक स्टडीज के हेड ऑफ डिपार्टमेंट डॉ सैयद अशरफ जैशी का कहना है, ''पूरी दुनिया में फैले हुए आतंकी संगठन इब्न तैयमियाह के सिद्धांतों और परंपराओं पर आधारित हैं. ये इब्न तैयमियाह की किताबों के उद्धरणों विशेष रूप से मर्दिन फतवा का हवाला देते हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि कोई लक्ष्य अपने लक्ष्यों को हासिल करने या दुश्मनों को हराने या किसी को निशाना बनाने के लिए उसे मार सकता है.''
इसके साथ ही सलाफी मदरसों के पाठ्यक्रम में तैयमियाह के उत्तराधिकारी इब्न अब्द अल-वहाब भी शामिल हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि अपनी विभाजक संकल्पना 'अल वलाह वल बारा' के लिए कुरान की अपने हिसाब से व्याख्या की. इस्लामिक स्टडीज के स्कॉलर गुलाम रसूल देहलवी ने इस संबंध में कहा, ''इसका वास्तव में अर्थ है: अल वलाह यानी मुस्लिमों के साथ वफादारी और वल बारा यानी गैर मुस्लिमों के साथ दुश्मनी. उन्होंने कुरान की कुछ खास आयतों का जिक्र किया जिसमें कहा गया, 'यहूदियों और ईसाईयों के साथ दोस्ती मत करो.' हालांकि वहाब ने इनकी संदर्भ से इतर व्याख्या की.''
सलाफी मदरसों में एक अन्य पढ़ाई जाने वाली किताब भारतीय मौलवी इस्माइल देहलवी की तक्वियातुल ईमान (धर्म की ताकत) है जिसमें भारत की सूफी परंपरा को गैर-इस्लामी ठहराया गया है.जब इन दोनों राज्यों में NDTV ने सलाफी मस्जिदों के प्रमुखों से बातचीत की तो उन्होंने इन किताबों का जबर्दस्त समर्थन किया और सूफी परंपरा के खिलाफ भावनाएं प्रकट कीं.
इस मामले में डुमरियागंज (यूपी) की साफा एजुकेशनल सोसायटी के संस्थापक अब्दुल वहीद मदनी का कहना है, ''यह स्थिति है कि लोगों के पास अपने माता-पिता की कब्र पर जाने का समय नहीं है और इसकी बजाय वे अजमेर शरीफ जाते हैं. ये पूरी तरह से गलत है और ऐसा नहीं होना चाहिए. यदि कोई गलत चीज 1,000 साल तक भी की जाती रहेगी तो वह गलत ही रहेगी.''
हालांकि सलाफी शिक्षाओं को चरमपंथ से जोड़ा जाना भले ही न्यायसंगत न हो लेकिन सूफी विद्धान भारत में वहाबी संप्रदाय के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हैं. इस मामले में लखनऊ के सूफी वाइस ऑफ इंडिया के संस्थापक सैयद बाबर अशरफ का कहना है, ''जरा सोचिए (सूफी संत) निजामुद्दीन औलिया को जब तलवार सौंपी गई तो उन्होंने कहा कि मुझे इसकी क्या जरूरत है? मुझे सुई चाहिए ताकि मैं बुनाई कर सकूं. मैं वह शख्स हूं जो चीजों को फाड़ता नहीं हूं बल्कि सिलता हूं.''
NDTV ने पिछले तीन साल का एफसीआरए के डाटा का विश्लेषण यह जानने के लिए किया है कि इस्लामिक चैरिटीज से कितने सलाफी एनजीओ को चंदा मिला है. इसके तहत करीब 134 करोड़ रुपये के चंदे का ब्यौरा मिला जो एफसीआरए के तहत सालाना आने वाली राशि का बेहद छोटा हिस्सा है. आम धारणा यह है कि सबसे अधिक इस तरह का चंदा सऊदी अरब से आता है जबकि इस विश्लेषण से पता चलता है कि ऐसा नहीं है. सर्वाधिक 51 करोड़ रुपये का चंदा संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) से मिला, उसके बाद ब्रिटेन से 36 करोड़ रुपये का चंदा मिला. कुवैत से 23 करोड़ रुपये और कनाडा से 10 करोड़ रुपये आए. इस अवधि में सऊदी अरब से चंदे के रूप में 4.5 करोड़ रुपये मिले.
वास्तव में ये आंकड़े देश भर में फैले सलाफी मस्जिदों और मदरसों के आंकड़ों की पूरी तस्वीर पेश नहीं करते. दिल्ली में देश के प्रमुख सलाफी संगठन ऐहल-ए-हदीस के हेड-ऑफिस में हमें बताया गया कि इसके पूरे देश में करीब एक हजार मदरसे हैं. यह आंकड़ा एफसीआरए में सूचीबद्ध सलाफी एनजीओ की कुल संख्या की तुलना में 10 गुना अधिक है. हालांकि इस संगठन के सदस्यों का कहना है कि स्थानीय डोनेशनों या सेल्फ फंडिंग से यह विस्तार हुआ है.
लेकिन इस संबंध में दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ कांफिलिक्ट मैनेजमेंट एंड साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर अजय साहनी का कहना है कि कुछ विस्तार अवैध धन के प्रवाह से भी संबंधित हो सकता है. उनके मुताबिक, ''बड़े पैमाने पर अवैध लेनदेन दिखाई देता है. हवाला, गलत तथ्यों को पेश करने वाले हालिया केसों जैसा कि जाकिर नाईक मामले में देखने को मिलता है. उसकी मीडिया कंपनियों के माध्यम से अनेक लेनदेन हुए.''
हालांकि सलाफी लोग कहते हैं कि उनकी अपील इस्लाम की शुद्धतावादी वर्जन पर आधारित है और इसी की शिक्षा देना उनका मकसद है और उनके बढ़ाव से चिंतित होने की कोई बात नहीं है. लेकिन यूपी और कर्नाटक में जब NDTV ने कई सलाफी मदरसों का दौरा किया तो हमने पाया कि कई विवादित सऊदी सलाफी विद्धानों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है. मसलन 13वीं सदी के उपदेशक इब्न तैयमियाह को शामिल किया गया है जो प्रभावी मर्दिन फतवा के लेखक हैं. आमतौर पर पूरी दुनिया में जिहादी समूह हिंसा को न्यायोचित ठहराने के लिए इसका सहारा लेते हैं.
इस मामले में मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के अरेबिक स्टडीज के हेड ऑफ डिपार्टमेंट डॉ सैयद अशरफ जैशी का कहना है, ''पूरी दुनिया में फैले हुए आतंकी संगठन इब्न तैयमियाह के सिद्धांतों और परंपराओं पर आधारित हैं. ये इब्न तैयमियाह की किताबों के उद्धरणों विशेष रूप से मर्दिन फतवा का हवाला देते हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि कोई लक्ष्य अपने लक्ष्यों को हासिल करने या दुश्मनों को हराने या किसी को निशाना बनाने के लिए उसे मार सकता है.''
इसके साथ ही सलाफी मदरसों के पाठ्यक्रम में तैयमियाह के उत्तराधिकारी इब्न अब्द अल-वहाब भी शामिल हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि अपनी विभाजक संकल्पना 'अल वलाह वल बारा' के लिए कुरान की अपने हिसाब से व्याख्या की. इस्लामिक स्टडीज के स्कॉलर गुलाम रसूल देहलवी ने इस संबंध में कहा, ''इसका वास्तव में अर्थ है: अल वलाह यानी मुस्लिमों के साथ वफादारी और वल बारा यानी गैर मुस्लिमों के साथ दुश्मनी. उन्होंने कुरान की कुछ खास आयतों का जिक्र किया जिसमें कहा गया, 'यहूदियों और ईसाईयों के साथ दोस्ती मत करो.' हालांकि वहाब ने इनकी संदर्भ से इतर व्याख्या की.''
सलाफी मदरसों में एक अन्य पढ़ाई जाने वाली किताब भारतीय मौलवी इस्माइल देहलवी की तक्वियातुल ईमान (धर्म की ताकत) है जिसमें भारत की सूफी परंपरा को गैर-इस्लामी ठहराया गया है.जब इन दोनों राज्यों में NDTV ने सलाफी मस्जिदों के प्रमुखों से बातचीत की तो उन्होंने इन किताबों का जबर्दस्त समर्थन किया और सूफी परंपरा के खिलाफ भावनाएं प्रकट कीं.
इस मामले में डुमरियागंज (यूपी) की साफा एजुकेशनल सोसायटी के संस्थापक अब्दुल वहीद मदनी का कहना है, ''यह स्थिति है कि लोगों के पास अपने माता-पिता की कब्र पर जाने का समय नहीं है और इसकी बजाय वे अजमेर शरीफ जाते हैं. ये पूरी तरह से गलत है और ऐसा नहीं होना चाहिए. यदि कोई गलत चीज 1,000 साल तक भी की जाती रहेगी तो वह गलत ही रहेगी.''
हालांकि सलाफी शिक्षाओं को चरमपंथ से जोड़ा जाना भले ही न्यायसंगत न हो लेकिन सूफी विद्धान भारत में वहाबी संप्रदाय के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हैं. इस मामले में लखनऊ के सूफी वाइस ऑफ इंडिया के संस्थापक सैयद बाबर अशरफ का कहना है, ''जरा सोचिए (सूफी संत) निजामुद्दीन औलिया को जब तलवार सौंपी गई तो उन्होंने कहा कि मुझे इसकी क्या जरूरत है? मुझे सुई चाहिए ताकि मैं बुनाई कर सकूं. मैं वह शख्स हूं जो चीजों को फाड़ता नहीं हूं बल्कि सिलता हूं.''
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