मध्य प्रदेश में कांग्रेस की 15 महीनों की सरकार गिर गई है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में जाते ही उनके खेमे के 22 विधायकों ने भी बगावत कर दी. निर्वतमान मुख्यमंत्री कमलनाथ ने सरकार बचाने की पूरी कोशिश की और मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा. लेकिन सदन में संख्या कमलनाथ के पक्ष में नहीं थी और इसीलिए वो फ्लोर टेस्ट को टालने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने आज शाम 5 बजे तक फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश दे दिया. इस्तीफा देने से पहले प्रेस कांन्फ्रेंस करते हुए कमलनाथ ने कहा कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है और जनता कभी माफ नहीं करेगी. लेकिन अगर इस पूरे घटनाक्रम को देखते हुए कांग्रेस पार्टी की बात करें तो ऐसा लग रहा है कि उसके सामने बड़ा संकट मंडरा रहा है और अगर यही व्यवस्था जारी रही तो बाकी राज्यों में जो भी सरकारें उनको भी बचाना मुश्किल हो जाएगा. मध्य प्रदेश में जो कुछ भी हुआ उसको देखने के बाद ऐसा लग रहा है कांग्रेस आलाकमान ने ज्योतिरादित्य की बगावत को ज्यादा तवज्जो नहीं थी. दरअसल सिंधिया को खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानते थे. लेकिन चुनाव के बाद बाजी कमलनाथ के हाथ आई. उस समय माना जा रहा था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को इसलिए मना लिया गया क्योंकि उन्हें केंद्र में बड़ा पद देने की बात कही गई.
लेकिन लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की दुर्गति हो गई और सिंधिया खुद चुनाव हार गए. इसके बाद सिंधिया ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी मांगी उस पर कमलनाथ पहले से ही थे और माना जा रहा है कि उन्होंने ही इस पद को सिंधिया को देने से मना कर दिया. हालांकि कमलनाथ का कहना है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी देने का काम दिल्ली के नेता करते हैं उसमें उनकी कोई भूमिका नहीं है. कुल मिलाकर ये साफ नजर आ रहा है कि अगर कांग्रेस में गांधी परिवार में किसी नेता की बात नहीं सुनी जा रही है तो उसके पास अपने बात रखने का कोई और फोरम नहीं है. सिंधिया जो कि कभी टीम राहुल गांधी के अहम सदस्य थे चुनाव हारने के बाद उनकी स्थिति पार्टी में ठीक नहीं थे. खास तौर जब से राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था. फिलहाल अभी जो हालात हैं उससे साफ है कि कांग्रेस ने अगर कुछ कदम तुरंत नहीं हटाए तो उसके लिए अन्य राज्यों में भी बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है.
अध्यक्ष पद पर कन्फ्यूजन दूर हो
सोनिया गांधी की अंतरिम अध्यक्ष हैं और वो यह जिम्मेदारी संभालने की ज्यादा इच्छुक नही हैं. अगला अध्यक्ष कौन होगा इस पर कुछ भी तय नही है. राहल गांधी यह जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार नहीं है. ऐसे हालात में नेताओं की महत्वाकांक्षाएं बढ़नी लाजिमी हैं और नीतिगत मामलों में भी आम राय नहीं बन पा रही है. कश्मीर सहित अन्य मसलों में भी यह देखा गया है कि पार्टी के नेता अलग-अलग बयान दे रहे थे.
नाराज नेताओं को अपनी बात कहने रखने का फोरम
कांग्रेस के अंदर ऐसा कोई फोरम नहीं है जहां पर नाराज नेताओं को अपनी बात रखने का कोई फोरम है और उनकी सुनवाई हो सके. अगर गांधी परिवार में किसी नेता की नहीं सुनी जा रही है तो फिर पार्टी में उसका अलग-थलग पड़ना तय है. असम के कद्दावर नेता हिमंता बिश्वा मामले में भी हम यह देख चुके हैं और ऐसा ही कुछ मध्य प्रदेश में सिंधिया के साथ भी हुआ है. कमलनाथ ने आलाकमान को पूरी तरह से अपने पाले में कर रखा था. सिंधिया खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे थे.
नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं पर लगाम
कांग्रेस में नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं पार्टी संगठन में हावी हैं. लोकसभा चुनाव की हार के बाद हुई बैठक में भी यह मुद्दा उठा था कैसे राजस्थान में अशोक गहलोत और मध्य प्रदेश में कमलनाथ अपने बेटों को जिताने में लगे रहे और दूसरी सीटें पर क्या हाल है इसके लिए फुर्सत ही नहीं थी. यही कुछ हरियाणा का भी था.
मुख्यमंत्रियों को फ्री हैंड देना ठीक नहीं
जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार हैं वहां मुख्यमंत्री संगठन और सरकार पर पूरी तरह से हावी हैं. इसका नतीजा यह है कि बाकी नेता खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं.
युवाओं को राज्यों में भी मिले तवज्जो
केंद्र में एक ओर कांग्रेस युवा नेताओं की तवज्जो देने की बात करती है लेकिन राज्यों में हालात इससे उलट नजर आते हैं. मध्य प्रदेश और राजस्थान बड़े उदाहरण हैं. शायद ही किसी राज्य में पार्टी का कोई युवा नेता उभर कर सामने आया हो. अगर कोई है तो वह पुराने नेताओं के आभामंडल से निकल पा रहे हैं. और जब इन नेताओं को पार्टी में अपना भविष्य नहीं दिखता है तो तोड़फोड़ शुरू होती है और बीजेपी इन हालत का फायदा उठाने में देर नहीं लगाएगी
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