प्रतीकात्मक तस्वीर
नई दिल्ली:
दो साल पहले दिल्ली हाइकोर्ट ने एक विदेशी कंपनी से चुनावी चंदा लेने के लिये दो राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी को दोषी पाया था और केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से कहा था कि इन पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई हो। अब तक दोनों पार्टियों के खिलाफ तो कोई कार्रवाई नहीं हुई लेकिन विदेशी चंदा लेने का रास्ता खोलने का उपाय सरकार ने ज़रूर ढूंढ लिया है।
ग्रीनपीस, फोर्ड फाउंडेशन और तीस्ता सीतलवाड़ की एनजीओ समेत कई गैर सरकारी संगठनों पर एनडीए सरकार के वक्त में कार्रवाई हुई है। ज्यादातर को या तो अपना काम बंद करना पड़ा है या पैसा मिलना बंद हो गया है। सरकार ने तमाम एनजीओ पर यह कार्यवाही फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेग्यूलेशन एक्ट (FCRA) के तहत की है जिसके उल्लंघन का आरोप इन एनजीओ पर लगाया गया है।
हालांकि खुद वित्तमंत्री अरुण जेटली की ओर से बजट में लाया गया एक संशोधन चुपचाप कांग्रेस और बीजेपी की मदद करने वाला है। इस बदलाव से कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियों की ओर से पिछले कुछ सालों में गैरकानूनी तरीके से ली गई विदेशी फंडिग जायज हो जायेगी और आने वाले दिनों में विदेशी कंपनियां किसी भी राजनीतिक पार्टी के प्रचार में पैसा लगा सकती हैं।
विदेशी स्त्रोत की बदली परिभाषा
वित्तमंत्री जेटली ने बजट में बजट के ज़रिये एफसीआरए कानून में जो बदलाव प्रस्तावित किया है उससे विदेशी स्रोत की परिभाषा बदल जाती है। सरल भाषा में कहें तो अब किसी भारतीय कंपनी में 50 प्रतिशत से अधिक पैसा लगाने वाली कंपनी भी विदेशी नहीं मानी जायेगी अगर निवेश किया गया पैसा विदेशी निवेश यानी एफडीई की कानूनी सीमा के तहत है और फेमा कानून का पालन होता है।
कांग्रेस और बीजेपी ने पिछले कुछ सालों में उद्योगपति अनिल अग्रवाल की लंदन स्थित कंपनी वेदांता की सबसिडियरी कंपनियों से चुनावी चंदा लिया। चुनाव के लिये विदेशी चंदा लेने का यह खुलासा सबसे पहले चुनाव सुधार के लिये काम कर रही संस्था एसोसिएशन फॉर डिमोक्रेटिक रिफॉर्म की पड़ताल से हुआ।
एसोसियेशन ऑफ डिमॉक्रेटिक रिफॉर्म के जगदीप छोकर कहते हैं कि 'कांग्रेस और बीजेपी की ओर से चुनाव आयोग में दिये गये दस्तावेजों को पढ़ने से पता चला कि एक ही फर्म कांग्रेस और बीजेपी दोनों को करोड़ों रुपये का चंदा दे रही है। जब हमने पता किया तो जानकारी मिली कि तीन कंपनियां यह पैसा दे रही थीं और यह तीन कंपनियां लंदन में स्थित वेदांता रिसोर्सेस की सबसिडियरी थी।'
विदेशी कंपनियों की पकड़ नहीं..
दिल्ली हाइकोर्ट की ओर से 28 मार्च 2014 को सुनाये गये अपने फैसले में कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियों को एफसीआऱए कानून के तहत दोषी मानते हुये गृह मंत्रालय से इन दोनों पार्टियों पर कार्यवाही करने को कहा। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ है। सबसे बड़ी बात यह है कि वित्तमंत्री ने फॉरेन सोर्स की परिभाषा में बदलाव 2010 से लागू करने का प्रस्ताव किया है जिससे दोनों ही पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो पायेगी।
सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या भारतीय राजनीति में अब विदेशी कंपनियों की पकड़ नहीं बनेगी। क्या विदेशी कंपनियां पार्टियों का चुनावी खर्च उठाकर बाद में उन पर अपनी मर्ज़ी के कानून बनाने के लिए दबाव नहीं डालेंगी या सरकार की नीतियों में दखलंदाज़ी नहीं करेंगी।
सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य प्रकाश करात कहते हैं कि उनकी पार्टी संसद में इस संशोधन का पूरी ताकत से डटकर विरोध करेही। करात ने एनडीटीवी इंडिया से कहा कि इस संशोधन के आने से राजनीतिक पार्टियों का चरित्र ही बदल जायेगा और फिर उनके प्रचार में विदेशी कंपनियां आसानी से पैसा लगा सकती है। उधर गैर सरकारी संगठनों का कहना है कि सरकार एनजीओ और राजनीतिक पार्टियों के लिये बिल्कुल अलग अलग पैमाने बना रही है जो लोकतंत्र के लिये खतरनाक है।
राजनीतिक पार्टियों को बचाने की कोशिश
नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर अमिताभ बेहर कहते हैं कि यह बड़ी अजब स्थिति है। एक ओर सभी एनजीओ के खिलाफ एपसीआरए कानून के तहत कार्रवाई की जा रही है और उन्हें अदालत में मदद मांगने जाना पड़ रहा है, वहीं राजनीतिक पार्टियों को बचाने के लिये सरकार इस तरह से बजट में संशोधन कर रही है।
कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही पार्टियों ने चुनाव में विदेशी कंपनी से चंदा लेने के हाइकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है और यह मामला वहां चल ही रहा है। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं की ओर से जिरह कर रहे वकील प्रशांत भूषण कहते हैं कि हर सुनवाई में सरकार अदालत से और वजह मांगती है और मामला टलता है। अब (बजट में प्रस्तावित संशोधन आने से) ये साफ हो गया है कि सरकार इस मामले में वक्त क्यों मांग रही है।
ग्रीनपीस, फोर्ड फाउंडेशन और तीस्ता सीतलवाड़ की एनजीओ समेत कई गैर सरकारी संगठनों पर एनडीए सरकार के वक्त में कार्रवाई हुई है। ज्यादातर को या तो अपना काम बंद करना पड़ा है या पैसा मिलना बंद हो गया है। सरकार ने तमाम एनजीओ पर यह कार्यवाही फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेग्यूलेशन एक्ट (FCRA) के तहत की है जिसके उल्लंघन का आरोप इन एनजीओ पर लगाया गया है।
हालांकि खुद वित्तमंत्री अरुण जेटली की ओर से बजट में लाया गया एक संशोधन चुपचाप कांग्रेस और बीजेपी की मदद करने वाला है। इस बदलाव से कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियों की ओर से पिछले कुछ सालों में गैरकानूनी तरीके से ली गई विदेशी फंडिग जायज हो जायेगी और आने वाले दिनों में विदेशी कंपनियां किसी भी राजनीतिक पार्टी के प्रचार में पैसा लगा सकती हैं।
विदेशी स्त्रोत की बदली परिभाषा
वित्तमंत्री जेटली ने बजट में बजट के ज़रिये एफसीआरए कानून में जो बदलाव प्रस्तावित किया है उससे विदेशी स्रोत की परिभाषा बदल जाती है। सरल भाषा में कहें तो अब किसी भारतीय कंपनी में 50 प्रतिशत से अधिक पैसा लगाने वाली कंपनी भी विदेशी नहीं मानी जायेगी अगर निवेश किया गया पैसा विदेशी निवेश यानी एफडीई की कानूनी सीमा के तहत है और फेमा कानून का पालन होता है।
कांग्रेस और बीजेपी ने पिछले कुछ सालों में उद्योगपति अनिल अग्रवाल की लंदन स्थित कंपनी वेदांता की सबसिडियरी कंपनियों से चुनावी चंदा लिया। चुनाव के लिये विदेशी चंदा लेने का यह खुलासा सबसे पहले चुनाव सुधार के लिये काम कर रही संस्था एसोसिएशन फॉर डिमोक्रेटिक रिफॉर्म की पड़ताल से हुआ।
एसोसियेशन ऑफ डिमॉक्रेटिक रिफॉर्म के जगदीप छोकर कहते हैं कि 'कांग्रेस और बीजेपी की ओर से चुनाव आयोग में दिये गये दस्तावेजों को पढ़ने से पता चला कि एक ही फर्म कांग्रेस और बीजेपी दोनों को करोड़ों रुपये का चंदा दे रही है। जब हमने पता किया तो जानकारी मिली कि तीन कंपनियां यह पैसा दे रही थीं और यह तीन कंपनियां लंदन में स्थित वेदांता रिसोर्सेस की सबसिडियरी थी।'
विदेशी कंपनियों की पकड़ नहीं..
दिल्ली हाइकोर्ट की ओर से 28 मार्च 2014 को सुनाये गये अपने फैसले में कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियों को एफसीआऱए कानून के तहत दोषी मानते हुये गृह मंत्रालय से इन दोनों पार्टियों पर कार्यवाही करने को कहा। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ है। सबसे बड़ी बात यह है कि वित्तमंत्री ने फॉरेन सोर्स की परिभाषा में बदलाव 2010 से लागू करने का प्रस्ताव किया है जिससे दोनों ही पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो पायेगी।
सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या भारतीय राजनीति में अब विदेशी कंपनियों की पकड़ नहीं बनेगी। क्या विदेशी कंपनियां पार्टियों का चुनावी खर्च उठाकर बाद में उन पर अपनी मर्ज़ी के कानून बनाने के लिए दबाव नहीं डालेंगी या सरकार की नीतियों में दखलंदाज़ी नहीं करेंगी।
सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य प्रकाश करात कहते हैं कि उनकी पार्टी संसद में इस संशोधन का पूरी ताकत से डटकर विरोध करेही। करात ने एनडीटीवी इंडिया से कहा कि इस संशोधन के आने से राजनीतिक पार्टियों का चरित्र ही बदल जायेगा और फिर उनके प्रचार में विदेशी कंपनियां आसानी से पैसा लगा सकती है। उधर गैर सरकारी संगठनों का कहना है कि सरकार एनजीओ और राजनीतिक पार्टियों के लिये बिल्कुल अलग अलग पैमाने बना रही है जो लोकतंत्र के लिये खतरनाक है।
राजनीतिक पार्टियों को बचाने की कोशिश
नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर अमिताभ बेहर कहते हैं कि यह बड़ी अजब स्थिति है। एक ओर सभी एनजीओ के खिलाफ एपसीआरए कानून के तहत कार्रवाई की जा रही है और उन्हें अदालत में मदद मांगने जाना पड़ रहा है, वहीं राजनीतिक पार्टियों को बचाने के लिये सरकार इस तरह से बजट में संशोधन कर रही है।
कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही पार्टियों ने चुनाव में विदेशी कंपनी से चंदा लेने के हाइकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है और यह मामला वहां चल ही रहा है। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं की ओर से जिरह कर रहे वकील प्रशांत भूषण कहते हैं कि हर सुनवाई में सरकार अदालत से और वजह मांगती है और मामला टलता है। अब (बजट में प्रस्तावित संशोधन आने से) ये साफ हो गया है कि सरकार इस मामले में वक्त क्यों मांग रही है।
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं