
एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस (एएमआर) यानी संक्रमणों के इलाज में दवाइयों के असर कम होने की समस्या आज दुनिया भर में एक बड़ी स्वास्थ्य चिंता बन चुकी है. हर साल लाखों लोगों की मौत इसी वजह से होती है. एक नई रिसर्च में पता चला है कि थोड़े समय तक एंटीबायोटिक लेने से भी हमारे पेट के बैक्टीरिया में लंबे समय तक रेसिस्टेंस (प्रतिरोधक क्षमता) बन सकती है. अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने इस अध्ययन में 'सिप्रोफ्लॉक्सासिन' नामक एंटीबायोटिक पर ध्यान केंद्रित किया. यह दवा शरीर के कई हिस्सों के बैक्टीरियल संक्रमण के इलाज में काम आती है.
रिसर्च में पाया गया कि सिप्रोफ्लॉक्सासिन कई अलग-अलग बैक्टीरिया प्रजातियों में स्वतंत्र रूप से रेजिस्टेंस पैदा कर सकता है और यह असर दस सप्ताह से ज्यादा समय तक बना रह सकता है. एएमआर का मुख्य कारण एंटीबायोटिक दवाओं का जरूरत से ज्यादा या गलत इस्तेमाल है. पहले के अध्ययन लैब में या जानवरों पर किए जाते थे, लेकिन इस नई रिसर्च में वैज्ञानिकों ने 60 स्वस्थ इंसानों पर लंबा अध्ययन किया और देखा कि कैसे एंटीबायोटिक के बाद बैक्टीरिया में बदलाव आते हैं. यह शोध 'नेचर' नामक पत्रिका में छपा है.
शोधकर्ताओं ने 60 स्वस्थ वयस्कों को पांच दिन तक दिन में दो बार 500 मिलीग्राम सिप्रोफ्लोक्सासिन लेने को कहा. उन्होंने प्रतिभागियों के मल सैंपल लिए और एक कंप्यूटर तकनीक से 5,665 बैक्टीरियल जीनोम का विश्लेषण किया, जिसमें 23 लाख से ज्यादा जेनेटिक बदलाव (म्यूटेशन) पाए गए. इनमें से 513 बैक्टीरिया समूहों में 'जीवाईआरए' नामक जीन में बदलाव पाया गया, जो फ्लोरोक्विनोलोन नामक एंटीबायोटिक समूह से रेजिस्टेंस बनाने से जुड़ा है. फ्लोरोक्विनोलोन ऐसे एंटीबायोटिक्स हैं जो बैक्टीरिया के डीएनए बनाने की प्रक्रिया को बाधित कर उन्हें मारते हैं.
ज्यादातर म्यूटेशन हर व्यक्ति के शरीर में अलग-अलग तरह से अपने आप बन गए. करीब 10 प्रतिशत बैक्टीरिया, जो पहले दवा से मर सकते थे, उनमें अब रेजिस्टेंस बन गई. यह रेजिस्टेंस दस हफ्ते बाद भी बनी रही. खास बात यह रही कि जिन बैक्टीरिया की संख्या पहले से ज्यादा थी, उन्हीं में रेजिस्टेंस बनने की संभावना अधिक थी. वैज्ञानिकों ने कहा, "यह अध्ययन दिखाता है कि सिप्रोफ्लोक्सासिन के थोड़े समय के इस्तेमाल से भी पेट के बैक्टीरिया में रेजिस्टेंस विकसित हो सकती है, और ये बदलाव दवा खत्म होने के बाद भी लंबे समय तक टिके रह सकते हैं." दी गई रिसर्च से पता चलता है कि इंसानी पेट में बैक्टीरिया खुद को बदलते रहते हैं ताकि दवाइयों का उन पर असर न हो. इस बदलाव में उनके जीन और आसपास के माहौल का बड़ा रोल होता है.
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(अस्वीकरण: सलाह सहित यह सामग्री केवल सामान्य जानकारी प्रदान करती है. यह किसी भी तरह से योग्य चिकित्सा राय का विकल्प नहीं है. अधिक जानकारी के लिए हमेशा किसी विशेषज्ञ या अपने चिकित्सक से परामर्श करें. एनडीटीवी इस जानकारी के लिए ज़िम्मेदारी का दावा नहीं करता है.)
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