New Delhi:
भारतीय सिनेमा को नियंत्रित करने के लिए सेंसर बोर्ड की आवश्यकता पर बहस हमेशा जारी रहेगी, लेकिन केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) की अध्यक्ष शर्मिला टैगोर का कहना है कि बोर्ड फिल्मों के लिए नैतिकता सिखाने वाली पुलिस का काम नहीं करता। वह कहती हैं कि समय के साथ सेंसर बोर्ड में भी बदलाव हुए हैं। शर्मिला ने कहा, हम खुद को सेंसर बोर्ड से ज्यादा फिल्मों को प्रमाणपत्र देने वाले निकाय के रूप में देखते हैं। हम नैतिकता नहीं सिखाते। हम मध्यम मार्ग अपनाते हैं। हम फिल्मों में बहुत सी चीजें जाने देते हैं, क्योंकि हमें अधिक सहिष्णु और परिपक्व होना पड़ा है। समय बदल रहा है और हमें भी इसके साथ बदलना पड़ा है। उन्होंने कहा, मैं सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दोनों में विश्वास करती हूं, लेकिन इसके साथ ही जायज प्रतिबंध भी होने चाहिए। उदारता दिखाने बदलाव लम्बे समय तक टिकेगा। 64 वर्षीय शर्मिला 2004 में सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष बनी थीं। जब से उन्होंने यह काम संभाला है तब से फिल्मों की सामग्री, संवाद और कथ्य में काफी बदलाव हुआ है। निर्देशकों ने 'तेरे बिन लादेन' जैसी कम बजट की फिल्म भी बनाई, तो 'देव डी' और 'लव सेक्स और धोखा' जैसी साहसिक विषयों वाली फिल्में भी बनीं। एक समय ऐसा था जब फिल्मों में अभद्र शब्दों के इस्तेमाल पर सेंसर बोर्ड को आपत्ति हो जाती थी, लेकिन अब 'ओमकारा', 'कमीने', 'इश्किया' और 'नो वन किल्ड जेसिका' जैसी फिल्मों में गालियों का जमकर इस्तेमाल हुआ है, हां इतना जरूर है कि इन फिल्मों को ए-सर्टिफिकेट मिला, जिसके चलते वयस्क लोग ही इन्हें देख पाए।
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