नई दिल्ली:
मुंबई शहर में जिंदगी की आपाधापी के बीच ‘लग गई’ शब्द इतना सामान्य हो गया है कि लेखक-निर्देशक राकेश मेहता ने इस नाम और इस नाम के पीछे छिपे फलसफे को अपनी फिल्म ‘लाइफ की तो लग गई’ का आधार बना डाला। राकेश मेहता की यह फिल्म 20 अप्रैल को प्रदर्शित हो रही है। फिल्म विशुद्ध कॉमेडी है, और निर्देशक का दावा है कि दर्शक सिनेमाघर से बाहर निकलने के बाद भी याद रखेंगे। इस फिल्म के विचार से दिल्ली से मुंबई पहुंचने के राकेश मेहता के सफर पर उनसे खास बातचीत।
* लाइफ की तो लग गई। यह नाम कहां से सूझा?
सच कहूं तो रोज़मर्रा की जिंदगी से। मुंबई में लोगों की लाइफ इतनी तनावपूर्ण रहती है कि सबकी जुबां पर यह शब्द चढ़ा रहता है कि बस लगी हुई है यार। सो इस मुहावरे को फिल्म का नाम चुन लिया...। और एक लिहाज से मेरी फिल्म की कहानी का एक सार यह भी है।
* फिल्म का नाम कॉमेडी फिल्म का संकेत दे रहा है। तो किस तरह की फिल्म है। व्यंग्य है या विशुद्ध कॉमेडी।
व्यंग्य नहीं है। कॉमेडी है। चार किरदारों की चार कहानियां है, जो आपस में जुड़ी हुई है। एक बंदा पुलिस में। एक मुंबई में अपनी गर्लफ्रेंड खोज रहा है। एक अंडरवर्ल्ड डॉन का लड़का है, जिसके मां-बाप की हत्या हो गई है। एक लड़की हीरोइन बनने आई है...तो इन चार किरदारों की कहानी है फिल्म। रणवीर शौरी, मनु ऋषि और केके मेनन जैसे कलाकारों ने इन किरदारों में जान फूंकने की कोशिश की है।
* फिल्म में प्रद्युम्न सिंह भी हैं, जिन्हें हम ‘तेरे बिन लादेन’ में लादेन का किरदार निभाते हुए देख चुके हैं। वह क्या कर रहे हैं फिल्म में।
उन्होंने सरप्राइज करेक्टर प्ले किया है। रणवीर शौरी के एक मित्र का किरदार निभाया है। लेकिन यह बंदा 'लगाने' वालों में है... इसकी लगती नहीं है।
* आपकी पहली फिल्म है तो इसे लेकर कितने उत्साहित या घबराए हैं?
हां, यह मेरी पहली कमर्शियल फिल्म है। एक शॉर्ट फिल्म बनाई थी खुदाखुशी। 19 अवॉर्ड मिले थे उस फिल्म को। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर। लेकिन, एक कमर्शियल फिल्म बनाई है अब तो उसे लेकर निश्चित तौर पर उत्साहित हूं तो घबराहट भी है। बहुत बड़ी बड़ी फिल्म रिलीज हो रही हैं उसी वक्त। आज प्रमोशन का जमाना है तो फिल्म का प्रमोशन भी जरूरी है। इसके बीच एक अच्छी कहानी को लेकर फिल्म बनाना और उसे रिलीज करना चुनौती है। मेरी फिल्म में चारों मंजे कलाकार हैं। उम्मीद है कि कहानी लोगों को पसंद आएगी।
* बॉक्स ऑफिस सफलता कितना महत्व रखती है... क्योंकि लीक से हटकर फिल्म बनाने में एक खतरा तो रहता ही है।
देखिए, खतरा नहीं लेंगे तो खतरे का पता नहीं चलेगा। सफलता के लिए रिस्क लेना जरूरी है। किसी खास मुकाम पर पहुंचने के लिए पहला कदम तो बढ़ाना होगा। बॉक्स ऑफिस की सफलता बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे भविष्य की राह आसान हो जाती है, लेकिन फिर भी मैं कहूंगा कि फिल्म को एप्रिसिएशन मिलना मेरे लिए ज्यादा जरूरी है।
* आज नए किस्म का सिनेमा बन रहा है। तमाम तरह के प्रयोग हो रहे हैं। तो बतौर निर्देशक आपको क्या लगता है कि इस तरह के प्रयोगों के लिए बाजार में इतनी जमीन तैयार हो गई है कि असफलता के बावजूद निर्माताओं का पैसा नहीं डूब रहा।
हां, ऐसा हो रहा है। फिल्म का बजट कम होता है तो पैसा डूबने के चांस कम हो जाते हैं। लेकिन, यह कोई फ़र्मूला नहीं है। क्योंकि फिल्म की किसी भी तरह की सफलता के लिए जरूरी है कि उसमें अच्छी कहानी हो, अच्छी अदाकारी हो, अच्छा निर्देशन हो। सिर्फ इससिलए कोई फिल्म पैसा वसूल नहीं कर सकती क्योंकि वह छोटे बजट की है।
* कितना मुश्किल रहा अपनी पहली फिल्म बनाना... और निर्देशक का काम कितना चुनौतीपूर्ण रहा...?
देखिए, तकनीकी तौर पर ज्यादा मुश्किल नहीं हुई। फिर कलाकारों का चयन बहुत अच्छा किया। अच्छे कलाकारों के साथ एक सुविधा यह रहती है कि वे एक बार स्क्रिप्ट पढ़ लेते हैं तो फिर अमूमन रिहर्सल की जरूरत नहीं रहती। मैं कहूंगा कि प्रोडक्शन में परेशानी नहीं हुई लेकिन रिलीज के लिए थोड़ा दौड़ना पड़ता है। वह जद्दोजेहद तो रही। वैसे, हमारा कल्चर ही राम-कृष्ण का रहा है यानी सितारों का। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी को मौके ही न मिलें। नए निर्देशकों पर 100 करोड़ का निवेश भले मत कीजिए लेकिन उन्हें मौका तो दीजिए तभी तो वे खुद को साबित करेंगे।
* प्रचार कितना महत्वपूर्ण है लीक से अलग फिल्मों के मामले में। और आप क्या कर रहे हैं।
अच्छा हुआ कि आज सोशल मीडिया हम लोगों के साथ है। लोगों तक पहुंचना आसान हो गया है। टीवी-अखबार में करोड़ों रुपये खर्च करना सभी के लिए संभव नहीं है। सोशल मीडिया पर हम लोग काफी सक्रिय है। फिल्म के रिलीज के वक्त बाकी कोशिश करेंगे। बाकी मेरा मानना है कि कलाकारों को लेकर मॉल जाना-सड़कों पर घूमना और ऐसी नौटंकी करना सही नहीं है। हालांकि, काफी लोग मेरी राय से इत्तेफाक नहीं रखेंगे। मेरा विश्वास सोशल मीडिया में है और आने वाले दिनों में तो सोशल मीडिया की भूमिका बहुत खास होगी।
* अब आप अपने बारे में बताइए। फिल्मों की दुनिया में आना कैसे हुआ?
मेरा जन्म दिल्ली में हुआ। मैं बचपन से फिल्मों का दीवाना रहा हूं लेकिन हालात कुछ ऐसे हुए कि परिवार वालों के कहने पर कारोबार में लग गया। इस बीच जर्मनी चला गया। वहां बिजनेस किया। लेकिन मन नहीं लगा। आखिर में लगा कि मैं जो करना चाहता हूं, वही करना चाहिए। इसी बेचैनी में मुंबई आ गया। पहले एक श़ॉर्ट फिल्म बनाई। उसे प्रशंसा मिली तो लगा कि अब कमर्शियल फिल्म बनानी चाहिए। मैंने किसी फिल्म निर्देशक को असिस्ट नहीं किया। तीन साल पहले मुंबई आया और लग गया अपने काम में। मुझे लगता है कि फिल्म की बेसिक जानकारी बहुत जरूरी है लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है कि आप दुनिया को कैसे देखते हैं। यानी ऑब्जरवेशन। बाकी तकनीकी बातों की सामान्य जानकारी होने से काम चल सकता है।
* लेकिन, इतने कलाकारों को कैसे विश्वास में लिया। या कहूं कि इन लोगों ने आप पर कैसे भरोसा जताया।
ये सारे कलाकार अनुभवी है और मैं कहूंगा कि कलाकारों का जो सिक्स्थ सेंस होता है, वह आम लोगों के मुकाबले काफी तेज होता है। मैंने इन्हें अपनी शॉर्ट फिल्म भेजी थी, जिसे देखकर इन सभी ने भरोसा जताया।
* इस फिल्म के बाद क्या इरादा है?
मेरे अकेले के तय करने से कुछ नहीं होता। सफलता मिलेगी तो रास्ते आसान हो जाते है। ऐसा नहीं है कि सफलता मिली तो सातवें आसामान में चला जाऊंगा। एक और स्टोरी लिखी है तो उसपर काम करूंगा। मैंने पहले भी कहा कि एप्रिसिएशन जरूरी है। टिकट खिड़की पर सफलता की गारंटी तो कोई नहीं दे सकता। लेकिन मुझे लगता है कि मेरी फिल्म को सिनेमा समझने वाले लोग जरूर सराहेंगे।
* लाइफ की तो लग गई। यह नाम कहां से सूझा?
सच कहूं तो रोज़मर्रा की जिंदगी से। मुंबई में लोगों की लाइफ इतनी तनावपूर्ण रहती है कि सबकी जुबां पर यह शब्द चढ़ा रहता है कि बस लगी हुई है यार। सो इस मुहावरे को फिल्म का नाम चुन लिया...। और एक लिहाज से मेरी फिल्म की कहानी का एक सार यह भी है।
* फिल्म का नाम कॉमेडी फिल्म का संकेत दे रहा है। तो किस तरह की फिल्म है। व्यंग्य है या विशुद्ध कॉमेडी।
व्यंग्य नहीं है। कॉमेडी है। चार किरदारों की चार कहानियां है, जो आपस में जुड़ी हुई है। एक बंदा पुलिस में। एक मुंबई में अपनी गर्लफ्रेंड खोज रहा है। एक अंडरवर्ल्ड डॉन का लड़का है, जिसके मां-बाप की हत्या हो गई है। एक लड़की हीरोइन बनने आई है...तो इन चार किरदारों की कहानी है फिल्म। रणवीर शौरी, मनु ऋषि और केके मेनन जैसे कलाकारों ने इन किरदारों में जान फूंकने की कोशिश की है।
* फिल्म में प्रद्युम्न सिंह भी हैं, जिन्हें हम ‘तेरे बिन लादेन’ में लादेन का किरदार निभाते हुए देख चुके हैं। वह क्या कर रहे हैं फिल्म में।
उन्होंने सरप्राइज करेक्टर प्ले किया है। रणवीर शौरी के एक मित्र का किरदार निभाया है। लेकिन यह बंदा 'लगाने' वालों में है... इसकी लगती नहीं है।
* आपकी पहली फिल्म है तो इसे लेकर कितने उत्साहित या घबराए हैं?
हां, यह मेरी पहली कमर्शियल फिल्म है। एक शॉर्ट फिल्म बनाई थी खुदाखुशी। 19 अवॉर्ड मिले थे उस फिल्म को। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर। लेकिन, एक कमर्शियल फिल्म बनाई है अब तो उसे लेकर निश्चित तौर पर उत्साहित हूं तो घबराहट भी है। बहुत बड़ी बड़ी फिल्म रिलीज हो रही हैं उसी वक्त। आज प्रमोशन का जमाना है तो फिल्म का प्रमोशन भी जरूरी है। इसके बीच एक अच्छी कहानी को लेकर फिल्म बनाना और उसे रिलीज करना चुनौती है। मेरी फिल्म में चारों मंजे कलाकार हैं। उम्मीद है कि कहानी लोगों को पसंद आएगी।
* बॉक्स ऑफिस सफलता कितना महत्व रखती है... क्योंकि लीक से हटकर फिल्म बनाने में एक खतरा तो रहता ही है।
देखिए, खतरा नहीं लेंगे तो खतरे का पता नहीं चलेगा। सफलता के लिए रिस्क लेना जरूरी है। किसी खास मुकाम पर पहुंचने के लिए पहला कदम तो बढ़ाना होगा। बॉक्स ऑफिस की सफलता बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे भविष्य की राह आसान हो जाती है, लेकिन फिर भी मैं कहूंगा कि फिल्म को एप्रिसिएशन मिलना मेरे लिए ज्यादा जरूरी है।
* आज नए किस्म का सिनेमा बन रहा है। तमाम तरह के प्रयोग हो रहे हैं। तो बतौर निर्देशक आपको क्या लगता है कि इस तरह के प्रयोगों के लिए बाजार में इतनी जमीन तैयार हो गई है कि असफलता के बावजूद निर्माताओं का पैसा नहीं डूब रहा।
हां, ऐसा हो रहा है। फिल्म का बजट कम होता है तो पैसा डूबने के चांस कम हो जाते हैं। लेकिन, यह कोई फ़र्मूला नहीं है। क्योंकि फिल्म की किसी भी तरह की सफलता के लिए जरूरी है कि उसमें अच्छी कहानी हो, अच्छी अदाकारी हो, अच्छा निर्देशन हो। सिर्फ इससिलए कोई फिल्म पैसा वसूल नहीं कर सकती क्योंकि वह छोटे बजट की है।
* कितना मुश्किल रहा अपनी पहली फिल्म बनाना... और निर्देशक का काम कितना चुनौतीपूर्ण रहा...?
देखिए, तकनीकी तौर पर ज्यादा मुश्किल नहीं हुई। फिर कलाकारों का चयन बहुत अच्छा किया। अच्छे कलाकारों के साथ एक सुविधा यह रहती है कि वे एक बार स्क्रिप्ट पढ़ लेते हैं तो फिर अमूमन रिहर्सल की जरूरत नहीं रहती। मैं कहूंगा कि प्रोडक्शन में परेशानी नहीं हुई लेकिन रिलीज के लिए थोड़ा दौड़ना पड़ता है। वह जद्दोजेहद तो रही। वैसे, हमारा कल्चर ही राम-कृष्ण का रहा है यानी सितारों का। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी को मौके ही न मिलें। नए निर्देशकों पर 100 करोड़ का निवेश भले मत कीजिए लेकिन उन्हें मौका तो दीजिए तभी तो वे खुद को साबित करेंगे।
* प्रचार कितना महत्वपूर्ण है लीक से अलग फिल्मों के मामले में। और आप क्या कर रहे हैं।
अच्छा हुआ कि आज सोशल मीडिया हम लोगों के साथ है। लोगों तक पहुंचना आसान हो गया है। टीवी-अखबार में करोड़ों रुपये खर्च करना सभी के लिए संभव नहीं है। सोशल मीडिया पर हम लोग काफी सक्रिय है। फिल्म के रिलीज के वक्त बाकी कोशिश करेंगे। बाकी मेरा मानना है कि कलाकारों को लेकर मॉल जाना-सड़कों पर घूमना और ऐसी नौटंकी करना सही नहीं है। हालांकि, काफी लोग मेरी राय से इत्तेफाक नहीं रखेंगे। मेरा विश्वास सोशल मीडिया में है और आने वाले दिनों में तो सोशल मीडिया की भूमिका बहुत खास होगी।
* अब आप अपने बारे में बताइए। फिल्मों की दुनिया में आना कैसे हुआ?
मेरा जन्म दिल्ली में हुआ। मैं बचपन से फिल्मों का दीवाना रहा हूं लेकिन हालात कुछ ऐसे हुए कि परिवार वालों के कहने पर कारोबार में लग गया। इस बीच जर्मनी चला गया। वहां बिजनेस किया। लेकिन मन नहीं लगा। आखिर में लगा कि मैं जो करना चाहता हूं, वही करना चाहिए। इसी बेचैनी में मुंबई आ गया। पहले एक श़ॉर्ट फिल्म बनाई। उसे प्रशंसा मिली तो लगा कि अब कमर्शियल फिल्म बनानी चाहिए। मैंने किसी फिल्म निर्देशक को असिस्ट नहीं किया। तीन साल पहले मुंबई आया और लग गया अपने काम में। मुझे लगता है कि फिल्म की बेसिक जानकारी बहुत जरूरी है लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है कि आप दुनिया को कैसे देखते हैं। यानी ऑब्जरवेशन। बाकी तकनीकी बातों की सामान्य जानकारी होने से काम चल सकता है।
* लेकिन, इतने कलाकारों को कैसे विश्वास में लिया। या कहूं कि इन लोगों ने आप पर कैसे भरोसा जताया।
ये सारे कलाकार अनुभवी है और मैं कहूंगा कि कलाकारों का जो सिक्स्थ सेंस होता है, वह आम लोगों के मुकाबले काफी तेज होता है। मैंने इन्हें अपनी शॉर्ट फिल्म भेजी थी, जिसे देखकर इन सभी ने भरोसा जताया।
* इस फिल्म के बाद क्या इरादा है?
मेरे अकेले के तय करने से कुछ नहीं होता। सफलता मिलेगी तो रास्ते आसान हो जाते है। ऐसा नहीं है कि सफलता मिली तो सातवें आसामान में चला जाऊंगा। एक और स्टोरी लिखी है तो उसपर काम करूंगा। मैंने पहले भी कहा कि एप्रिसिएशन जरूरी है। टिकट खिड़की पर सफलता की गारंटी तो कोई नहीं दे सकता। लेकिन मुझे लगता है कि मेरी फिल्म को सिनेमा समझने वाले लोग जरूर सराहेंगे।
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