पूरी सीरीज में जिम्बाब्वे के बल्लेबाज संघर्ष करते नजर आए।
हरारे:
माह की शुरुआत में जब महेंद्र सिंह धोनी के नेतृत्व में युवा खिलाड़ियों से लैस टीम इंडिया जब जिम्बाब्वे के लिए रवाना हुई थी तो किसी ने उम्मीद नहीं की थी कि मुकाबले इस हद तक एकतरफा होंगे। हालांकि वनडे सीरीज में धोनी ब्रिगेड की जीत पर किसी को संदेह नहीं था, लेकिन यह अनुमान लगाया जा रहा था कि धोनी को छोड़ लगभग पूरी तरह नईनवेली इस टीम को जिम्बाब्वे 'कठिन मुकाबले' के लिए मजबूर कर सकता है। बहरहाल यह अनुमान पूरी तरह गलत निकला और जिम्बाब्वे के खिलाड़ियों ने तीनों मैचों में इस तरह तश्तरी में रखकर टीम इंडिया को जीत सौंप दी मानो मेहमानों का 'स्वागत' कर रहे हों।
इतने कमजोर प्रदर्शन के बाद जिम्बाब्वे के प्रशंसकों के गुस्से को एक हद तक जायज ही ठहराया जा सकता है। यह सही है कि जिम्बाब्वे और टीम इंडिया के खिलाड़ियों के स्तर में जमीन-आसमान का फर्क है, लेकिन अखरने वाली बात यह रही कि मेजबान टीम के किसी भी खिलाड़ी ने संघर्ष का जज्बा नहीं दिखाया। इस मामले में गेंदबाजों के मुकाबले बल्लेबाजों को ज्यादा कुसूरवार ठहराया जाना चाहिए, जिन्होंने पुरानी गलतियों से सबक नहीं सीखा। इन्होंने अपने गेंदबाजों को वह स्कोर ही नहीं दिया जो किसी भी स्थिति में डिफेंड करने के लायक हो।
आमतौर पर मैच दर मैच किसी टीम के प्रदर्शन में सुधार आता है, लेकिन जिम्बाब्वे टीम इसका अपवाद रही। हर मैच के साथ उसके प्रदर्शन में गिरावट ही आई। पहले मैच में जहां मेजबान टीम किसी तरह 168 रन तक पहुंची तो दूसरे और तीसरे वनडे में तो 150 का आंकड़ा छूना ही उसके लिए मुश्किल बन गया। दूसरे वनडे में टीम 126 और तीसरे में 123 रन पर ढेर हो गई। अंतिम दो वनडे की यह रनसंख्या इस मायने में अधिक 'दयनीय' मानी जाएगी कि 100 रन तक जिम्बाब्वे टीम के महज तीन विकेट ही गिरे थे, लेकिन मध्य और निचले क्रम के बल्लेबाजों ने गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाया और टीम 200 रन के आसपास तक नहीं पहुंच सकी।
इतनी कम रनसंख्या पर भारत को बड़ी जीत मिलना तय ही था। धोनी ब्रिगेड ने पहला मैच 9, दूसरा 8 और तीसरा 10 विकेट से जीता। वनडे सीरीज में जिम्बाब्वे का 'सफाया' करने के बाद टीम इंडिया की नजर अब टी-20 पर है। स्वाभाविक है कि मानसिक रूप से निचले स्तर पर पहुंच चुकी जिम्बाब्वे टीम के लिए आगे की राह भी 'कांटों' से भरी है...।
इतने कमजोर प्रदर्शन के बाद जिम्बाब्वे के प्रशंसकों के गुस्से को एक हद तक जायज ही ठहराया जा सकता है। यह सही है कि जिम्बाब्वे और टीम इंडिया के खिलाड़ियों के स्तर में जमीन-आसमान का फर्क है, लेकिन अखरने वाली बात यह रही कि मेजबान टीम के किसी भी खिलाड़ी ने संघर्ष का जज्बा नहीं दिखाया। इस मामले में गेंदबाजों के मुकाबले बल्लेबाजों को ज्यादा कुसूरवार ठहराया जाना चाहिए, जिन्होंने पुरानी गलतियों से सबक नहीं सीखा। इन्होंने अपने गेंदबाजों को वह स्कोर ही नहीं दिया जो किसी भी स्थिति में डिफेंड करने के लायक हो।
आमतौर पर मैच दर मैच किसी टीम के प्रदर्शन में सुधार आता है, लेकिन जिम्बाब्वे टीम इसका अपवाद रही। हर मैच के साथ उसके प्रदर्शन में गिरावट ही आई। पहले मैच में जहां मेजबान टीम किसी तरह 168 रन तक पहुंची तो दूसरे और तीसरे वनडे में तो 150 का आंकड़ा छूना ही उसके लिए मुश्किल बन गया। दूसरे वनडे में टीम 126 और तीसरे में 123 रन पर ढेर हो गई। अंतिम दो वनडे की यह रनसंख्या इस मायने में अधिक 'दयनीय' मानी जाएगी कि 100 रन तक जिम्बाब्वे टीम के महज तीन विकेट ही गिरे थे, लेकिन मध्य और निचले क्रम के बल्लेबाजों ने गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाया और टीम 200 रन के आसपास तक नहीं पहुंच सकी।
इतनी कम रनसंख्या पर भारत को बड़ी जीत मिलना तय ही था। धोनी ब्रिगेड ने पहला मैच 9, दूसरा 8 और तीसरा 10 विकेट से जीता। वनडे सीरीज में जिम्बाब्वे का 'सफाया' करने के बाद टीम इंडिया की नजर अब टी-20 पर है। स्वाभाविक है कि मानसिक रूप से निचले स्तर पर पहुंच चुकी जिम्बाब्वे टीम के लिए आगे की राह भी 'कांटों' से भरी है...।
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