जस्टिस मार्केंडेय काटजू का फाइल फोटो
नई दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने बीसीसीआई में सुधारवादी कदमों पर उच्चतम न्यायालय के फैसले पर निशाना साधते हुए सुधारवादी कदमों को 'असंवैधानिक और गैरकानूनी' करार दिया। जस्टिस लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सलाह के लिए बीसीसीआई ने काटजू को नियुक्त किया है।
काटजू ने बोर्ड को सलाह दी है कि वे सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ के समक्ष समीक्षा याचिका दायर करे और नौ अगस्त को समिति के साथ पूर्व निर्धारित बैठक नहीं करे। उन्होंने समिति को 'अमान्य' करार दिया है।
काटजू ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा, ''सुप्रीम कोर्ट ने जो किया है वह असंवैधानिक और गैरकानूनी है। इसमें संविधान के सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया है। संविधान के अंतर्गत हमारे पास विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं। इनके कार्यों को अलग-अलग रखा गया है। कानून बनाना विधायिका का विशेषाधिकार है। अगर न्यायपालिका कानून बनाने लगेगी तो यह खतरनाक मिसाल स्थापित करना होगा।''
उन्होंने कहा, ''मैंने उन्हें (बीसीसीआई को) सलाह दी है कि बड़ी पीठ के समक्ष समीक्षा याचिका दायर करें। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने बीसीसीआई की सजा पर फैसला करने के लिए एक समिति (लोढ़ा समिति के संदर्भ में) को आउटसोर्स किया है।'' बीसीसीआई सचिव अजय शिर्के ने हालांकि कहा कि बोर्ड न्यायमूर्ति काटजू द्वारा तैयार अंतरिम रिपोर्ट का पहले अध्ययन करेगा और फिर फैसला करेगा।
...भानुमति का पिटारा खुल जाएगा
काटजू ने अपने नजरिये को विस्तार से बताया, ''उच्चतम न्यायालय ने बीसीसीआई की कार्यप्रणाली में खामियां ढूंढने के लिए लोढ़ा समिति को नियुक्त किया था। यह ठीक था। जब लोढ़ा समिति की रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय को सौंपी गई तो इसे संसद और राज्य विधायिका के पास भेजा जाना चाहिए था। इसे फिर विधायिका पर छोड़ा जाना चाहिए था कि वे इन सिफारिशों को स्वीकार करें या नहीं। न्यायपालिका को कानून नहीं बनाना चाहिए।''
उन्होंने उन मामलों का उदाहरण दिया जब गंभीर मुद्दे चार या पांच न्यायाधीशों की बड़ी पीठ के पास गए हैं। न्यायमूर्ति काटजू का तर्क है कि बीसीसीआई का संविधान तमिलनाडु सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत तैयार किया गया है और सुप्रीम कोर्ट तथा लोढ़ा समिति बीसीसीआई को उप नियमों में बदलाव के लिए बाध्य नहीं कर सकते।
उन्होंने कहा, ''उच्चतम न्यायालय और लोढ़ा समिति दोनों ने तमिलनाडु सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट का उल्लंघन किया है। उनके अपने मेमोरेंडम और उप नियम हैं। अगर आपको संविधान में बदलाव करना है तो दो तिहाई बहुमत से विशेष प्रस्ताव पारित किए जाने की जरूरत है। सोसाइटी स्वयं उप नियमों में बदलाव नहीं कर सकती। वित्तीय अनियमितताओं या प्रशासनिक कमियों से शिकायत हो सकती हैं, इस बारे में रजिस्ट्रार ऑफ सोसाइटीज को लिखा जाना चाहिए।''
जस्टिस काटजू हालांकि सहमत हैं कि बीसीसीआई में सुधार की जरूरत है लेकिन इसके खिलाफ उनके पास दलील भी है।
उन्होंने कहा, ''अगर हम बीसीसीआई में सुधार की बात करते हैं तो न्यायपालिका में भी सुधार की जरूरत है। भारतीय अदालतों में तीन करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। अगर यह खतरनाक प्रकिया शुरू हुई तो उच्चतम न्यायालय प्रेस की संपादकीय नीतियों, पत्रकारों के कार्यकाल पर भी फैसला करने लग सकता है। यह भानुमति के पिटारे को खोल देगा।''
(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
काटजू ने बोर्ड को सलाह दी है कि वे सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ के समक्ष समीक्षा याचिका दायर करे और नौ अगस्त को समिति के साथ पूर्व निर्धारित बैठक नहीं करे। उन्होंने समिति को 'अमान्य' करार दिया है।
काटजू ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा, ''सुप्रीम कोर्ट ने जो किया है वह असंवैधानिक और गैरकानूनी है। इसमें संविधान के सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया है। संविधान के अंतर्गत हमारे पास विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं। इनके कार्यों को अलग-अलग रखा गया है। कानून बनाना विधायिका का विशेषाधिकार है। अगर न्यायपालिका कानून बनाने लगेगी तो यह खतरनाक मिसाल स्थापित करना होगा।''
उन्होंने कहा, ''मैंने उन्हें (बीसीसीआई को) सलाह दी है कि बड़ी पीठ के समक्ष समीक्षा याचिका दायर करें। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने बीसीसीआई की सजा पर फैसला करने के लिए एक समिति (लोढ़ा समिति के संदर्भ में) को आउटसोर्स किया है।'' बीसीसीआई सचिव अजय शिर्के ने हालांकि कहा कि बोर्ड न्यायमूर्ति काटजू द्वारा तैयार अंतरिम रिपोर्ट का पहले अध्ययन करेगा और फिर फैसला करेगा।
...भानुमति का पिटारा खुल जाएगा
काटजू ने अपने नजरिये को विस्तार से बताया, ''उच्चतम न्यायालय ने बीसीसीआई की कार्यप्रणाली में खामियां ढूंढने के लिए लोढ़ा समिति को नियुक्त किया था। यह ठीक था। जब लोढ़ा समिति की रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय को सौंपी गई तो इसे संसद और राज्य विधायिका के पास भेजा जाना चाहिए था। इसे फिर विधायिका पर छोड़ा जाना चाहिए था कि वे इन सिफारिशों को स्वीकार करें या नहीं। न्यायपालिका को कानून नहीं बनाना चाहिए।''
उन्होंने उन मामलों का उदाहरण दिया जब गंभीर मुद्दे चार या पांच न्यायाधीशों की बड़ी पीठ के पास गए हैं। न्यायमूर्ति काटजू का तर्क है कि बीसीसीआई का संविधान तमिलनाडु सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत तैयार किया गया है और सुप्रीम कोर्ट तथा लोढ़ा समिति बीसीसीआई को उप नियमों में बदलाव के लिए बाध्य नहीं कर सकते।
उन्होंने कहा, ''उच्चतम न्यायालय और लोढ़ा समिति दोनों ने तमिलनाडु सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट का उल्लंघन किया है। उनके अपने मेमोरेंडम और उप नियम हैं। अगर आपको संविधान में बदलाव करना है तो दो तिहाई बहुमत से विशेष प्रस्ताव पारित किए जाने की जरूरत है। सोसाइटी स्वयं उप नियमों में बदलाव नहीं कर सकती। वित्तीय अनियमितताओं या प्रशासनिक कमियों से शिकायत हो सकती हैं, इस बारे में रजिस्ट्रार ऑफ सोसाइटीज को लिखा जाना चाहिए।''
जस्टिस काटजू हालांकि सहमत हैं कि बीसीसीआई में सुधार की जरूरत है लेकिन इसके खिलाफ उनके पास दलील भी है।
उन्होंने कहा, ''अगर हम बीसीसीआई में सुधार की बात करते हैं तो न्यायपालिका में भी सुधार की जरूरत है। भारतीय अदालतों में तीन करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। अगर यह खतरनाक प्रकिया शुरू हुई तो उच्चतम न्यायालय प्रेस की संपादकीय नीतियों, पत्रकारों के कार्यकाल पर भी फैसला करने लग सकता है। यह भानुमति के पिटारे को खोल देगा।''
(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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