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This Article is From Jun 12, 2016

रवांडा नरसंहार से पैदा हुई नफरत को दूर करने में 'शांतिदूत' साबित हो रहा है क्रिकेट

रवांडा नरसंहार से पैदा हुई नफरत को दूर करने में 'शांतिदूत' साबित हो रहा है क्रिकेट
रवांडा में क्रिकेट कैसे नफरत को प्यार में तब्दील कर रहा...
नई दिल्ली: 1994 में रवांडा में जो कुछ हुआ, उसे शायद ही कोई भूल सके। तुत्सी और हुतु समुदाय के बीच नरसंहार ने रवांडा को बर्बाद कर दिया था। 100 दिन तक चले नरसंहार में 80000 से भी ज्यादा लोगों की जान चली गयी थी। कई परिवार उजड़ गए थे। लोगों ने अपना देश छोड़ पड़ोसी मुल्क में शरण ली थी। आज भी वहां के लोग सदमे है,अपने परिवार को याद करते हैं। लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि दोनों समुदाय के लोग एक-दूसरे के करीब आने लगे हैं। इन समुदाय को करीब लाने में क्रिकेट शांति दूत के रूप में काम कर रहा है। क्रिकेट के प्रति प्यार लोगों के बीच नफरत और दूरियां कम हो रही हैं।

क्यों हुआ था नरसंहार...
रवांडा में तुत्सी और हुतु समुदाय के लोगों के बीच संघर्ष होता रहता है। वहां एक समुदाय दूसरे समुदाय के ऊपर अपना हक़ जमाने की कोशिश करता रहा है। लेकिन 1994 में यही संघर्ष नरसंहार के रूप में बदल गया था। 1994 में रवांडा के राष्ट्रपति हेबिअरिमाना और बुरुन्डियान के राष्ट्रपति सिप्रेन की हवाई जहाज पर बोर्डिंग के दौरान हत्या कर दी गई थी। उस वक्त हुतु समुदाय के सरकार थी और उन्हें लगा कि यह हत्या तुत्सी समुदाय के लोगों की है। इसके बाद नरसंहार शुरू हुआ। हुतु सरकार ने अपने सैनिकों के जरिए तुत्सी समुदाय के लोगों को मारना शुरू किया। पूरे देश में यह आदेश दिया गया था कि जहां भी तुत्सी समुदाय के लोग को दिखें, उन्हें मार दिया जाए। इस नरसंहार में 80000  से भी ज्यादा तुत्सी समुदाय के लोगों को मार दिया गया था। कई लोग छुपकर देश छोड़कर भाग गए  थे।
 
कैसे शुरू हुआ क्रिकेट...
रवांडा में क्रिकेट 1994 के नरसंहार के कुछ सालों बाद शुरू हुआ। 1959 में दोनों समुदाय के बीच हुए संघर्ष के दौरान कुछ लोग देश छोड़कर चले गए थे और पड़ोसी देश में बस गए थे। लेकिन 1994 नरसंहार के बाद इनमें कुछ लोग रवांडा वापस आना चाहते थे और क्रिकेट के जरिए लोगों के बीच की दूरियां और नफरत कम करना चाहते थे। रवांडा में क्रिकेट शुरू करने में सबसे बड़ा हाथ जिसका है, वह है चार्ल्स हबा। 1959 में चार्ल्स रवांडा छोड़ कर युगांडा में बस गए थे।1994 के नरसंहार के बाद चार्ल्स हबा रवांडा वापस आए और रवांडा में क्रिकेट की बढ़ावा के लिए काम करना शुरू कर दिए। रवांडा में क्रिकेट की शुरूआत सन 2000 के करीब हुई थी अब रवांडा में 6000 से भी ज्यादा क्रिकेट खिलाड़ी हैं। कई खिलाड़ी अपने अतीत को भूलकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। टीम में दोनों समुदाय के खिलाड़ी है। मिल जुलकर खेलते हुए आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। रवांडा में एक क्रिकेट एसोसिएशन भी बनाई गई है जिसके अध्यक्ष चार्ल्स हबा हैं।

प्रख्यात क्रिकेटर ब्रायन लारा कर रहे हैं मदद...
रवांडा में कोई बड़ा क्रिकेट स्टेडियम नहीं है। रवांडा की राजधानी किगाली में एक क्रिकेट स्टेडियम तो बना हुआ है लेकिन इसमें ज्यादा सुविधाएं नहीं हैं। इस स्टेडियम को वर्ल्ड क्लास स्टेडियम बनाने के लिए “रवांडा क्रिकेट स्टेडियम फ़ाउंडेशन” का गठन किया गया है जिसमें प्रख्यात क्रिकेटर ब्रायन लारा और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून जैसे लोग सहायक साबित हो रहे हैं। लारा के मदद करने के पीछे बहुत बड़ी वजह है। 16 अप्रैल 1994 में इंग्लैंड के खिलाफ खेले गए टेस्ट मैच में ब्रायन लारा ने शानदार 375 रन बनाए थे जो उनके टेस्ट करियर का सर्वाधिक स्कोर था लेकिन उसी समय रवांडा में नरसंहार चल रहा था और लारा इस नरसंहार को लेकर काफी दुखी थे।

किसने किया लारा को मदद  करने के लिए प्रेरित...
ब्रायन लारा ने इंग्लैंड के मैगज़ीन “द स्पेक्टेटर” में एक लेख लिखते हुए बताया है कि कैसे वह 2009 में रवांडा घूमने गए थे और उस दौरान इस देश की हाल देखकर हैरान हो गए थे। इस लेख में लारा ने लिखा है कि रवांडा के क्रिकेटर ऑडिफक्स बिरिंगिरो  से उनकी मुलाकात हुई थी और इस मुलाकात ने लारा को एहसास कराया कि उनको रवांडा क्रिकेट के लिए कुछ करना चाहिए। लारा ने लिखा है कि जब 1994 में वह शानदार फॉर्म में चल रहे थे तब बिरिंगिरो छह महीने का बच्चा था। 1994 में हुई नरसंहार में उसके पिता और तीन भाइयों की हत्या कर दी गई, सिर्फ बिरिंगिरो और उनकी मां बच गए थे। बिरिंगिरो ने 14 साल के उम्र में क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया था। लारा ने लिखा है कि 2009 में ऑडिफक्स से जब वह मिले थे वह यह देखते हुए आश्चर्य हो गए थे कि कैसे क्रिकेट उसकी ज़िंदगी को बदल दिया है। क्रिकेट के जरिये कैसे वह अपने अतीत को भुलाकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है। स्कूल जाने से पहले और स्कूल से आने के बाद वह सिर्फ क्रिकेट में अपना समय बिता रहा था, यह जानते हुए भी रवांडा में क्रिकेट में कोई भविष्य नहीं है। 2011 में राष्ट्रीय टीम में बिरिंगिरो को मौका मिला। आज  बिरिंगिरो पढ़ाई के साथ-साथ भी स्कूल में यूनिवर्सिटी में और अनाथ बच्चों को कोचिंग दे रहे हैं।

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