अगर आप क्रिकेट के शौकीन हैं तो मानेंगे कि बल्लेबाज़ अगर क्रीज़ से दो कदम बाहर निकलकर आए और गेंद को बाउंड्री के बाहर मारकर गेंदबाज़ के होश उड़ा दे तो खेल देखने का मज़ा दोगुना हो जाता है। और अगर आप पढ़ने के शौकीन हैं तो ये मानेंगे कि राइटर अगर नामी शख्सियत हो और अपनी आत्मकथा में बड़े खुलासे कर दे तो पढ़ने वाले का मज़ा भी बढ़ता है और किताब की बिक्री भी। मज़े की बात ये है कि सचिन पर अब ये दोनों हीं बातें लागू होती हैं।
क्रिकेटिंग करियर में उन्होंने कितने गेदबाज़ों को निशाने पर लिया, ये जगज़ाहिर रहा लेकिन अपनी आत्मकथा में उन्होंने किस किस को निशाने पर लिया है ये अब जगज़ाहिर होने जा रहा है। हो सकता है फ़ेहरिस्त लंबी हो लेकिन पहला नाम जो बाहर आया है वो पूर्व भारतीय कोच ग्रेग चैपल का रहा है।
किताब के अंश ग्रेग चैपल के काम करने के तरीके और कुछ खिलाड़ियों को टारगेट करने का सवाल खड़ा कर चुके हैं। हो हल्ला भी मचा है। लेकिन अमूमन ख़ामोश रहने वाले सचिन के खुलासे और उसपर लक्ष्मण-हरभजन जैसे खिलाड़ियों की प्रतिक्रिया से ज़्यादा गंभीर सवाल चैपल पर नहीं बल्कि बीसीसीआई और खिलाड़ियों पर उठते हैं।
पहला सवाल ये कि चैपल सचिन को, जिन्हें क्रिकेट का भगवान कहा जाता है, इस हद तक धमका रहे थे कि वो टेस्ट में ओपन नहीं करेंगे तो उन्हें टीम से बाहर तक बैठना पड़ सकता है और बोर्ड खिलाड़ी के साथ नहीं बल्कि कोच के साथ खड़ा था?
दूसरा सवाल ये कि चैपल टीम में खिलाड़ियों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे थे और फिर भी कोई खिलाड़ी बोर्ड के पास जाने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहा था? क्या खिलाड़ियों को पता था कि बोर्ड का साथ खिलाड़ियों को नहीं मिलने वाला?
तीसरा सवाल इस बात पर खड़ा होता है कि क्या ड्रेसिंगरूम में गुटबाज़ी थी जिसका फायदा चैपल उठा रहे थे?
क्योंकि गुटबाज़ी भारतीय क्रिकेट की ही नहीं, शायद भारत के सार्वजनिक जीवन की ऐसी दुखती रग रही है जो हर जगह दिखती रही है। लाला अमरनाथ और विजी के बीच का टकराव, गावसकर और कपिलदेव के बीच का टकराव और ऐसे ढेर सारे झगड़े फौरन याद आ जाते हैं जब भारतीय क्रिकेट के सितारे अक्सर आपस में उलझते रहे हैं।
बहरहाल, अगला सवाल, क्या मैदान पर एक दिखने वाली टीम अंदर से इतनी बंटी हुई थी कि खिलाड़ी दूसरे साथी खिलाड़ियों की खबरें कोच तक पहुंचा रहे थे और योजनाएं बन रहीं थीं?
और सबसे अहम सवाल ये कि क्या ये हालात आज भी टीम में हैं? क्या बोर्ड आज भी खिलाड़ियों से ज़्यादा तवज्जो विदेशी कोच को देता है, क्या ड्रेसिंग रूम आज भी बंटा है और क्या मैदान पर एक दिखने वाली टीम क्या वाकई एक है?
चैपल भारत के साथ अब भले न हों लेकिन अगर ये माहौल टीम के साथ है तो आत्मकथा से ज़्यादा अहमियत आत्ममंथन को देने की ज़रूरत है।
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