लगभग 130 सालों से मुंबई की पहचान रहे डब्बेवाले फिलहाल परेशान हैं. पहले की तुलना में पैसे कम मिल रहे हैं, साथ ही मांग में भी कमी आई है. कई कारण हैं जिनेके चलते लोगों के डिब्बे पहुंचाने के साथ ही इन डब्बा वालों को पार्ट टाइम जॉब भी करना पड़ रहा है.
नीलेश बच्चे पिछले 17 सालों से बोरीवली से चर्चगेट का सफर कर लोगों के खाने का डिब्बा पहुंचाने का काम कर रहे हैं. जब इन्होंने काम की शुरुआत की, इनका 50 लोगों का ग्रुप था, अब केवल 30 लोग हैं. पहले इनका ग्रुप करीब 1500 टिफिन पहुंचाता था, लेकिन अब इनके पास केवल 700 ग्राहक बचे हैं. इसका असर इनकी आमदनी पर पड़ा है. अब नीलेश बच्चे डिब्बे पहुंचाने के साथ ही रात में पार्ट टाइम नौकरी भी करते हैं.
नीलेश बच्चे ने कहा कि, ''मैं सुबह ठाणे से बोरीवली जाता हूं. वहां मेरा टिफिन का पिकअप एरिया है. बोरीवली से चर्चगेट तक मेरा टिफिन डिलीवरी का एरिया है. उसके बाद शाम को मैं घर जाकर ऑनलाइन एग्रीमेंट करने का काम करता हूं. जो 10 हजार कमाता था, उसे अब पांच हजार नहीं मिल रहा है. जिसे 20 हजार मिलता था, उसे 10 हजार भी नहीं मिल रहा है.''
नीलेश की ही तरह ऐसे कई डब्बेवाले हैं जिन पर कोरोना के दौरान पड़ा असर अब तक कायम है. वर्क फ्रॉम होम और कई स्कूलों में खुली कैंटीनों ने भी इनकी जेब पर असर डाला है. दिन भर लोगों के टिफिन पहुंचाने का काम करने के बाद विष्णु कालडोके शाम के समय अपने घर के पास में एक किराने की दुकान में बतौर डिलीवरी बॉय काम करते हैं. उनका कहना है कि मेहनत पहले से ज्यादा कर रहे हैं, लेकिन पैसे कम मिल रहे हैं.
विष्णु कालडोके ने कहा, ''मेरा शाम 5 बजे काम खत्म होने के बाद दादर की एक किराना दुकान में जाकर 5-6 किलोमीटर के बीच में सामान डिलीवर करने का काम करता हूं. वर्किंग हवर्स और मेहनत दोनों बढ़ गए हैं. लेकिन परिवार की परवरिश करने के लिए यह सब करना पड़ेगा.''
करीब 130 बरसों से मुंबई के डब्बेवालों की सर्विस शहर में अलग-अलग जगहों पर चल रही है, लेकिन पिछले तीन सालों में इनकी परेशानी सबसे ज्यादा बढ़ी है. बुज़ुर्गों पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है, जो पार्ट टाइम जॉब नहीं कर सकते हैं. पीढ़ियों से इसी पेशे से जुड़े रहने के बाद भी कई ऐसे लोग हैं जो यह सब छोड़ गांव में खेती करने लगे थे, लेकिन अब काम मिलने पर लौट आए हैं.
डब्बावाला लक्ष्मण टाकले ने कहा कि, ''दो साल मैं गांव में था, वहां सड़क किनारे सब्जी बेचने का काम कर रहा था. मुंबई में घर होने के कारण दो साल बाद वापस आया हूं. लॉकडाउन के बाद इनकम में फर्क पड़ा है.''
डब्बावाला सबाजी मेदगे ने कहा कि, ''मेरी खेती थी गांव में. खेती करने हम गांव चले गए और किसी तरह दिन गुजारे. अभी टिफिन का काम दोबारा शुरू होने के बाद हम आए हैं. पहले 28 लोग हमारे साथ काम करते थे, अब हम केवल सात लोग हैं.''
ऑनलाइन डिलीवरी 130 साल पुराने इस पेशे के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. दूसरी तरफ अब इनकी संस्था सेंट्रल किचन और ऐप के ज़रिए अपने लोगों और अपनी परम्परा को दोबारा से मजबूत करने की कोशिश कर रही है. पहले करीब 5000 डब्बेवाले थे, लेकिन फिलहाल केवल 1500 डब्बेवालों के पास ही काम है.
मुंबई टिफिन बॉक्स सप्लाई ट्रस्ट के अध्यक्ष उल्हास मुके ने कहा कि, ''हम लोगों ने एक सेंट्रल किचन शुरू करने की योजना बनाई है. जो घरेलू महिलाएं घर से खाना बना रही हैं, उनके खाने की डब्बेवालों के जरिए डिलीवरी करने की कोशिश की जा रही है. इससे उन्हें भी रोजगार मिलेगा और डब्बेवालों को भी.''
मुंबई टिफिन बॉक्स सप्लाई ट्रस्ट के जनरल सेक्रेटरी किरण गवांदे ने कहा कि, ''हम एक ऐसा ऐप लाने वाले हैं जिसे हर मुम्बईकर इस्तेमाल कर सके. विरार से चर्चगटे तक हम केवल 1500 रुपये महीना में डब्बा पहुंचाते हैं, जो 50 पैसे प्रति किलोमीटर पड़ता है. आज भी हम ऐसा ही कुछ ऐप लाने वाले हैं जो हर किसी के लिए किफायती हो और वॉचमन से लेकर सीईओ तक इसका इस्तेमाल कर सकें.''
मुंबई की 130 सालों से पहचान रहे मुंबई के डब्बावाले अब एक ऐसे मोड़ पर हैं जहां अपने भविष्य को लेकर वे दुविधा में हैं. डिजिटल होती दुनिया का असर इनकी जेब पर पड़ा है और अब वे इस समस्या का समाधान निकालने की कोशिश में लगे हुए हैं.
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