बिहार विधानसभा चुनावों की अधिसूचना अब किसी भी दिन चुनाव आयोग की घोषणा के साथ जारी हो सकती है। इस देश में हर राजनीतिक दल, हर राजनेता, हर राजनीतिक कार्यकर्ता को बस बिहार के चुनाव के परिणाम का इंतजार है।
लेकिन इस चुनाव में मुद्दा क्या होगा? क्या ये चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अब तक के दावों के अनुसार विकास के मुद्दे पर लड़ा जाएगा या लालू यादव के गांधी मैदान में स्वाभिमान रैली में भाषण के अनुसार मंडल 2 की वापसी के सवाल पर? या मुद्दा कुछ और है, जिससे इस खेल में शामिल हर प्रमुख खिलाड़ी के मन में हिचक हो रही है।
बात कुछ ऐसी ही है। ये पहला चुनाव है जहां विकास मुद्दा नहीं, क्योंकि विकास के पैमाने पर नीतीश और नरेंद्र मोदी दोनों खरे उतरते हैं। दोनों के राजनीतिक करियर में यही एक समानता है कि जब भी इन्हें मौका मिला, इन्होंने अपने नेतृत्व से विकास की एक ऐसी लकीर खींची, जिसके इनके विरोधी भी कायल रहे।
तब सवाल है कि आखिर वह कौन सा मुद्दा है जिसने बिहार के चुनावी इतिहास में ऐसा व्यक्तिगत और हाई प्रोफाइल, हाई टेक प्रचार अभियान नहीं देखा। आखिर ये कौन सा मुद्दा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनावों के पूर्व बिहार में पांच चुनावी सभा कर डालते हैं, उनकी पूरी कैबिनेट बिहार के हर सुदूर कोने की परिक्रमा कर चुकी है। चुनाव की घोषणा से पूर्व 150 से ज्यादा प्रचार रथ बिहार के हर गांव का दौरा कर चुके हैं। ये आखिर कौन सा मुद्दा है कि नीतीश कुमार सोशल मीडिया में फेसबुक से ट्विटर तक प्रचार और अपने विरोधियों खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमले करने का मौका नहीं छोड़ते। आखिर ये कौन सा ऐसा मुद्दा है कि नीतीश कुमार, लालू यादव और कांग्रेस नेताओं के घर जाते हैं और अपने समर्थकों के तमाम विरोध के बावजूद उन्हें मनमानी सीट भी देते हैं।
दरअसल इस बिहार विधानसभा चुनाव का एक ही मुद्दा है बदला, बदला और हिसाब-किताब चुकाने वाला बदला, जिससे अपने राजनीतिक विरोधी को राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी हार का मजा चखाया जाए और ये विरोधी हैं नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार। लेकिन आप सवाल करेंगे कि नरेंद्र मोदी पिछले ही साल नीतीश कुमार को लोकसभा चुनाव में धूल चटाकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पा चुके हैं तब ये तर्क क्यों।
सवाल लाजमी है, लेकिन शायद अपनी जीत और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद भी नरेंद्र मोदी इस बात को नहीं भूले हैं कि उन्हें बिहार में तीन चुनावों - 2005 के नवंबर के विधानसभा चुनाव, 2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के विधानसभा चुनाव - के प्रचार अभियान से दूर रखा गया। और इन तीनों चुनवों में नीतीश के नेतृत्व में सीटों की संख्या बढ़ी। ये बात अलग है कि जब पिछले साल के लोकसभा चुनावों में मोदी के नाम पर वोट मांगे गए, तब भी बिहार में उनके गठबंधन को सर्वाधिक सीटें मिलीं।
लेकिन मोदी मात्र इससे संतुष्ट होने वाले नेताओं में से नहीं और विधानसभा चुनावों में वो एक बार फिर साबित करना चाहते हैं कि अगर बिहार की जनता बहुमत का आंकड़ा राष्ट्रीय लोकत्रांतिक गठबंधन (एनडीए) की झोली में दे रही थी तब उसमें नीतीश एक मुखौटा मात्र थे। और अगर किसी स्थानीय नेता को प्रोजेक्ट नहीं भी किया जाए, जैसा इस बार के चुनाव में अब तक हो रहा है, तब भी बिहार में नरेंद्र मोदी बहुमत का आंकड़ा दिला सकते हैं। और शायद मोदी उससे भी ज्यादा एक विज्ञापन के कारण उनके बिना भोज में आमंत्रण की शर्त को भी भूल नहीं पा रहे हैं या नीतीश कुमार ने गुजरात सरकार के 5 करोड़ की कोसी सहायता की राशि लौटाई। ये तीन ऐसे कारण हैं, जिसके चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीतीश कुमार से एक बार फिर बदला लेने का मौका नहीं चूकना चाहते।
प्रधानमंत्री मोदी बदला लेने के लिए कितना गंभीर हैं, इसके लिए आप देख सकते हैं कि पिछले एक महीने में उन्होंने हर वो कदम उठाए हैं जिन्हें करने के लिए उनके ऊपर महीनों से या मांग की जा रही थी या दबाब डाला जा रहा था। वो चाहे भूमि अधिग्रहण बिल को वापस लेने का निर्णय हो, या पूर्व सैनिकों के लिए लंबित वन रैंक वन पेंशन का मामला, या अरब देशो की यात्रा में मस्जिद जाने का मौका, या फिर बिहार के लिए 1 लाख करोड़ से अधिक के पैकेज की घोषणा हो। सबके पीछे एक ही तर्क दिया गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बिहार के चुनावों में प्रतिष्ठा दांव पर लगी है इसलिए वह नहीं चाहते कि नीतीश की अगुवाई वाले गठबंधन को कोई लाभ मिले। दरअसल वो अपने बदले की स्क्रिप्ट में जीत के लिए किसी भी मसाले से परहेज नहीं करना चाहते और अगर प्रधानमंत्री मोदी ने मुजफ्फरपुर में नीतीश के डीएनए में खोट बताया, या बिहार में बिजली की सुधरी हालत के बावजूद लोगों से बिजली है, बिजली आई का संवाद ये सब कहीं न कहीं उनकी बदला लेने की बेताबी को दर्शाता है।
अब बात नीतीश कुमार की। वह ना केवल पिछले साल लोकसभा चुनावों में मात्र 2 सीटें मिलने से खार खाए बैठे हैं, और उन्हें लग रहा है कि अगर विधानसभा चुनावों में जीत मिल जाए तो नरेंद्र मोदी से हिसाब बराबर किया जा सकता है। शुद्ध शब्दों में कहें तो बदला लिया जा सकता है। नीतीश 2004 में लोकसभा चुनवों के परिणाम आने के बाद से ये मान बैठे थे कि इस देश में मोदी के साथ रहना या दिखना खासकर बिहार के राजनतिक परिदृश्य पर प्रतिकूल परिणाम ही दे सकता है। उनकी इस धारणा को 2005 नवंबर, 2009 लोकसभा परिणाम और 2010 के विधानसभा के नतीजों से और बल मिला।
और इसी आधार पर और बीजेपी के कुछ शीर्ष नेताओं की सलाह पर उन्होंने नरेंद्र मोदी के मुद्दे पर बीजेपी को बाय-बाय तो कर ही डाला, लेकिन उन्होंने एक चूक की, मोदी के खिलाफ अपने अभियान के बारे में अपने समर्थक वोटरों को विश्वास में नहीं ले पाए। खासकर जिस मुस्लिम और अति पिछड़ा समुदाय के समर्थन की उम्मीद पर उन्होंने बीजेपी से नाता तोड़ा, उसने उन्हें विधानसभा चुनावों तक इंतजार का वादा कर लोकसभा चुनाव में आरजेडी और बीजेपी का समर्थन किया।
लेकिन बदला नीतीश को भी लेना है, इसलिए नीतीश दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है वाली नीति अपना रहे हैं। पहले लालू यादव से अपने संबंधों में संवादहीनता खत्म की और समर्थन लेकर राज्यसभा चुनावों में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत तय कर इज़्ज़त बचायी, फिर विधानसभा उप चुनावों में सीटों का तालमेल किया और बाद में वही फार्मूला अपना कर विधानसभा के होनेवाले चुनावों के लिए सीटों का तालमेल भी कर डाला। ये बात अलग है कि बदले की इस राजनीति में नीतीश के कांग्रेस पार्टी और खासकर सोनिया गांधी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से नजदीकी से समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव अब नाराज हैं। मुलायम की नाराजगी कितनी महंगी पड़ेगी, लेकिन हा चुनवों के पूर्व उन्होंने रंग में भांग डालने का काम जरूर करने का काम किया है।
नीतीश ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बदला लेने के लिए एक से एक कई ऐसे फैसले लिए हैं, जो शायद आम दिनों में वह खुद उसके बड़े आलोचक होते। सबसे पहले उन्होंने अपने पार्टी के बाहुबली विधायक अनंत सिंह को जेल का रास्ता दिखाया। ये तर्क दिया जा रहा है कि अनंत सिंह अपने कारणों से जेल गए लेकिन सब जानते हैं कि अनंत सिंह अगर एक यादव जाति के बच्चे की हत्या में आरोपी न होते और न ही लालू यादव उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया होता तो पटना पुलिस ने अनंत सिंह के खिलाफ ये करवाई नहीं की होती।
इसके अलावा नीतीश कुमार की सरकार ने कई जातियों जैसे तेली को अति पिछड़ी जाति में शामिल किया, वहीं कई जातियों जैसे मल्लाह जैसी प्रभावी अति पिछड़ी जाति के लोगों को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग को माना। इसके अलावा कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले शिक्षकों को वेतनमान देने की घोषणा की। हर वह तबका जिसकी नियुक्ति अनुबंध पर हुई है, उनके वेतन बढ़ाने की मांग को मानना ये दिखाता है कि नीतीश अपने बदले की राजनीति के प्रति कितना गम्भीर हैं। दरअसल नीतीश के महागठबंधन को मालूम है कि इस चुनाव में हर एक वोट महत्वूर्ण है। सबसे ज्यादा महिला मतदाताओं की सालों की मद्य निषेध की नीति को लागू करने की मांग को मानना भी नीतीश की इसी राजनीती का एक हिस्सा माना जा रहा है।
लेकिन जहां नरेंद्र मोदी से बदला लेने की अगुवाई भले नीतीश कर रहे हों, लेकिन नीतीश से बदला लेने के लिए वो चाहे पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी हों या रामविलास पासवान या उपेन्द्र कुशवाहा, सभी अगर आज नरेंद्र मोदी और बीजेपी के इशारे पर चल रहे हैं तो उनका एक ही लक्ष्य है कि किसी भी तरह नीतीश कुमार से बदला लिया जाये। और इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बढ़िया कप्तान नहीं हो सकता और न ही बीजेपी से अच्छी कोई हर मामले में सुविधा संपन्न पार्टी। लेकिन नीतीश के पीछे खड़े लालू यादव और कांग्रेस सब जानते हैं कि आज की राजनीति में और वह भी बिहार के अखाड़े में नीतीश कुमार से बेहतर मोदी से बदला लेने के लिए उनकी टीम का चेहरा नहीं हो सकता।
This Article is From Sep 06, 2015
बदला, बदला और बदला... बस यही होगा बिहार में चुनावी मुद्दा
Reported by Manish Kumar
- चुनावी ब्लॉग,
-
Updated:सितंबर 21, 2015 17:50 pm IST
-
Published On सितंबर 06, 2015 18:17 pm IST
-
Last Updated On सितंबर 21, 2015 17:50 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं
बिहार विधानसभा चुनाव 2015, नीतीश कुमार, पीएम नरेंद्र मोदी, लालू प्रसाद यादव, सोनिया गांधी, रामविलास पासवान, बदले का चुनाव, मनीष कुमार, Bihar Assembly Election 2015, Nitish Kumar, PM Narednra Modi, Lalu Prasad Yadav, Sonia Gandhi, Ramvilas Paswan, Politics Of Revenge, Ma