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This Article is From Oct 12, 2015

बिहार की बेचैनियां ही उसकी खुशियां हैं

Ravish Kumar
  • चुनावी ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 12, 2015 06:53 am IST
    • Published On अक्टूबर 12, 2015 06:24 am IST
    • Last Updated On अक्टूबर 12, 2015 06:53 am IST
बिहार कसमसा रहा है। भीतर से बेचैन है और बाहर से शांत। शोर वह कर रहा है जो संसाधन, सत्ता और राजनीति के नेटवर्क से जुड़ा है। ऐसे लोग ही अपनी सत्ता को लेकर बेचैन हैं। जो संसाधनों और संपर्कों के नेटवर्क से वंचित है, वह चुप है। वह किसी के लिए नहीं बोल रहा है। आप उससे बुलवायेंगे तो आपके हिसाब से बोलने लगता है। चुनावी मैदान के दोनों पक्षों ने बिहार की इस बेचैनी को रौंद दिया है। उनके पास बिहार की इस छटपटाहट को समझने के लिए न तो वक्त है और न शब्द।

गाय, आरक्षण ये सब मुद्दा नहीं हैं। मुद्दा यही है कि हमें जीतना है। राजनीतिक दल कई मुद्दों को ठेल रहे हैं। सबके सब बेतरतीब। मुद्रास्फीति की दर भले कम हो गई हो मगर गरीब महंगाई से परेशान है। दाल काफी महंगी हो चुकी है। ग़रीब आदमी की आमदनी कहीं नहीं बढ़ रही है। अखबारों में महंगाई की जगह नेताओं के बयानों को सजाया गया है। मीडिया को लेकर विश्वास ग़रीब तबके में ज़्यादा कमज़ोर दिखता है। अमीर अपने हिसाब को मीडिया को अच्छा बुरा समझता है।

गरीब इसलिए चुप है कि उसका मोहभंग हो चुका है। इसके बाद भी वह वोट देगा लेकिन बहुत तकलीफ़ से बताता है कि राजनीति ने उसे ठगा है। चुनावों में जिस तरह से पैसे बहाये जा रहे हैं, उसे लेकर उसके मन में सवाल पैदा हो रहे हैं। लोग समझ रहे हैं मगर इस बारे में बात नहीं कर रहे क्योंकि पैसा हर उम्मीदवार बहा रहा है। किसी भी दल के उम्मीदावर का पता कीजिये आपको टिकट मिलने का कारण पता चलेगा। पार्टियां गरीब विरोधी हैं। वे अपने मंच से ऐसे किसी सामान्य को मौक़ा नहीं देती हैं जिसके बाप दादा या उसके पास संसाधनों और संपर्कों का नेटवर्क न हो। इनके आसपास जमा कुछ बुद्धिजीवी अपनी पार्टी के हिसाब से सवाल पैदा कर रहे हैं।

राजनीति फंस गई है। जैसे पैसे वाला महंगी कार ख़रीद कर भी ट्रैफ़िक जाम में फंसा है। वह सिर्फ विरोधी दल के बारे में बोलता है। अपनी पसंद के दल के बारे में नहीं। ये अमीर वर्ग भी उसी संसाधन संपर्क नेटवर्क के आस-पास का होता है। वह शहर की गंदगी से बग़ावत नहीं करता बल्कि मौक़ा मिलने पर वही करता है जो होता आया है। वह रोज़ एक गंदे शहर से होता हुआ अपने मकान के अहाते में पहुंचता जिसके भीतर साफ-सफाई है। कमरे में एयरकंडीशनर है। टीवी है और बढ़िया सोफ़ा है। इसी के दम पर वह शहर का ख़ास बन जाता है। चुपके चुपके इस तबके के कई होटल दुकान खुल जाते हैं। यहां भी कोई नया मुश्किल से जगह बना पाता है।

बिहार के शहर दिल्ली मुंबई की आकांक्षाओं की नक़ल हैं। अपना कुछ भी नहीं है। दस साल में शहरों का कोई विस्तार और सुधार नहीं हुआ है। कोई प्रोफेसर मिलेगा तो कोई डॉक्टर लेकिन सब अपने अपने नेटवर्क से बंधे मिलेंगे। लोगों की आकांक्षाओं के विस्तार की जगह नहीं है। इन्हीं बेतरतीब शहरों में कभी बिजली तो कभी सड़क के नाम से विकास आता है। धूल और कचरे से ये शहर भरे हुए हैं। नए होटल और रेस्त्रां खुल गए हैं जहां लोग धक्का खाते हुए पहुंचते हैं और खुद को दिल्ली मुंबई के रेस्त्रां में पहुंचा हुआ महसूस करने लगते हैं। वह रहता आरा और बक्सर में हैं लेकिन सोचता दिल्ली का है इसलिए उसकी बेचैनी ज्यादा है।

बिहार ने कोचिंग सेंटर को शराब की लाइसेंसी दुकानों की तरह स्वीकार कर लिया है। हर नौजवान कुछ होने की चाहत में फंसा है। स्कूल से निकल कर कोचिंग या स्कूल से पहले कोचिंग जाने के लिए सुबह पांच बजे घर से निकलता है। बिहारी नौजवान बस इसी को अपनी नागरिकता समझता है। उसके पास अपने समय और समाज को लेकर कोई नई सोच नहीं है। बहुत से बहुत इस सोच के नाम पर उसने एक दल का समर्थक होना स्वीकार कर लिया है। राजनीति में युवा कबाड़ की तरह बिखरा हुआ है। उसकी जवानी कचरे को साफ करने के काम नहीं आ रही बल्कि समेट कर रखने के काम आ रही है ।

इसलिए अमीर और गरीब के बीच खाई दिखती है। दोनों की चाहत में कोई फ़र्क नहीं है। सिर्फ दूरी का फ़र्क है। बदलाव के नाम पर समाज में यथास्थिति की निरंतरता बनी हुई है। इसलिए इस चुनाव को लेकर सोचना छोड़ दीजिये। विकास एक सिक्का है जिसे चलाने के लिए बहुत सारा पैसा खर्च किया जा रहा है। अख़बार और टीवी के बिकाऊ होने की बात सब महसूस कर रहे हैं। मगर, कोई बोल नहीं रहा। ये हमारे पाठक और दर्शक की हालत है। वह जानता है कि अख़बार या चैनल क्या हो चुके हैं मगर फिर भी रोज़ अख़बार ख़रीदता है और चैनल देखता है।

समाज फंसा हुआ है। वह अपने दलदल से ख़ुश है। कुछ लोग हैं जो बदलना चाहते हैं मगर बाद में उन्हें भी इस अदृश्य नेटवर्क का हिस्सा होना है। बिहारी मतदाता कोई तीसमारखां नहीं है। वह अपने अपने नटवर्क से फंसा हुआ है। जिसके लाभ के लिए वह चुप है। सबको एक पार्टी चाहिए। पार्टी पहले से फिक्स है। पार्टी के भीतर फिक्स करने का एक नेटवर्क क़ायम है। जिस तरह से राज्य की सत्ता पर कब्जा होता है उसी तरह पार्टियों के भीतर भी कुछ लोगों का कब्जा हो चुका है। इसलिए तथाकथित जनता हर चुनाव के बाद ठगा सा महसूस करती है मगर एक सच्चाई और है। वह ठगी ही नहीं जाती बल्कि ठगती भी है!

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