इस बार का बजट कैसा होना चाहिए, इसके अनुमान के लिए हमारे पास फिलहाल दो सबसे प्रमुख तत्व हैं. इनमें से एक आर्थिक है, तो दूसरा विशुद्ध राजनीतिक. आर्थिक के केंद्र में है - विमुद्रीकरण के बाद बनी देश की आर्थिक तस्वीर. इसे सरकार ने भी मान लिया है कि इसके कारण आर्थिक विकास की दर में कम से कम एक प्रतिशत की गिरावट तो आएगी ही. पिछले दो महीनों में ही ऑटोमोबाइल बिक्री में अब तक की सबसे बड़ी गिरावट, यानी लगभग 19 फीसदी कम हुई है. घरों की बिक्री 44 फीसदी घटी है. मध्यम एवं छोटे उद्योगों के बंद होने से लोग बेरोज़गार हुए हैं. इसका सबसे अच्छा प्रमाण इस आंकड़े से मिलता है कि जुलाई से नवंबर तक जहां राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत रोजाना काम मांगने वालों की संख्या 30 लाख थी, वहीं दिसंबर में यह संख्या लगभग 87 लाख हो गई.
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राजनीतिक फ्रंट पर तात्कालिक रूप में पांच राज्यों के चुनाव हैं और महत्वपूर्ण संयोग यह है कि इन पांच में एक उत्तर प्रदेश है. सन 2019 में भी यदि अप्रैल-मई में ही चुनाव हुए तो, इस सरकार का अगला बजट लोकसभा चुनाव से पहले इनका आखिरी बजट होगा.
तीसरे कारक के रूप में हम अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आरोहण को ले सकते हैं, जिनके आने से पहले फेडरल बैंक ने अपने ब्याज की दर बढ़ा दी है और जिन्होंने 'अमेरिका अमरिकियों के लिए' का नारा देकर भारत जैसे देशों के माथे पर चिंता की लकीरें उकेर दी हैं. बजट में इसकी काट का भी प्रावधान करना होगा, क्योंकि इसका सीधा और तात्कालिक प्रभाव विदेशी निवेश तथा आईटी सेक्टर पर पड़ेगा.
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए आगामी बजट में कुछ इस तरह की व्यवस्थाओं की उम्मीद की जा सकती है.
- सरकार की यह घोषित नीति है कि आयकर के दायरे को बढ़ाकर राजस्व संग्रह को बढ़ाया जाए. इससे काले धन के उत्पादन की गति भी धीमी पड़ेगी, इसलिए न केवल आयकर की न्यूनतम सीमा को लगभग दोगुना होना चाहिए, बल्कि उसके स्लैबों में भी कमी आनी चाहिए. अंतिम 30 प्रतिशत के स्लैब के भी 25 प्रतिशत तक होने की उम्मीद है.
- डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका निश्चित रूप से अपने यहां के कॉरपोरेट टैक्स की दरों में भारी कटौती करेगा. ऐसी स्थिति में यदि 'मेक इन इंडिया' जैसी योजनाओं को सफल बनाना है, तो इसके लिए सबसे बड़ी शर्त होगी कि वह भी इसे घटाए, जो फिलहाल कुल मिलाकर 35-36 फीसदी के आसपास हो जाता है. कटौती की शुरुआत 25 फीसदी से तो होनी ही चाहिए.
- लोग काले धन को सफेद धन में आसानी से तब्दील न कर सकें, इसके लिए कैपिटल गेन की अवधि एक साल से बढ़ाकर तीन साल की जा सकती है.
- फिलहाल 'गरीबों के लिए - गरीबों के लिए' का लगातार राग अलाप रही सरकार के लिए बड़ी चुनौती यह होगी कि वह बजट में ऐसा क्या-क्या करे कि लोगों को रोज़गार मिल सके. ज़ाहिर है, इसे लघु एवं मध्यम उद्योगों के लिए प्रेरणात्मक कदम उठाने ही होंगे, जिसमें टैक्स दरों को कम करने से लेकर सस्ते ऋण की सुविधा तथा अन्य अनुदान एवं सहायता शामिल होंगे. इस क्रम में शायद सरकार सेवा क्षेत्र का भी कुछ ध्यान रखे, विशेषकर पर्यटन सेक्टर का, क्योंकि इसे सरकार रोज़गार देने वाला एक बड़ा क्षेत्र मानकर चल रही है, और यह प्रधानमंत्री की पसंद भी है.
- जैसा कि अभी के आंकड़े बोल रहे हैं, ग्रामीण रोज़गार योजना का बजट काफी बढ़ाना होगा, कम से कम इस साल के लिए तो, ताकि ग्रामीण बेरोज़गारी की कुछ भरपाई हो सके.
- जहां तक सामाजिक क्षेत्रों को धन देने की बात है, पांच राज्यों के चुनाव सरकार को इनमें बढ़ोतरी करने को उकसाएंगे, और सरकार ऐसा अधिक राजस्व संग्रह की आशा में कर भी सकती है. वैसे भी 17 जनवरी को एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी सरकार को आश्वस्त भी कर चुकी है कि वह अपने राजस्व घाटे को 3.5 फीसदी तक सीमित रखने में सफल हो जाएगी.
- फ्लिपकार्ट और स्नैपडील जैसी भारतीय कंपनियों ने सरकार से मदद की, जो गुहार कुछ ही दिन पहले लगाई थी, उसे देखते हुए लगता है कि शायद वित्तमंत्री 'स्टार्टअप' के लिए भी कुछ करें.
वैसे भी, चूंकि हम इस 1 जुलाई से जीएसटी के दौर में प्रवेश करने जा रहे हैं, इसलिए बजट की बारीकियों के प्रति लोगों की उत्सुकता भी थोड़ी कम ही रहेगी.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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