1989 में इसी दिन अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते को संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने पारित किया था, दुनिया के अधिकतर देशों ने इस पर हामी भरते हुए अपने देश में बच्चों की स्थिति सुधारने को कोरा वायदा नहीं बल्कि हस्ताक्षर करके प्रतिबद्धता जताई थी. भारत भी उनमें से एक देश था. तब से देश में कई सरकारें बनीं, कई प्रधानमंत्री बने, लेकिन बच्चों की स्थिति ठीक करने के लिए न तो कोई नोटबंदी हुई न कोई सर्जिकल स्ट्राइक. यह आंकड़े देश में एक अलग तरह के कालेधन का प्रतीक हैं जो मासूम बच्चों के मेहनत की बूंद-बूंद से सने हैं. यह धन बचपन की हत्या कर दिए जाने का प्रतीक है. यह बाजार, यह समाज, यह व्यवस्था ऐसे परिश्रम को कैसे स्वीकार कर सकती है जो केवल इसलिए चलने दिया जाता है क्योंकि वह सस्ता है, आसान है, मजबूर है, गुलाम है.
गौर कीजिएगा इन आंकड़ों पर -
- भारत में 5 से 14 साल के बच्चों की कुल संख्या 25.96 करोड़ है. इनमें से 1.01 करोड़ बच्चे श्रम करते हैं, यानी बाल मजदूर हैं.
- 5 से 9 साल की उम्र के 25.33 लाख बच्चे काम करते हैं, जबकि 10 से 14 वर्ष की उम्र के 75.95 लाख बच्चे काम करते हैं.
- 43.53 लाख बच्चे मुख्य कामगार के रूप में, 19 लाख बच्चे तीन माह के कामगार के रूप में और 38.75 लाख बच्चे 3 से 6 माह औसतन काम करते हैं.
- उत्तरप्रदेश (21.76 लाख), बिहार (10.88 लाख ), राजस्थान (8.48 लाख), महाराष्ट्र (7.28 लाख) और मध्यप्रदेश (7 लाख) समेत पांच प्रमुख राज्यों में 55.41 लाख बच्चे श्रम में लगे हुए हैं. यह भारत में श्रम करने वाले बच्चों का 55 प्रतिशत है.
- उत्तरप्रदेश (434539), महाराष्ट्र (238828), आन्ध्र प्रदेश (200640), पश्चिम बंगाल (157642) और गुजरात (137020) मिल कर शहरी क्षेत्र में बाल श्रम में सबसे ज्यादा योगदान देते हैं.
- भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 81.02 लाख बच्चे मुख्य या सीमान्त कामगार के रूप में काम करते हैं. उत्तरप्रदेश (1742167), बिहार (1001351), राजस्थान (778409), मध्यप्रदेश (608123) और महाराष्ट्र (489104) मिल कर 46.19 लाख (57 प्रतिशत) का योगदान देते हैं.
यूं तो ऐसे दिन सामान्यत: आते हैं और चले जाते हैं, इन पर कोई ऐसा काम हो नहीं पाता जिससे ऐसा कहा जा सके कि कुछ बदला है, पर यह जरूर है कि यह उस विषय को याद जरूर दिला देते हैं. बच्चों के संदर्भ में ऐसे दिन और भी महत्वपूर्ण इसलिए हो जाते हैं क्योंकि उन पर कभी ऐसा हल्ला मचता ही नहीं है. हम पिछले 10-20 सालों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक किसी भी तरह की घटनाओं को ले लें, जो अखबार के प्रथम पृष्ठ पर आने से लेकर सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर ट्रेंड करती हैं, उनमें कभी कोई मुद्दा बच्चों के बारे में उठाया गया हो, बनाया गया हो. बताईये. आपको कुछ याद आए तो बताईये, मुझे तो ऐसा कोई बवाल याद नहीं आता. असल में तो हम ऐसे मामलों पर सचेत ही नहीं है, सचेत हों भी तो वह हमारी प्राथमिकता में नहीं हैं.
वह समाज सभ्य कैसे हो सकता है जो अपने बच्चों का बचपन छीनकर उन्हें बाल मजदूरी के जाल में झोंक देता हो. इसलिए जब मौजूदा वक्त में कालाधन को बाहर निकालने के लिए नोटबंदी जैसे कदम उठाए जाते हों तब इस बात पर भी आखिर क्यों विचार नहीं किया जाता कि देश में जो करोड़ों की संख्या में बाल मजदूर हैं, उनको बाल मजदूरी से निकालने की कोई ठोस योजना है भी या नहीं. केवल कुछ कानून और नियम बना दिए जाने से क्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपने जिस चार्टर पर हस्ताक्षर किए, वह पूरा हो पाएगा.
केवल बालमजदूरी को ही न भी लें तो बाल विवाह जैसी समस्याएं कितनी भयावह स्तर पर हैं, आपको बता दें इसी जनगणना में यह निकल कर आया था कि 1 करोड़ 22 लाख बच्चे ऐसे हैं जिनकी शादी के लिए मान्य उम्र से पहले ही शादी हो गई. देश में जिसका पूरा असर देश की सेहत पर भी पड़ता है, वह इसलिए क्योंकि जल्दी शादी का मतलब, बचपन को छीन लिया जाना तो होता ही है, समय से पहले गर्भावस्था, मां-बाप बन जाने की जिम्मेदारी और इसके आगे एक ऐसे बचपन को फिर जन्म दे देना जोकि स्वास्थ्य दृष्टि से ठीक नहीं होता. इसलिए हमारे देश के शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर, बच्चों में कुपोषण और स्वास्थ्य संबंधी मानक शर्मनाक स्तर तक खराब हैं. यहां तक कि हिंदुस्तान से कई मामलों में बदहाल माने जाने वाले देशों में भी यह आंकड़े इतने शर्मनाक नहीं हैं.
नोटबंदी के बाद यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि यह सरकार बाल मजदूरी की बंदी कब करने जा रही है, बाल विवाह की बंदी कब होगी, बच्चों के कुपोषण को कब खत्म कर दिया जाएगा, वह दिन कब आएगा जबकि कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे, इस देश में क्या कोई ऐसा क्रांतिकारी कदम बच्चों के लिए उठाया जाएगा.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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