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This Article is From Jun 27, 2021

क्या जीत का इरादा होने भर से रन निकलने लगेंगे...?

Manish Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 11, 2021 18:31 pm IST
    • Published On जून 27, 2021 18:35 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 11, 2021 18:31 pm IST

#WTCFinal में टीम इंडिया की हार के बाद बहुत ज्यादा शोर है. सोशल मीडिया पर फैंस त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहे हैं. मीडिया और पूर्व क्रिकेटरों में रोष है, तो वहीं कप्तान विराट कोहली ने हार के बाद टेस्ट टीम में बदलाव की बात कह दी है. कुछ महीने पहले ऑस्ट्रेलिया पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी, फिर इंग्लैंड को अपनी धरती पर हराया, लेकिन एक ही हार ने सब बदल दिया. आखिर कितनी जल्द भूल जाते हैं हम? क्या करें, बदले दौर का बदला मिजाज है! वैसे हार और हार का तरीका एक नदी के दो किनारों जैसा है, तो इस पहलू से प्रतिक्रिया बिल्कुल भी चौंकाने वाली बात नहीं है. 

हार के बाद कप्तान विराट ने वर्चुअल प्रेस कॉन्फ्रेंस में बल्लेबाजों की जीत की इंटेशन (इरादे, नीयत) के साथ खेलने पर सवाल खड़ा किया है. वह भविष्य में बेखौफ "अटैकिंग ब्रांड टेस्ट क्रिकेट" (2000 के आस-पास स्टीव वॉ की टीम की तरह) खेलना चाहते हैं, बेहतर स्ट्राइक-रेट से रन निकालने वाले बल्लेबाज चाहते हैं. बात एकदम सौ फीसद सही है, टीम विराट आज जिस मुकाम पर खड़ी है, उसे खेल का अगला स्तर छूने के लिए अटैकिंग क्रिकेट खेलनी ही होगी. अगर स्टीव वॉ की टीम की तरह कुछ मानक बनाने हैं, या पिछले मानकों को गिराना है, तो रन तलाशने वाले बल्लेबाज ही ढूंढने होंगे. विकेट लेने वाले गेंदबाज ढूंढने होंगे. यहां कोई विकल्प नहीं है, लेकिन सवाल कई हैं?

क्या रन निकालने का इरादा/जीत का इरादा भर होने से ही सब हो जाएगा? क्या सिर्फ इरादा भर होने से बल्लेबाज रन निकालने लग जाएंगे या ऐसे बल्लेबाज मिल जाएंगे? इतिहास के महानतम बल्लेबाजों में से एक शुमार विराट तो फाइनल में इरादे के साथ उतरे थे, क्या वह WTC Final सफल हुए? क्या इरादा भर होने से डिफेंसिव शैली/सीमित स्ट्रोक वाले पुजारा या रहाणे के स्ट्राइक-रेट में रातों-रात सुधार हो जाएगा? क्या सिर्फ इरादा भर होने से कोई फुटबॉलर 25-30 मीटर की किक से गोल दाग देगा? सच यह है कि खेल की दुनिया इरादों से नहीं चलती क्योंकि इरादे और क्रियान्वयन के बीच कौशल (स्किल्स) अंगद की टांग की तरह जमाए हुए खड़ा है. खेल/कला या किसी भी व्यवसाय में इस 'टांग' को अथक प्रयासों/जरूरी तरीकों हटाया जाता है.

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यह सही है WTC Final से पहले भारत स्तरीय मैच प्रैक्टिस के अभाव में  उतरा था. अगर स्तरीय मैच प्रैक्टिस होती भी, तो क्या होता? अगर मान लीजिए कि कप्तान विराट की इच्छानुसार तीन फाइनल भी होते, तो क्या परिणाम होता? विश्वास कीजिए करीब 60-70 प्रतिशत परिणाम लगभग वैसा ही होता जो न्यूजीलैंड के खिलाफ फाइनल में हुआ. कारण यह है कि कौशल (स्किल्स) का जन्म रातों-रात नहीं होता. यह पखवाड़े भर के नेट अभ्यास से भी नहीं होता और दो या तीन स्तरीय प्रैक्टिस मैचों से भी इसका जन्म नहीं होता? या क्या होता है? और दोनों टीमों के बीच कौशल रूपी अंतर बहुत ज्यादा था. खासकर गेंदबाजी के पहलू से! निश्चित ही करीब 51 लाख आबादी के देश वाले कीवी खिलाड़ियों का कौशल सवा अरब वाले देश के खिलाड़ियों से कहीं ऊपर था.

और जब तक 'बीमारी' का सही 'नीयत/दृष्टि' से इलाज नहीं होगा, विश्वास कीजिए बार-बार नियमित अंतराल पर ऐसा ही होता रहेगा. समीक्षक और पूर्व क्रिकेटर निराशा और गुस्से से सिर पटकते रहेंगे. लेकिन ऐसे हालात (हवादार, घटादार, स्विंग, सीमर) और ऐसी पिचों पर खेलने का कौशल (?) वहीं खड़ा रहेगा, जहां है या जहां पर सालों से खड़ा हुआ है. सालों से विराट की कप्तानी में आईसीसी टूर्नामेंटों में भारत के हश्र का करीब 70-80  प्रतिशत रिश्ता कौशल से है. अगर इतनी क्रिकेट खेलने के बाद भी बड़े मैचों के दबाव की बात है, तो बहस की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है! यह तर्क कुछ महीने पहले गाबा में पहला टेस्ट खेल रहे शारदूल ठाकुर और वॉशिंगटन सुंदर पर लागू होता था. जब ये नए खिलाड़ी उच्चतम परीक्षा में सफल हो सकते हैं, तो दिग्गज का टेम्प्रामेंट (मनोदशा, मिजाज) को लेकर सवाल बेमानी है. क्या ऐसा नहीं है? यहां संपूर्ण और शुद्ध रिश्ता कौशल से है. मतलब स्विंग, सीम, बाउंस, फुटवर्क सहित तमाम तत्वों से निपटना. इसमें मौसम भी शामिल है. 

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न्यूजीलैंड टीम न केवल कौशल, बल्कि हर लिहाज से भारत से बीस थी. जैमिसन और साऊदी की गेंदों के कौशल ने "भारतीय बल्लों" को खामोश किया. बाहरी किनारों को चूमते रहने पर मजबूर किया. लंबा पैर न निकालने पर मजूबर किया. अगर इस पर भी कोई कसर बाकी बची थी, हवादार-घटादार मौसम ने पूरी कर दी. टॉस एक दिन विलंबित हो गया, आप दो स्पिनर से जुड़े रहे. समीक्षा इसकी भी होगी. क्या होगी?? साल 2019 विश्व कप में सेमीफाइनल की हार के बाद तो समीक्षा नहीं हुई. वास्तव में ऐसे में "इरादा/जीत का इरादा (इनटेंशन)" कुछ  नहीं कर सकता. क्या कर सकता है? सवाल ऐसे हालात में गेंदों के कौशल पर बल्ले के कौशल को भारी बनाने का है अब सवाल है यह कौशल आएगा कहां से? काश कौशल बाजार में मिलता!

जवाब यह है कि इस कौशल का दो सौ फीसदी रिश्ता घरेलू क्रिकेट (रणजी, दिलीप ट्रॉफी) के "खेल की गुणवत्ता" से जुड़ा है. क्या यह बताने की जरूरत है कि भारत में रणजी/दिलीप ट्रॉफी मैच कैसी पिचों पर होते हैं? करीब 25-30 साल पहले महान गावस्कर ने 'ड्रॉप-इन' (कृत्रिम पिच) बनाने की बात कही थी. सब समय की धारा में गोल-मोल हो गया. अब गावस्कर के बोल भी उतने मारक नहीं रहे! वह बीसीसीआई के कर्मचारी (वेतन पर कमेंट्री) हो चुके हैं. वह 90 के दशक की तरह ज्यादा मुखर नहीं रहे! मन में डर है कि कहीं संजय मांजरेकर जैसा बर्ताव न हो जाए! न ही बीसीसीआई ही पहले जैसा रहा जो कि गावस्कर जैसे विद्वान की बातों को 90 के दशक जैसी वरीयता देता हो या बात सुनता या मानता हो. #WTC Final में जब मौसम के चलते टॉस एक दिन टल गया, तो सनी ने इलेवन में बदलाव का सुझाव दूसरे तरीके से दिया, लेकिन बात नहीं मानी गयी. 

बात कौशल ढूंढने पर चल रही थी, तो दो सौ फीसदी सच यही है कि जब तक घरेलू क्रिकेट में "खेल की गुणवत्ता" को ऊपर नहीं उठाया जाएगा, परिणाम ऐसे ही आते रहेंगे. आगे बढ़ते रहेंगे और अचानक से ही फाइनल/सेमीफाइनल में बत्ती गुल हो जाएगी. चीजें अपनी जगह खड़ी रहेंगी. ढांचागत व्यवस्था बदलने से कुछ नहीं होगा. फॉर्मेंट बदलने से खेल का स्तर ऊंचा नहीं ही होने वाला! जस्टिस लोढ़ा के संविधान के बाद टीमों की संख्या बढ़ जाने का असर खेल की गुणवत्ता पर बहुत ही ज्यादा पड़ा है. पता नहीं बीसीसीआई ने महसूस किया या नहीं??

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क्या कोई बता सकता है कि घरेलू क्रिकेट में पुजारा की जगह लेने  वाला बल्लेबाज कौन है? फिर उनकी जगह लेते ही 'रन बनाने के 'इरादे' से खेलना तो एकदम पूरी तरह अलग और अतार्किक बात है. बात साफ है कि ज्यादा कांट-छांट से भला होने नहीं जा रहा. मयंक अग्रवाल जैसा बल्लेबाज भी अगर पहली गेंद रन बनाने के इरादे से खेलता भी है, तो वह घरेलू क्रिकेट में कई साल रनों का अंबार लगाकर इस लायक बना, लेकिन इतना होने के बाद भी इस स्तर का बल्लेबाज न्यजीलैंड के स्तरीय अटैक के सामने डगमगा जाता है/डगमगा सकता है. वास्तव में टेस्ट क्रिकेट और घरेलू क्रिकेट के बीच के कौशल की खायी बढ़ती ही जा रही है. बहरहाल, बात यहां से संभलने की नहीं है, बल्कि कप्तान विराट कोहली के उस बयान और टीम की जरूरत की है, 'यह जीत के लिए, बेखौफ और अटैकिंग (आक्रामक) क्रिकेट खेलना चाहती है.' बात बार-बार ऐसे हश्र से बचने की है, बात नए मानक स्थापित करने की है. 

समय की मांग यह है कि घरेलू क्रिकेट के लिए अलग से पूर्णकालिक निदेशक (घरेलू क्रिकेट) पद का सृजन किया जाए और इस पर गावस्कर या उनके कद के दिग्गज को बैठाया जाए. इस निदेशक की जिम्मेदारी/जवाबदेही खेल की गुणवत्ता, घरेलू क्रिकेट से प्रतिभाशाली खिलाड़ियों का सामने आना, शेड्यूल, पिच, वगैरह-वगैरह तमाम बातों के लिए हो. यह डॉयरेक्टर भारतीय चयन समिति, कप्तान, कोच (मैनेजमेंट) के साथ "त्रिस्तरीय संयोजन व्यवस्था" के तहत काम करे. बाकी एनसीए तो "टूट-फूट दुरस्त" करने के लिए ही है. 

बात यह भी है कि कोच रवि शास्त्री देश के शीर्ष मोटीवेशनल स्पीकरों में से एक हैं. वह नवजोत सिद्धू, कुमार विश्वास जैसे दिग्गजों की ही श्रेणी में आते हैं. टीम में सपोर्ट स्टॉफ का लंबा-चौड़ा कुनबा है. ऐसे में मोटीवेशनल स्पीकर भी जोड़ा जा सकता है, लेकिन नवजोत सिद्धू के प्रसिद्ध मुहावरों में एक यह भी है, 'बातें बनाने से बच्चे पैदा नहीं होते". सालों से बीसीसीआई "बच्चे पैदा करने की कला" भूल गया है या भूलता जा रहा है! आईपीएल ने पूरा ध्यान पैसा पैदा करने की कला पर लगा दिया है. आप शहरों की अकादमियों के दौरे कीजिए. छोटे-छोटे बच्चे एबीडि विलियर्स, जोस बटलर के स्कूप शॉट खेलते दिख जाएंगे. राहुल द्रवि़ड़ कोई नहीं बनना चाहता. ज्यादा नहीं सालों पहले इंग्लैंड क्रिेकेट आईसीयू में थी. ईसीबी ने एंडी फ्लॉवर को ज्यादा अधिकार/शक्तियां दीं और आज उसकी वनडे खेलने की शैली ने कैसे नए मानक खड़े कर दिए हैं, यह सभी के सामने है. 

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बात यह भी है कि क्या कप्तान विराट बीसीसीआई से बड़े हो चले हैं या बोर्ड उनके आगे नतमस्तक हो गया है, या विराट कोहली या उनकी टीम समीक्षा से ऊपर हैं? लगता तो कुछ ऐसा ही है. क्या ऐसा नहीं है? कप्तान पहले भी थे और इन कप्तानों की भी समीक्षा हुयी. प्रेस कॉन्फ्रेंस और पत्रकारों से मेल-मिलाप और मीडिया को हैंडल करने में सौरव गांगुली का कोई जवाब नहीं था. लेकिन अब नए दौर की ई-मेल संस्कृति है, बीसीसीआई और कप्तान का आलोचना पसंद नहीं आती, सवाल प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहले मांगे जाना हालिया नयी प्रथा है. कप्तान पहले भी थे, लेकिन सवालों से बचना, सवालों से उखड़ना, प्रेस कॉन्फ्रेंस को 15 मिनट की औपचारिकता भर में तब्दील करना, सवाल न लेना अब नयी शैली हो चला है. और आंखों में आंखे डालकर मीडिया को जवाब देना मानो इतिहास हो चला है! माफ कीजिए बीसीसीआई आप गलत ट्रैक पर चलने की शुरुआत कर चुके हैं! और यह रास्ता पतन की ओर जाता है और नुकसान सिर्फ असल क्रिकेट (टेस्ट) को होगा.

कुल मिलाकर जब डॉयरेक्टर ऑफ घरेलू क्रिकेट होगा, तो वह आगामी आईसीसी टूर्नामेंट/प्रतियोगिताओं या जरूरी लक्ष्य के तहत सभी राज्य टीमों को नीतिगत जानकारी दें कि ये राष्ट्रीय टीम के लक्ष्य हैं, हम इस शैली की क्रिकेट इन सालों में खेलना चाहते हैं, इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए टीमें तैयार करें और खिलाड़ी ढूंढें. कौन जानता है कि कोई पेसर/ऑलराउंडर मिल जाए, जो पिछले कई दशकों से नहीं मिल सका है. अरे याद आया सालों पहले वेंगसरकर के नेतृत्व में टैलेंट सर्च कमेटी का गठन हुआ था. धोनी और रैना उसी की देन थे. यह कमेटी भी जमींदोज हो गयी. कुल मिलाकर बात यह है कि जब तक घरेलू क्रिकेट की "खेल की गुणवत्ता" का स्तर बेहतर योजना के साथ नहीं उठाया जाएगा, परिणाम आगे भी ऐसे ही आते रहेंगे, जैसा WTC Final में हुआ. 


मनीष शर्मा ndtv.in में डिप्टी न्यूज़ एडिटर हैं...

(डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.)

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