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This Article is From Dec 27, 2018

सरकारी बैंकों की हालत क्यों ख़राब है?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 27, 2018 00:27 am IST
    • Published On दिसंबर 27, 2018 00:27 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 27, 2018 00:27 am IST

2018 का साल आया नहीं था, कि न्यूज़ चैनलों पर 2019 को लेकर चर्चा शुरू हो गई. सर्वे दिखाए जाने लगे. काश ऐसा कोई डाटा होता कि एक साल में 2019 को लेकर कितने सर्वे आए और चैनलों पर कितने कार्यक्रम चले तो आप न्यूज़ चैनलों के कंटेंट को बहुत कुछ समझ सकते थे. एक दर्शक के रूप में देख सकते थे कि आपने 2018 में 2019 को लेकर अनगिनत कार्यक्रमों से क्या पाया. इसे न मैं बदल सकता हूं और न आप क्योंकि 2019 में आप 2019 को लेकर इतने कार्यक्रम देखने वाले हैं कि लगेगा कि काश 2020 पहले आ जाता. इन सर्वे में होता यह है कि सब कुछ डेटा बन जाता है. यूपी में कितनी सीट, बिहार में कितनी सीट. जनता के अलग-अलग मुद्दे नहीं होते हैं. पिछले एक साल के दौरान हमने पचासों प्रदर्शन कवर किए हैं, तो क्यों न हम देश भर में होने वाले प्रदर्शनों के ज़रिए 2019 के नतीजों को समझा जाए. नतीजे न सही कम से कम यही दिखे कि मौजूदा सरकार अलग-अलग तबकों के बीच किस तरह के सवाल छोड़ कर जा रही है. क्या इन सवालों का चुनाव पर क्या असर पड़ेगा.

जैसे बैंक कर्मचारियों का प्रदर्शन. 26 दिसंबर को देश भर में 21 सरकारी बैंकों के कर्मचारी हड़ताल पर रहे. अलग अलग शहरों में एक लाख शाखाओं पर प्रदर्शन हुआ है. एक साल में बैंक कर्मचारियों के संगठन ने 50 से अधिक छोटे बड़े प्रदर्शन किए हैं. जंतर मंतर पर वी बैंकर्स और युनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्स का प्रदर्शन चल रहा था. इनका कहना है कि दस लाख कर्मचारी इस हड़ताल में शामिल हुए. ये लोग बैंक ऑफ बड़ौदा, देना बैंक और विजया बैंक के विलय का विरोध कर रहे हैं. इन बैंकों में पब्लिक का भी शेयर है, उसकी कोई रज़ामंदी नहीं होती है. 1 नवंबर 2017 से बैंक कर्मचारियों की सैलरी नहीं बढ़ी है. इंडियन बैंक एसोसिएशन के साथ कई दौर की बैठक हो चुकी है मगर अभी तक 8 प्रतिशत वेतन वृद्धि का ही प्रस्ताव मिला है जो यूनियन को मंज़ूर नहीं है. यूनियन का कहना है कि बैंकों ने 31 मार्च 2018 तक 1 लाख 55 हज़ार करोड़ का ऑपरेटिव मुनाफा दिया है तो वेतन वृद्धि उसी हिसाब से होना चाहिए. जो एनपीए हो रहा है वो सरकार की नीतियों के कारण होता है. जिसका असर उनकी सैलरी पर पड़ रहा है. अतिरिक्त मुख्य श्रम आयुक्त ने बैंक संगठनों से बातचीत कर हड़ताल टलवाने का प्रयास किया था मगर बातचीत बेनतीजा रही. वी बैंकर्स की मांग है कि पेंशन की पुरानी व्यवस्था बहाल की जाए.

बैंक कर्मचारी कहते हैं कि बैंकों का विलय और निजीकरण नहीं होना चाहिए. अंग्रेज़ी अखबारों में जब हम विश्लेषण पढ़ते हैं तो यही लिखा होता है कि सरकार को तुरंत ही दोनों काम करने चाहिए. आज ही फाइनेंशियल एक्सप्रेस में संपादकीय छपा है कि एनडीए के सत्ता में आने के बाद सरकारी बैंकों का वैल्यू 3 लाख 30 हज़ार करोड़ कम हो गया है. ऊपर से इन खस्ता हाल बैंकों को ज़िदा रखने के लिए सरकार 1,70,000 करोड़ की पूंजी दे चुकी है, अभी 83,000 करोड़ और देने जा रही है. एक तरह से यह राष्ट्रीय नुकसान है. सरकार या तो इन बैंकों का निजीकरण करे या अपना कुछ हिस्सा बेच कर कई हज़ार करोड़ कमा सकती थी. तो हमारे सहयोगी सुशील महापात्र ने इसी संदर्भ में लोगों से पूछा कि बैंक में काम करते हुए उनके पास क्या जवाब हैं.

'सरकारी बैंकों की हालत अच्छी है. खराब नहीं है. ग्रोथ है. हमारा ऑपरेटिंग प्रॉफिट बढ़ रहा है. हमारा पैसा है जो सरकार की नीतियों के अनुरूप प्रोविजनिंग में चला जाता है. बैड लोन किसके, कारपोरेट सेक्टर के. 74 फीसदी एनपीए बड़े बड़े कॉरपोरेट का है. यह बड़ी राशि नहीं है. आज 14 बड़े कारपोरेट अकाउंट जिनके चार लाख करोड़ का एनपीए दे रहे हैं. हमारे जो खून पसीने की कमाई वहां जा रही है केवल दिखाने के लिए पब्लिक सेक्टर में हानि हो गई वो गलत है. बैंक तो नुकसान में हैं. 3 लाख 30,000 करोड़ का नुकसान है. कैपिटल इंफ्यूजन होता है वो लास कौन लोगों का है, पावर सेक्टर एविएशन सेक्टर लोन बड़े कॉरपोरेटर ने लिए हैं. उसमें छोटे कर्मचारी का क्या कसूर है. हमारा वेतन समझौता है वो तो मिलना है. मर्जर है जितने भी मर्जर हुए हैं वो अच्छा नहीं होता. प्राइवेट बैंक बड़े बड़े शहरों के काम करते हैं. हम सोशल बैंकिंग करते हैं. सरकार की नीतियों को लागू करते हैं. हमारे ऊपर सीवीसी लगता है. जब पीसीए लागू किया था रिज़र्व बैंक के. बैंक का काम ही पैसा लेना और देना है. अगर कर्ज़ नहीं देंगे तो ताला लगा दें. आप एक चीज़ देखिएगा, एक धारणा बन चुकी है, आप बैंकों को पावर दीजिए. जिस प्रकार क्यों नहीं कारपोरेट से लिया जाता है पैसा, हेयर कट किसी को नुकसान है वो बैंक के प्रोफिट से पैसा जा रहा है.'

जब भी बैंक कर्मचारियों की हड़ताल होती है हम वहां आए कैशियरों से एक सवाल ज़रूर करते हैं. नोटबंदी के दौरान जब अचानक करोड़ों रुपये की गिनती थोप दी गई, कई जगहों पर नोट गिनने की मशीन नहीं थी तो उनसे गलती हुई नोट गिनने में. जितना कम नोट गिना गया उतना कैशियर को अपनी जेब से भरना पड़ा. अगर सारे बैंकों के कैशियर अभी तक पूरी सूची बना देते कि किस किस ने कितना जुर्माना भरा है तो नोटबंदी की एक और सच्चाई सामने आती.

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