वैसे तो बहुत दिनों से मैं सोच रहा था कि एक नई केंद्रीय नीति की मांग करते हुए ब्लैक फॉन्ट में व्हाइटपेपर की बात लिखूं लेकिन युद्धोन्माद के माहौल में आपको पता है कि ललित निबंधों की हैसियत कैसी होती है? पैक्ड समोसों के गट्ठर में लाल चटनी के पैकेट की तरह. खुला तो खुला नहीं तो सब वैसे ही समोसा समेट गए.
ख़ैर सुषमा जी के भाषण के बाद और उससे पहले दिन में यूपी में जो हुआ उससे मुझे यक़ीन हुआ कि अब टॉपिक रिवाइव किया जा सकता है. मैं दरअसल ये कहने के लिए व्याकुल हो रहा था कि अब वक़्त आ गया है जब सरकार को एक व्यापक बहस करवानी चाहिए, आईपीसी में संशोधन करके किसी भी अभिभावक द्वारा अपने किसी भी बच्चे की किसी से भी तुलना को एक कॉग्निज़ेबल ऑफ़ेंस की शक्ल देने की दिशा में आमराय बनाने के लिए. कोई भी तुलना, किसी से भी तुलना. भाई से बहन से या कज़िन ब्रदर कज़िन सिस्टर से. शर्मा जी के बेटे से तुलना करने पर तो नॉन बेलेबल होना चाहिए. गधे या उल्लू से तुलना के ऊपर मानवाधिकार और जानवराधिकार के दर्जन मामले बनने चाहिए. ये इसलिए कि इस राष्ट्रीय समस्या को अगर आज अड्रेस नहीं किया जाएगा तो अच्छे दिन वाकई कभी नहीं आएंगे. राष्ट्रीय कुंठा का ये नतीजा ही तो है जो व्हाट्सऐप और फ़ेसबुक वालों को मजबूर कर रहा है पाकिस्तान के साथ अपनी तुलना करने के लिए. अब इस कॉम्पैरिज़न कुंठा का नाश होना चाहिए. या फिर क्या नीति आयोग तोड़ सकता है ये कुरीति?
पड़ोसी के बेटे के मार्क्स, बुआ की बेटी का ग्रेड, फलाना के बेटे का स्प्लेंडर, चिलाना की बेटी की ऑडी. देश का युवा अपने समवयस्कों से कैच-अप कैच-अप खेलता हुआ केचप बन गया है. जिनके जीवन में यूपीएससी, पीओ, पीसीएस, एसएसबी, पोस्टिंग कॉम्पिटिशन नहीं नासूर हैं जीवन के, जो चार्टर्ड बस की खिड़की से धौलपुर हाउस दिखते ही रिलैप्स करने लगते हैं और जनता ठीक वैसे कराहने लगती है जैसे जीवन की पहली वन साइडेड लव स्टोरी याद आ गई हो. पूरा जीवन एक क्रॉस लगे मार्कशीट की तरह बिलबिलाता हुआ गुज़रता है. यही दर्द है जो मुझे बता रहा है कि अब वक़्त आ गया है कि इसकी अकाउंटिबिलिटी तय की जाए. जिसमें एक अंग ये भी सोचा है कि एक हेल्पलाइन भी शुरू किया जाए. जिससे एक तो युवाओं और किशोरों में अपने माता-पिता-पड़ोसी-बुआ-मौसी-जीजा के तानों को झेलने के लिए मानसिक शक्ति विकसित की जा सके और समाज में मिडियौक्रिटी के लिए एक सहिष्णुता का माहौल विकसित किया जा सके. देश के अभिभावकों को समझना ज़रूरी है कि क्रांतिकारी और मिडियौकर केवल दूसरों के बच्चे नहीं हो सकते, उनके परिवार में भी ऐसे जीव अगर पैदा हो जाएं तो इंसानियत का तक़ाज़ा है कि उनका संरक्षण होना चाहिए.
पर वो सब समाधान के छोटे हिस्से हैं. युवाओं को ये समझना होगा कि जैसा हर श्रेष्ठ अनुष्ठान में होता है, युवाओं को भी शुरुआत में तो आहुति देनी ही होगी, हिम्मत करके टिके रहना होगा और अपनी औसतता की रक्षा के लिए लामबंद होना पड़ेगा. आलोचनाओं को दरकिनार करके आगे चलते रहना होगा. आलोचनाओं और तुलनाओं से घबरा गए तो फिर क्या युवा हुए. ये समझना होगा कि आलोचना केवल आपकी नहीं होती है, तुलना ने केवल आपका जीवन नर्क नहीं किया है. नज़र घुमाने पर पता चलेगा कि ये देशव्यापी समस्या है, जात-धर्म-क्लास से निरपेक्ष, जहां आपसे बड़े ढेरों पीड़ित हैं. जब ये सोचेंगे तो जीवन आसान होगा. सोचिए कभी अभिषेक बच्चन के बारे में. उस भद्र मानुस की तुलना होती भी है तो किससे, सदी के महानायक से. चाहे कुछ भी वो कर ले लेकिन फिर भी क्या सुनने को मिलेगा - वो बात नहीं जो अमिताभ बच्चन में. वो क्या कम था कि शादी भी हुई तो ऐश्वर्या राय से. उस तुलना का नतीजा क्या निकाला जाता है हम सबको पता ही है, अब ज़्यादा क्या कहा जाए. लेकिन आप ये सोचिए कि ऐसी तुलनाओं से कभी डिगते हुए देखा है जूनियर बच्चन को, कि लगे मोहल्ले की शादी में बिफरकर अपने खानदान और बीवी-ससुर को गरियाने? नहीं ना. तो देखिए और सीखिए. प्रेरक व्यक्तित्त्वों की कमी नहीं है.
अगर आलोचना आपके जीवन का ज़हर है तो राहुल गांधी को देखिए. आप सोचते हैं कि आपकी ही आलोचना होती है? आप ही सबसे पीड़ित हैं? आलोचना झेल कर भी मुस्कुराना एक योद्धा के लिए कितना ज़रूरी है, ये सीखने के लिए आपको ज़्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा. राहुल बाबा को देखिए और सीखिए. अपनी आलोचना तो सुपरहीरो नहीं झेल पाते हैं, सुपरमैन भी एडवर्स पब्लिसिटी से परेशान होकर अपनी मां के पास मकई उगाने चला जाता है. बैटमैन भी ब्रूस वेन बनकर गुफ़ा में समाधिस्थ हो जाता है. लेकिन राहुल गांधी नहीं. हर आलोचना को झेलने की उनकी क्षमता को रोज़ सुबह शाम सलाम करना चाहिए. मतलब चुनाव हो तो आलोचना, ना हो तो आलोचना. रुझान हो तो आलोचना, एग्ज़िट पोल हो तो. सोशल मीडिया में आलोचना, अख़बारों के कार्टूनों में आलोचना, स्टूडियो डिस्कशन में आलोचना. स्टैंडअप कॉमेडी से सिट डाउन मीटिंग तक, रीयल से वर्चुअल तक, हर तरफ़ चुटकुले ही चुटकुले. आपके भी तीन अंकल और चार आंटी एग्ज़ाम ख़त्म होने के बाद से रिज़ल्ट निकलने तक आपको ब्रीदर देते हैं लेकिन सोचिए राहुल गांधी का. चुनाव फ़्यूचर टेंस से पास्ट टेंस हो जाता है लेकिन चुटकुले प्रेंज़ेंट रहते हैं. कल ही देखिए, एक तरफ़ रामचंद्र गुहा कहते हैं राहुल गांधी को तुरंत के तुरंत शादी करके घर बसा लेना चाहिए, उनका भी भला होगा, कांग्रेस का भी. अब ये आलोचना अभी हेडलाइन से उतरती भी नहीं है कि जूता फेंक दिया जाता है. बावजूद इसके देखिए उस कर्मयोगी को. मजाल है कि पथ से विचलित हो. यही वो पहलू है जिस पर युवाओं को फ़ोकस करना है. वो प्रेरणा हैं देश के युवाओं के लिए कि परिजनों-गुरुजनों और दुर्जनों के आशीर्वादों के बावजूद जीवन की रेस में टिकते कैसे हैं. सीखिए उनसे.
क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...
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This Article is From Sep 27, 2016
राहुल गांधी और अभिषेक बच्चन क्यों हैं युवाओं के लिए प्रेरणा के स्रोत?
Kranti Sambhav
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 27, 2016 00:25 am IST
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Published On सितंबर 27, 2016 00:25 am IST
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Last Updated On सितंबर 27, 2016 00:25 am IST
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