कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए नामांकन की आखिरी तारीख यानि 30 सितंबर के बाद 3 उम्मीदवार चुनावी मैदान में हैं. सबसे पहले नंबर पर हैं राज्यसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे. दूसरे नंबर पर हैं शशि थरूर जो तिरुवनंतपुरम से कांग्रेस सांसद हैं और तीसरे हैं केएन त्रिपाठी जो झारखंड के कांग्रेस नेता हैं और झारखंड में मंत्री भी रह चुके हैं. लेकिन जिन दो संभावित उम्मीदवार की सबसे ज्यादा चर्चा थी, वो रेस से बाहर हो चुके हैं. वो हैं अशोक गहलोत और दिग्विजय सिंह. गहलोत ने तो मीडिया के सामने मना कर दिया मगर दिग्विजय सिंह ने नामांकन का पर्चा लेने के बाद भी उसे जमा नहीं कराया.
अब सबसे बड़ा सवाल है. अध्यक्ष पद के लिए गांधी परिवार ने गहलोत के बाद 'प्लान बी' के तहत मल्लिकार्जुन खड़गे को ही क्यों चुना? मल्लिकार्जुन खड़गे की उम्र 80 साल है यानि सोनिया गांधी से भी 5 साल बड़े. कहने का मतलब यह है कि आने वाले दिनों में गांधी परिवार के लिए कोई खतरा नहीं है. राजनीति में 50 साल का अनुभव है. कर्नाटक से आते हैं, जहां अगले साल चुनाव होने हैं. खड़गे कर्नाटक में 9 बार विधायक रहे और राज्य के गृहमंत्री भी. लोकसभा में कांग्रेस के नेता रहे और अभी राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं. मगर इन सबसे ऊपर वो दलित हैं.
1969 में बाबू जगजीवन राम के बाद खड़गे कांग्रेस के ऐसे दूसरे दलित नेता हैं जो पार्टी अध्यक्ष होंगे (अगर जीतते हैं तो). अपना पर्चा भरने के बाद खड़गे ने मीडिया से बात करते हुए गांधी, नेहरू और बाबा साहेब अंबेडकर की विचारधारा की बात की. इस तरह की बातें अरसों बाद किसी कांग्रेसी नेता के मुंह से सुनाई दे रही हैं. कांग्रेस के नेताओं ने तो नेहरू तक का बचाव करना छोड़ दिया है. यानि मल्लिकार्जुन खड़गे को उम्मीदवार बनाकर गांधी परिवार ने एक तीर से कई शिकार किए. एक तो अब कोई ये नहीं कह रहा है कि कांग्रेस की कमान हर बार गांधी परिवार को ही क्यों? यही वजह है कि इस तरह का सवाल उठाने वाले G-23 के सभी नेताओं में खड़गे का प्रस्तावक बनने की होड़ लगी हुई थी.
यहां तक कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी लाइन में सबसे आगे थे. इस तरह से सीताराम केसरी के बाद 24 साल के इंतजार के बाद कोई गैर गांधी कांग्रेस का अध्यक्ष बनेगा. लेकिन खड़गे की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है? वो यह है कि उनकी पकड़ हिंदी पट्टी में बहुत कमजोर है. हालांकि, खड़गे बहुत अच्छी हिंदी बोलते हैं. मगर एक नेता के तौर पर उन्हें स्वीकार्यता बनानी पड़ेगी. यहां पर आता है फैसले करने का अधिकार किसके पास होगा, चुनाव जीत कर आए अध्यक्ष को या गांधी परिवार को. यहां पर वही सिद्धांत लागू होता है जो अक्सर सभी दलों में दिखता है. कानूनी तौर पर कौन है अध्यक्ष और फैसले कौन लेता है. जैसा कि बीजेपी में है भले ही अध्यक्ष नड्डा साहब हों मगर असली फैसले कौन लेता है, सबको मालूम है. यह बताने की जरूरत नहीं है. यही बात अब कांग्रेस पर भी लागू होती है और यह सब साफ दिख रहा है. अशोक गहलोत का पहले अध्यक्ष पद के लिए नाम आना फिर उनके किए की उनको सजा. फिर खड़गे का नामांकन करना मतलब साफ है, फैसले कहां लिए जा रहे हैं.
वैसे शशि थरूर और के एन त्रिपाठी भी चुनाव मैदान में हैं. फिलहाल लगता है कि चुनाव होगा. यह भी कहा जा रहा है कि गांधी परिवार यह चाहता है कि चुनाव हो, वोट पडे़ं ताकि कोई ये ना कहे कि गांधी परिवार ने अपने व्यक्ति को अध्यक्ष बनवा दिया. अब खड़गे के सामने चुनौतियां क्या-क्या है?
पहली, अगर खड़गे खुद चुनाव जीत जाते हैं. तो वो कांग्रेस कार्यसमिति (फैसला लेने वाली संस्था है) क्या उसका भी चुनाव करवाएंगे. क्या खड़गे राज्यों में भी प्रदेश अध्यक्षों का चुनाव करवाएंगे? यही नहीं, उनको अब गुजरात और हिमाचल में होने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजों से भी परखा जाएगा? और उनकी सबसे बड़ी परीक्षा अगले साल की शुरुआत में कर्नाटक में होने वाले विधानसभा चुनाव में होगी. वहां उनको जीत दर्ज करनी ही होगी. तभी उनका सिक्का जम पाएगा यानि खड़गे साहब को कई मौकों पर खरा उतरना होगा. कहा जाता है न कांग्रेस का ताज, कांटों भरा ताज है. जिसके लिए खड़गे को हर मौके पर परीक्षा में पास होकर दिखाना पड़ेगा.
मनोरंजन भारती NDTV इंडिया में मैनेजिंग एडिटर हैं...
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