बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार हुए रिकॉर्डतोड़ मतदान ने सबका ध्यान खींचा और इसपर खूब चर्चा भी हो रही है. चुनाव आयोग के डेटा के अनुसार राज्य में दोनों चरण मिलाकर करीब 69.1 प्रतिशत वोटिंग हुई है. 2020 की तुलना में ये 12 फीसदी ज्यादा है. राज्य में 71.6 प्रतिशत महिला मतदाताओं ने वोट डाले हैं. अगर 2020 से तुलना करें तो यहां भी 12 फीसदी ज्यादा वोट का आंकड़ा बैठता है. राज्य में इस बार वोटर जमकर अपने घरों से निकले हैं और मतदान किया है. लेकिन इसे लेकर हम क्या मतलब निकालें? क्या इसका असर चुनाव परिणाम पर होगा?
पहली बात, बिहार में मंडल कमिशन के बाद 1990 में जमकर वोटिंग हुई थी और करीब 60 प्रतिशत मत पड़े थे. लेकिन 2005 आते-आते ये घटकर 46.5 प्रतिशत पर पहुंच गया था. हालांकि, इस गिरावट के बाद राज्य में लगातार वोटिंग प्रतिशत बढ़ता रहा है. 2010 में राज्य में वोटिंग प्रतिशत 52.7 रहा. 2015 में 56.3 प्रतिशत, 2020 में 57.29 प्रतिशत रहा. लोकसभा चुनाव में राज्य में 56-57 प्रतिशत वोटिंग राज्य में लगातार होती आई है. पिछली बार के लोकसभा चुनाव में कुल 56.2 प्रतिशत मत पड़े थे.
वोटिंग प्रतिशत और उसके मायने
2020 का विधानसभा चुनाव कोविड के दौर में हुआ था और इसमें वोटिंग प्रतिशत काफी कम रहा था. तार्किक रूप से समझें तो पिछले चार विधानसभा चुनाव में, जिसे नीतीश कुमार का काल भी कहा जाता है, औसतन 3-4 प्रतिशत वोटिंग प्रतिशत बढ़ता रहा है. अगर इसको कुल वोटर में जोड़ें तो राज्य में कुल 7.5 करोड़ वोटर में करीब-करीब 25-30 लाख वोट हर चुनाव में जुड़ते रहे हैं.
एक और बात जो साफ है कि राज्य में विवादास्पद SIR प्रक्रिया के कारण कुल 7.89 करोड़ वोटर की संख्या घटी है. जून 2025 में जो वोटर लिस्ट आया उसमें अब कुल वोटर की संख्या 7.45 करोड़ ही रह गए. यानी करीब 5.6 प्रतिशत (करीब 44 लाख) वोटर का नाम मतदाता सूची से कट गया. इसका सीधा असर रिकॉर्ड मतदान प्रतिशत पर पड़ा. भले ही 2020 विधानसभा चुनाव जितना ही मतदाताओं ने वोट डाले हों.
इस रिकॉर्डतोड़ वोटिंग से हमें कोई क्लियर तस्वीर नहीं मिलती है. असल में ये जानने की जरूरत है कि कितनी संख्या में लोगों ने वोट डाले हैं. चुनाव आयोग के डेटा के अनुसार 2025 में करीब 90 लाख वोट बढ़े हैं. ऐसे में अगर हम इस आंकड़े से 25-30 लाख का आंकड़ा कम कर लें तो असल में वोटर की तादाद करीब 65 लाख ही बढ़ा है. यानी कुल वोट का करीब 8 प्रतिशत ज्यादा. इसमें महिलाओं की तादाद भी शामिल है.
इस बार के चुनाव में प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी का काफी जोर रहा. इस पार्टी की पूरे चुनावों में खूब चर्चा हुई और इसके कारण भी वोट प्रतिशत बढ़ा हो. बिहार जैसे राज्य में जहां पिछले तीन दशक से 'नीतीश बनाम लालू' की लड़ाई चल रही है, वहां वोटर इस पुरानी तस्वीर से ऊब भी जाते हैं. ऐसे में नया विकल्प मतदाताओं को एक मौका देता है और एक नई गोलबंदी होती है वो और बाहर निकलकर अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं.
ज्यादातर भारतीय राज्यों में त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलता है. ऐसे में कोई नया दल जब सामने आता है तो मतदान प्रतिशत बढ़ना स्वाभाविक है. अब तमिलनाडु को ही लीजिए, 2001 की तुलना में 2006 में राज्य में 11 प्रतिशत वोटिंग बढ़ी क्योंकि इस दौरान अभिनेता विजयकांत एक तीसरी शक्ति के रूप में राज्य में एंट्री किए थे. ऐसे ही ट्रेंड अन्य जगहों पर भी देखे जाते रहे हैं. जैसे दिल्ली में 2013 में आम आदमी पार्टी (आप) के कारण 8 प्रतिशत वोटिंग बढ़ी. ऐसे में राज्य में मतदान का बढ़ा प्रतिशत नए दल और कुछ नए फैक्टर के कारण भी हो सकता है. हालांकि, इसका ये भी मतलब नहीं है कि वोटिंग प्रतिशत का बढ़ना केवल जन सुराज के कारण हुआ हो.
तो वोटिंग प्रतिशत बढ़ा क्यों?
असल में राज्य में इस बार चुनाव महिलाओं के इर्द-गिर्द ही लड़ा गया है. महागठबंधन और सत्तारूढ़ एनडीए महिलाओं के लिए कई वादों के साथ मैदान में उतरी थी. निश्चित तौर पर महिलाओं का वोट बैंक एक बड़ा प्रभाव डालेगा. राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के नेताओं के अनुसार, SIR और नागरिकता संशोधन कानून के कारण अल्पसंख्यक समुदाय और प्रवासी मजूदरों में जबरदस्त लामबंदी हुई होगी और वो वोटिंग को प्रेरित हुए होंगे. अंत में, बिहार चुनाव दीपावली और छठ पूजा के वक्त हुआ है. छठ पूजा बिहार का सबसे बड़ा त्योहार है और राजनीतिक दलों ने प्रवासी बिहारियों को चुनाव तक राज्य में रहने की अपील की. ऐसे में त्योहारी मौसम के कारण भी वोट प्रतिशत बढ़ा है.
हो सकता है कि इन सभी फैक्टर का असर पड़ा हो.लेकिन ये भी कहना होगा कि नई पार्टी, मतदाता सूची की छंटाई और पिछले दो दशक में लगातार बढ़ती वोटिंग प्रतिशत से इसे एक सामान्य वोटिंग वृद्धि के तौर पर देख सकते हैं.
ज्यादा मत प्रतिशत पुख्ता तौर पर किसी तरफ इशारा नहीं करता है जबतक कि अंतिम परिणाम न आ जाए. ज्यादा मत प्रतिशत से किसी पक्ष को कोई बढ़त हासिल नहीं होने वाला है. बिहारियों को ये पता है कि ये चुनाव नीतीश कुमार और लालू यादव के लिए अंतिम चुनाव है. ऐसे में 2020 की तुलना में सभी पक्षों में जोरदार गोलबंदी हुई है. अगर वोटिंग प्रतिशत कम होता तो ये चौंकाने वाला होता. अगर ऊपर के सभी कारकों को ध्यान से देखें तो बढ़ा हुआ मत प्रतिशत कोई अप्रत्याशित नहीं है.