अगले 72 घंटे बेहद महत्वपूर्ण हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर चंडीगढ़ में 32 हजार लोगों के साथ योग करने के दो दिन बाद ताशकंद में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में शिरकत करने के लिए जाएंगे। वहां उस बैठक के इतर वह चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से मुलाकात करेंगे।
सरकार के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि मोदी ने इस मसले पर शी के साथ चर्चा की है लेकिन उन्होंने 'अपने रुख से पीछे हटने का कोई संकेत नहीं दिया।'
अब मोदी अपनी मुलाकात के दौरान शी के साथ इस मुद्दे को रखेंगे। ठीक वैसे ही जिस तरह बीजिंग में पिछले सप्ताह विदेश सचिव एस जयशंकर ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ बातचीत के दौरान भारत का पक्ष रखा। अब यदि चीनी नेता राजी नहीं होते हैं तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि वह खुद के साथ एक अन्य एशियाई देश के रूप में भारत को दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों की टेबल पर बैठे देखना नहीं चाहते।
रविवार को विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने मीडिया से कहा कि वे भारत की उम्मीदों को लेकर आशान्वित हैं। उन्होंने कहा कि चीन, भारत को इसका सदस्य बनाए जाने का विरोध नहीं कर रहा है लेकिन वह एनएसजी को स्थापित करने वाले नियमों, प्रावधानों और श्रेणियों के उल्लंघन को लेकर अधिक चिंतित है। उल्लेखनीय है कि एनएसजी न्यूक्लियर मसलों पर दुनिया की सबसे शक्तिशाली नीति-निर्धारक बॉडी है।
निश्चित रूप से स्वराज का चीनियों की प्रति रुख बेहद नरम रहा। उनके मुताबिक यह भारतीयों का विशेष रूप से अंतरराष्ट्रीय मीडिया के समक्ष अपना 'चेहरा बचाने' का विशिष्ट सांस्कृतिक तरीका है।
हालांकि यह भी सही है कि अमेरिका ने ही भारत को एनएसजी की सदस्यता दिलाने के लिए अभियान चलाया है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और विदेश मंत्री जॉन कैरी ने एनएसजी के सभी 48 सदस्य देशों को फोन करके भारत के समर्थन का आग्रह किया है। सुषमा स्वराज ने इनमें से 23 देशों के विदेश मंत्रियों से निजी तौर पर बातचीत की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया अमेरिका, स्विट्जरलैंड और मेक्सिको की यात्रा भी समूह की छोटी और मंझोली शक्तियों को यह जताने की कोशिश थी कि उन्हें यह समझना चाहिए कि भारत को भी इसमें शामिल करने का वक्त आ चुका है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग हाथ मिलाते हुए (फाइल फोटो)
लेकिन सुषमा के बयान का चीनियों पर कुछ खास असर नहीं पड़ा क्योंकि बीजिंग में सोमवार की दोपहर चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने कहा, 'एनपीटी की बैठकों में गैर एनपीटी सदस्यों (मसलन भारत) को शामिल करने का कभी एजेंडा नहीं रहा। इस साल सियोल में भी ऐसा कोई टॉपिक नहीं है।'
इसके साथ ही हुआ ने यह भी जोड़ा कि सदस्य देश केवल भारत की सदस्यता के मसले पर ही विभाजित नहीं हैं बल्कि वे इसके साथ-साथ परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) में बिना हस्ताक्षर किए देशों को शामिल करने के मसले पर विभाजित हैं।
यद्यपि भारत एनपीटी को विभेदकारी संधि मानता रहा है क्योंकि यह केवल उन 5 देशों को ही परमाणु शक्ति संपन्न मानता है जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य भी हैं। भारत का मानना है कि अब वैश्विक सुरक्षा ढांचे के प्रतिनिधित्व में बदलाव का वक्त आ गया है जोकि अभी भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर की स्थितियों के प्रकटीकरण के रूप में दिखाई देता है। अब इसमें बदलाव की दरकार है।
कुछ ही घंटों के भीतर भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने हुआ चुनयिंग से अलग बात कही। उन्होंने इस रिपोर्टर को पुष्टि करते हुए कहा कि भारत ने इस मसले पर 12 मई को आवेदन किया था और अमेरिका, रूस, ब्रिटेन जैसे देशों ने इसका जबर्दस्त समर्थन किया था। ऐसे में यह निश्चित रूप से सियोल एजेंडे में है। ऐसे में उन्होंने कहा, इस मामले में 'गैरजरूरी कयास' लगाने की जरूरत नहीं है।
चीनी सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रकाशनों के हिस्सों में शुमार चीनी डेली 'ग्लोबल टाइम्स' में पिछले सप्ताह एक आर्टिकल में कहा गया, 'वैश्विक रूप से सिविल न्यूक्लियर व्यापार को नियंत्रित करने वाले एनएसजी का सदस्य बनने के बाद भारत को वैधानिक परमाणु शक्ति संपन्न देश के रूप में वैश्विक स्वीकृति मिल जाएगी...यदि यह समूह का हिस्सा बनता है तो अपनी घरेलू परमाणु सामग्री को सैन्य इस्तेमाल के लिए बचाते हुए नई दिल्ली अधिक सुविधाजनक ढंग से सिविल न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी और ईंधन को आयात करने में समर्थ हो जाएगा।'
हालांकि 'ग्लोबल टाइम्स' के मुताबिक चीनी विरोध का एक दूसरा कारण पाकिस्तान भी है। इसके मुताबिक, 'भारत की एनएसजी की सदस्यता हासिल करने की महत्वाकांक्षा का बड़ा मकसद इस्लामाबाद की परमाणु क्षमताओं पर बढ़त हासिल करना है। ऐसे में भारत को पहले इसकी सदस्यता मिलने से इसके और पाकिस्तान के बीच का परमाणु संतुलन टूट जाएगा।'
इसलिए जयशंकर ने अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान एक मजबूत ऑफर दिया कि यदि चीन, भारत के संदर्भ में अपनी आपत्तियों को हटा लेता है तो दिल्ली भी एनपीटी पर बिना हस्ताक्षर किए शामिल होने के इच्छुक अन्य सदस्यों की राह में रोड़ा नहीं बनेगा। विदेश सचिव का इशारा निश्चित रूप से पाकिस्तान की तरफ था जोकि 2008 से ही इस मसले पर चीन के अधिक निकट रहा है, जब विएना के एनएसजी सत्र में भी ऐसा ही ड्रामा हुआ था।
पाकिस्तान ने भी एनएसजी की सदस्यता हासिल करने के लिए आवेदन किया है और उसका 'परम मित्र' और सहयोगी चीन उसकी मदद करता रहता है क्योंकि वह नई दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच के मतभेदों को बरकरार बनाए रखना चाहता है। चीन जानता है कि पाकिस्तान को एनएसजी की सदस्यता मिलना बेहद मुश्किल है क्योंकि अमेरिका इसका किसी भी हद तक भारी विरोध करेगा। ऐसे में चीन सोचता है कि यदि पाकिस्तान अंदर दाखिल नहीं हो पाता है तो भारत को भी एनएसजी के बाहर ही रहना चाहिए।
2008 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अपने चीनी समकक्ष हू जिंताओ को भारत के खिलाफ आपत्ति हटाने के लिए सहमत कर लिया था। एनएसजी से रियायत मिलने के बाद भारत को पूरी दुनिया के साथ परमाणु व्यापार की अनुमति मिल गई थी। लेकिन भारत अब इसका पूर्ण सदस्य बनना चाहता है। अब वह इस मामले में नीति नियंता बनना चाहता है। अब स्थायी रूप से हाशिए पर बैठकर चीजों को होते देखने के बजाय वह परमाणु ढांचे के मामले में कम से कम दुनिया के स्वरूप के निर्धारण में भूमिका निभाना चाहता है।
ऐसे में जब सियोल में 23-24 जून को एनएसजी बैठक में भारत के आवेदन समेत अन्य मुद्दों पर चर्चा होगी तो विदेश सचिव एस जयशंकर के दक्षिण कोरिया की इस राजधानी में पूरे मामले को देखने और सुनने के लिए उपस्थित रहने की पूरी संभावना है। सबकी निगाहें चीन पर टिकी होंगी कि क्या वह इस प्रतिष्ठित क्लब में भारत के वाजिब प्रवेश की राह में कहीं एकमात्र रोड़ा तो नहीं है।
यह भी एक विडंबना ही है कि 1974 में इंदिरा गांधी के दौर में भारत के पहले 'शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट' की पृष्ठभूमि में उसके एक साल बाद 1975 में एनएसजी अस्तित्व में आया। उस दौर में पश्चिमी जगत ने अत्यंत रोष प्रकट करते हुए प्रतिबंध लगा दिए थे। कनाडा ने सिविल न्यूक्लियर के मसले पर भारत के साथ सभी संबंध समाप्त कर दिए थे।
एनएसजी की स्थापना भारत जैसे ऐसे देशों को बाहर रखने के लिए की गई थी जिन्होंने इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की विभेदकारी नीतियों के समक्ष झुकने से इनकार कर दिया था। एनएसजी का संचालन आम सहमति से होता है। यानी कि यदि एक देश भी भारत का विरोध करेगा तो भारत को शामिल नहीं किया जाएगा। हालांकि पहले विरोध कर रहे अर्जेंटीना, दक्षिण अफ्रीका, मेक्सिको, स्विट्जरलैंड और आयरलैंड अब भारत के समर्थन में आ गए हैं लेकिन ऑस्ट्रिया और न्यूजीलैंड अभी भी चीन के साथ हैं। ऐसे में भारत को प्रवेश मिलने की राह मुश्किल होगी।
2008 के बाद पहली बार जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत-अमेरिका समझौते पर अपने सरकार की बाजी लगाई थी और आईएईए और एनएसजी में भारत को छूट या रियायत मिली थी, उसके बाद भारत और चीन इस मसले पर अब फिर आमने-सामने हैं। 2008 की रियायत ने भारत को पूरी दुनिया के साथ परमाणु व्यापार की अनुमति दी। यह एक बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ था जब एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले किसी देश को ऐसी छूट मिली थी। तब से भारत रूस और फ्रांस जैसे देशों से सिविल न्यूक्लियर पावर प्लांट खरीदने के लिए बातचीत कर रहा है। अभी दो सप्ताह पहले ही भारत और अमेरिका के बीच आठ अरब अमेरिकी डॉलर में छह परामणु रिएक्टर का सौदा तय हुआ है। एक्जिम बैंक लोन से लेकर अन्य मानकों पर इस वक्त बातचीत चल रही है।
लेकिन रविवार को सुषमा स्वराज की प्रेस कांफ्रेंस में उनके द्वारा चीन के लिए इस्तेमाल किए गए मीठे वचन और दक्षिण चीन सागर (चीन समेत अन्य कई दक्षिण-पूर्व एशियाई देश इस पर अपना दावा करते हैं) में भारत की पोजीशन के चीनी पत्रकार के सवाल का शांतचित्त जवाब देने के बावजूद ऐसा लगता है कि एनएसजी मसले पर फेल होने की स्थिति का सामना करने के लिए भी मोदी सरकार तैयारी कर रही है।
यद्यपि उन नतीजों के स्वरूप का कयास लगाने के लिए अधिकारी इच्छुक नहीं दिखते लेकिन एक चीज स्पष्ट होगी और वह यह कि पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र द्वारा चीन के बारे में 'उत्तर में कठोर पड़ोसी' की धारणा एक बार फिर पुष्ट होगी। जैसा कि 18 साल पहले भारत के परमाणु परीक्षण के बाद बीजिंग के रुख को देखकर लगा था।
(ज्योति मल्होत्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं और दक्षिण एशिया में बातचीत और संवाद में उनकी खासी दिलचस्पी रही है।)
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