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This Article is From Feb 11, 2016

इस स्मार्ट सिटी की क़ीमत कौन चुकाएगा?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 11, 2016 19:48 pm IST
    • Published On फ़रवरी 11, 2016 19:41 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 11, 2016 19:48 pm IST
स्मार्ट सिटी को हिंदी में क्या कहेंगे? इसके लिए हिंदी में क़ायदे का कोई शब्द नहीं मिलता। अनुवाद करके कुछ बनाना चाहें तो शायद हम कुछ शब्द गढ़ लेंगे, लेकिन उनमें स्मार्ट शहर वाली स्मार्टनेस और जीवंतता नहीं होगी - वे वैसी ही कृत्रिम और बेजान अभिव्यक्ति के वाहक होंगे जो हमें कई दूसरे अनुवादों में दिखती है।

लेकिन इस टिप्पणी का मक़सद भाषा या अनुवाद की समस्या की ओर ध्यान खींचना नहीं, बस यह याद दिलाना है कि हमारी ग्राम-नगर योजना में- अगर ऐसी कोई योजना हमने बनाई है या हमारे यहां कभी रही है- तो ऐसी स्मार्टनेस की कल्पना कभी नहीं की गई कि बैठे-बिठाए आपको सब कुछ मिलता रहे और आप एक टापू के परमानंद का सुख लेते हुए जिएं। हालांकि इन स्मार्ट सिटीज़ के ख़िलाफ़ यह तर्क उचित नहीं कि पहले इनकी अवधारणा हमारे यहां नहीं रही है- ये सच है कि हमारे यहां बहुत सारा कुछ पहले से नहीं रहा है, बहुत सारी अवधारणाओं को हमने अपनाया है, क्योंकि वे हमें न्याय और बराबरी के सिद्धांतों के ज़्यादा अनुकूल लगी हैं- इनमें हमारा संविधान और हमारी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का मौजूदा रूप भी है। स्मार्ट सिटी की अवधारणा अगर परेशान करती है तो बस इसलिए कि वह गरीबी के समंदर में अमीरों के कुछ टापू बनाने की सोच को बढ़ावा देती हैं। हमारे यहां और भी ऐसी नीतियां हैं जो अपने चरित्र में ग़रीब विरोधी हैं या जिनका सीधा फ़ायदा अमीरों को मिलता है, लेकिन स्मार्ट सिटी तो सीधे-सीधे एक देश की सामूहिक जीवन शैली के विरुद्ध पड़ती है। जिस देश में 1500 से ज़्यादा शहर हों, वहां सौ शहरों को छांट कर अगले एक दशक तक उन्हें विकसित करने की योजना दरअसल उपभोग के ऐसे ही द्वीप बनाने की योजना है जो बाक़ी भारत का शोषण कर सकें।

इसमें शक नहीं कि शहर हों या गांव- या बसावट की कोई भी इकाई- उन्हें साफ़-सुथरा और सुविधाजनक होना चाहिए। लेकिन गांव हों या शहर- वे होटल या दुकान जैसी निजी संपत्ति नहीं होते, जिन्हें आप अपने ख़र्च से सजा-संवार लें और बाकी दुनिया को दिखाएं कि आप कितने अच्छे से रहते हैं। बस्तियां एक सामूहिकता में बसती हैं- वे लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से फैलती हैं। दुर्भाग्य से हिंदुस्तान की ज़्यादातर बस्तियां बिना किसी योजना के, बस यों ही, विकसित हो गईं। अच्छा होता कि इनमें एक योजनाबद्धता होती, एक नियोजन दिखता, कुछ व्यवस्था दिखती। इनके न होने का संकट भारतीय गांव और शहर रोज़ झेलते हैं। लेकिन इस अव्यवस्था में, इस नियोजन के अभाव में ही कहीं कोई जादू है कि हमारे गांव-शहर बचे हुए हैं, कायम हैं। नगर नियोजन की कमी का सामना भारत ने अपनी सामाजिकता से किया। यह देश कई तरह के अभावों में जीता रहा, मगर रिश्तों का अभाव यहां कभी नहीं रहा। अगर आप आज कैटरिंग एजेंसियों की मार्फ़त होने वाली शादियों से पहले का ज़माना याद करें तो याद आएगा कि किस तरह गांव या मुहल्ले की अनजान बहनों और बेटियों के लिए पास-पड़ोस के सारे लोग एक साथ जुटकर बारात के स्वागत और उसकी विदाई तक का पूरा इंतज़ाम करते थे।

दूसरी बात यह कि धीरे-धीरे, बरसों और दशकों और कभी-कभी सदियों में जो शहर बसते हैं, उनका अपना एक किरदार विकसित होता चलता है, उनकी अपनी गंध होती है, अपनी पहचान, अपनी एक अलग चाल, अपनी अलग अकड़ होती है। बनारस, दिल्ली, भोपाल, पटना, गया जैसे पुराने शहरों में आपको यह पहचान, यह अकड़ दिखेगी। अमृतसर, पटियाला या जालंधर जैसे शहरों में भी यह गंध मिलती है। लेकिन जो शहर योजनापूर्वक बसाए जाते हैं, वे सुंदर और सुविधाजनक कितने भी हों, उनमें यह धड़कन नहीं होती। चंडीगढ़ की एक लोकप्रिय आलोचना यह है कि वह एक बहुत सुंदर जिस्म है जिसमें आत्मा नहीं है। लेकिन चंडीगढ़ फिर भी एक स्वस्थ और संपूर्ण शहर है क्योंकि वह अतीत के किसी नगर को उजाड़ कर, उसकी पुरानी बस्ती का ‘संस्कार’ करने की कोशिश के बीच नहीं बना- उसे ला कारबुजिए नाम के महान वास्तुशिल्पी ने योजनापूर्वक बनाया।

लेकिन जिन स्मार्ट शहरों का सपना हमें दिखाया जा रहा है, वे एक सिलसिले में विकसित हुए शहरों के संस्कार से बनेंगे। ज़ाहिर है, इस महत्त्वाकांक्षी योजना की जद में वे पुराने शहर, मोहल्ले और बसेरे भी आएंगे जो पुराने ढंग से बसे होंगे। कहने को कहा जा रहा है कि ये सारे स्मार्ट शहर अलग-अलग शहरों की ज़रूरतों के हिसाब से विकसित किए जाएंगे, मगर अपने अनुभव से हम जानते हैं कि पुराने को बरबाद करके ही नए की गुंज़ाइश बनेगी। भोपाल में यह सवाल पैदा भी हो गया है कि यह स्मार्ट सिटी वहां के तीस हज़ार वृक्षों की बलि न ले ले। फिर पुराने को नष्ट कर यह जो नया शहर बसेगा, वह इतना महंगा होगा कि पुराने शहर के बाशिंदों की जेब में नहीं समाएगा। तो ये जो नए शहर होंगे- साफ-सुथरे पेयजल, समुचित कूड़ा निबटान, वाई-फ़ाई जैसी व्यवस्थाओं से युक्त- वे दरअसल उस स्मार्ट भारत के नुमाइंदों के लिए होंगे जो इस उदारीकरण के सबसे ज़्यादा फ़ायदे ले रहे हैं और तमाम शहरों में अपनी कंपनियों के हितों के प्रहरी बनकर चौकसी से काम कर रहे हैं। बाक़ी जो पुराना और बड़ा शहर होगा, वह धूल और गर्द का हिलता-डुलता आईना होगा जिसमें बहुत बड़ी हताश आबादी किसी तरह स्मार्ट सिटी में शिफ्ट करने का जुगाड़ खोज रही होगी। हमारे गांवों-शहरों के नदी-नाले, झरने, झीलें, तालाब जो अब भी सूख रहे हैं- शायद इस नई योजना में और पीछे छूट जाएंगे। और वह सामूहिकता को बिल्कुल तार-तार हो जाएगी जो अपनी तमाम विडंबनाओं के बावजूद भारतीय समाज में अब तक क़ायम है।

दरअसल यह जो सामाजिकता है, इसका अनुवाद नए शहरीकरण की भाषा और संकल्पना के पास नहीं है। शायद दो दशक पहले प्रख्यात आलोचक रामविलास शर्मा ने दिल्ली पर केंद्रित एक साक्षात्कार के दौरान कहा था कि भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया गिरावट की ओर है। इन वर्षों में वह गिरावट अपने चरम पर है। शहर अव्यवस्था, भीड़भाड़, झोपड़पट्टियों और अमीरी के अश्लील प्रदर्शन की जगहों में बदल रहे हैं। ज़ाहिर है, इस प्रक्रिया को पलटने की ज़रूरत है। लेकिन इसका तरीक़ा इन्हें स्मार्ट सिटी में ढाल देना नहीं है। क्योंकि अपने बदहाल गांवों और गंधाते क़स्बों से भाग कर शहर आती जमात इतनी बड़ी है कि वह इन स्मार्ट सिटीज़ में नहीं समाएगी- वह इन्हें भी बेमानी बना डालेगी। तरीक़ा यह है कि आप एक विकेंद्रित नियोजन पर काम करें, विकास के नाम पर चल रहे मौजूदा केंद्रीकरण को रोकें और छोटे-छोटे शहरों, क़स्बों और गांवों तक लोगों को स्कूल, कॉलेज, रोज़गार और जीने के साधन दें। अगर यह हो सका तो फिर कई स्मार्ट सिटीज अपने-आप खड़ी हो जाएंगी और इन 20 या 100 स्मार्ट सिटीज़ की अलग से ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

लेकिन यह एक मुश्किल रास्ता है। इस पर चलने के लिए विकास के जुमलों से अलग हट कर सोचना होगा, क्रोनी कैपिटलिज़्म- यानी चंपू पूंजीवाद- के संरक्षण से मुक्ति पानी होगी। इसलिए आसान तरीक़ा ये है कि लोगों को स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन का सपना दिखाया जाए, ताकि वे बाक़ी शहरों की हक़ीक़त भूलकर इसी ख़्वाब को जीने लगें।

पिछले दिनों नीतीश कुमार ने दिल्ली आकर यह दुख जताया कि पटना, मुज़फ़्फ़रपुर या बिहार के किसी भी शहर को स्मार्ट सिटी का दर्जा नहीं दिया गया। उन्होंने वेंकैया नायडू से मुलाक़ात की तो शहरी विकास मंत्रालय ने बाक़ायदा जवाब देकर बताया कि उनके शहर स्मार्ट सिटी की प्रतियोगिता में कहीं टिक नहीं सके। भरोसा भी दिलाया कि अगली बार बाक़ी राज्यों के एक-एक शहर को लिया जाएगा तो उनकी बारी भी आ जाएगी। जाहिर है, स्मार्ट सिटी का जो ख़र्च और तामझाम है, वह ग़रीब और पिछड़े राज्यों के बूते का नहीं है।

अच्छा हो, नीतीश कुमार पटना और गया को स्मार्ट सिटी बनाने के चक्कर में न पड़ें। वे गंगा और फल्गू को उसका कुछ वैभव लौटा सकें तो यही बड़ी बात होगी। बिहार में एक स्मार्ट सिटी बनेगी तो कई उदास क़स्बे बनेंगे, पीछे छूट रहे गांव और पीछे छूट जाएंगे। ये बिहार का रास्ता नहीं होना चाहिए।

(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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