मोटे तौर पर किसानों के आंदोलन को देखने के दो से ज्यादा तरीके हैं. पहला वह जिसका कई अर्थशास्त्री समर्थन कर चुके हैं (किसानों का आंदोलन शुरू होने से काफी पहले से). वह यह कि कृषि क्षेत्र को बाजार की ताकतों के लिए खोल दिया जाना चाहिए और इसे सरकार के नियंत्रण में नहीं रखा जाना चाहिए. कुछ अर्थशास्त्री कहते हैं कि आप इस बात पर बहस कर सकते हैं कि कृषि कानूनों को पारित करने से पहले पर्याप्त परामर्श नहीं लिया गया. लेकिन इस क्षेत्र को खोलने की खूबियों को चुनौती नहीं दी जा सकती.
दूसरा तरीका वह नजरिया है जो खुद किसानों ने व्यक्त किया है. वो कहते हैं, 'राजनीतिज्ञों और शहरी अर्थशास्त्रियों द्वारा बार-बार यह बताना कि हमारे लिए क्या अच्छा है, वो ऊब चुके हैं. वो इन कानूनों को इस रूप में देखते हैं : सरकार के समर्थन को खत्म करने का प्रयास और उन्हें बड़े व्यापारियों की दया पर छोड़ देना, जो पहले तो आकर्षक कीमतों की पेशकश करते हैं और बाद में ऐसी स्थिति में पहुंचा देते हैं जहां किसान कहीं के न रहें.
लेकिन एक आधा नजरिया भी है, जो षड्यंत्र से भरा है, और जो तब भी उभर आया है जबकि नए कानूनों की खूबियों पर चर्चा हो रही है. सोशल मीडिया पर इसको लेकर काफी चर्चा हो रही है.
इस नजरिये के समर्थक पूछते हैं, क्या यह पंजाब केंद्रित आंदोलन है? नए कानूनों से पूरे देश के किसान प्रभावित होंगे. लेकिन देश के बाकी हिस्सों में इन कानूनों का विरोध नाम मात्र का ही है. केवल पंजाब के ही किसान हैं जो ज्यादा विरोध कर रहे हैं. इसका कारण यह है, जैसा कि साजिश की बात कहने वाले दावा करते हैं, क्योंकि यह वास्तव में कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन है ही नहीं.
यह कोई रहस्य नहीं है कि पाकिस्तान ने 2020 में जताया है कि वह खालिस्तान आंदोलन को पुन: जीवित करने का प्रयास करेगा. इसलिए खलिस्तानियों और भारत विरोधी तत्वों या खालिस्तान समर्थक सिखों द्वारा कनाडा जैसे देशों में, जो कि इस मुद्दे पर मुखर हैं, जनमत संग्रह 2020 की बात करना और निरंतर सोशल मीडिया कैंपेन चलाना जारी है. संशयवादी लोग कहते हैं, यह आंदोलन सिखों को भारत के खिलाफ खड़ा करने का है. और तब, जब संघर्ष शुरू हो जाएगा, तो यह दावा किया जाएगा कि भारत में सिखों के साथ दुर्व्यवहार होता है.
किसी को संदेह नहीं है कि पाकिस्तान खालिस्तान आंदोलन को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहा है - पंजाब के मुख्यमंत्री बार-बार इस बात पर जोर देते रहे हैं - लेकिन साथ ही, कुछ 'समझदार' लोग मानते हैं कि दिल्ली की कड़ाके की ठंड में भी आंदोलन कर रहे पंजाब के किसान, देश विरोधी हैं या खालिस्तानी सहानुभूति रखते हैं. वो तिरंगा लहराते हैं और जोर देकर कहते हैं कि यह भारत देश का आंदोलन है और उनके नेता आखिरी ही होंगे जिन्हें आप खालिस्तानी कहते हैं. किसानों को अलगाववादियों के साथ जोड़ने की कोशिश कुटिल और सीधे तौर पर गलत है जैसा कि हम में से कईयों ने बार-बार कहा है.
यही वजह है कि 26 जनवरी को जो घटनाएं हुईं उनका विशेष महत्व है. यह स्पष्ट है कि योगेंद्र यादव जैसे लोगों ने एक प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई थी जो भारतीय व्यवस्था में किसानों के विश्वास को दोहराता और साथ ही उनके हितों को नुकसान पहुंचाने वाले कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन करने के उनके अधिकार को भी. दुर्भाग्यवश एक अपेक्षाकृत छोटा और तय समूह ऐसा रहा जो यादव व अन्य किसान नेताओं की भावनाओं से इत्तेफाक नहीं रखता. जहां तक इस समूह की बात है, यह उतना ही धार्मिक विरोध था जितना कि आर्थिक. इन प्रदर्शनकारियों ने हिंसा नहीं छोड़ी (जैसा कि हम पुलिस पर हमले के वीडियो में देख सकते हैं), उन रास्तों को भी दरकिनार किया जिनकी किसान नेताओं ने योजना बनाई थी और जिसके लिए वो प्रतिबद्ध थे, और वो एक धार्मिक संदेश देने के लिए उत्सुक थे, भले ही इसका मतलब विविधता में भारतीय एकता के प्रतीक का अनादर हो.
किसान नेताओं ने सफाई दी. वो हमेशा से जानते थे, वो कहते हैं, कि कुछ ऐसे समूह भी हैं जो तबाही का कारण बनेंगे और जिनके बारे में उन्होंने दिल्ली पुलिस को सूचित भी किया था. मुझे यकीन है कि यह सच है. लेकिन अगर वो जानते थे कि तबाही हो सकती है, तो क्या उन्हें ऐसे समूहों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए थी? क्या उन्हें पहले उनकी निंदा नहीं करनी चाहिए थी? हम सभी ने जरनैल सिंह भिंडरावाले की प्रशंसा करते हुए दीप सिद्धू (अब लाल किला में घुसपैठ के लिए आरोपी) के टीवी फुटेज देखे हैं. क्या उसे पहले ही सार्वजनिक रूप से अलग नहीं कर देना चाहिए था - खासकर तब, अगर वो बीजेपी द्वारा भेजा गया था जैसा कि अब कुछ लोग कह रहे हैं? (कुछ किसान समूहों ने दीप सिद्धू के भिंडरावाले को लेकर की गई टिप्पणी सामने आने पर खुद को उससे अलग कर लिया था लेकिन उसकी सार्वजनिक रूप से आलोचना के लिए बहुत ही कम कदम उठाए गए.)
किसान नेता अब जो कुछ कह रहे हैं और बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने जो कहा था, उसके बीच एक निश्चित निराशाजनक समानता है: "मेरे जीवन का सबसे दुखद दिन; नहीं जानता था कि ऐसा कुछ होने जा रहा है; लोगों के एक छोटे समूह ने अनुशासन के हमारे रिकॉर्ड को तोड़ दिया; यह उन लोगों की हताशा है, जिन्हें इतने लंबे समय से न्याय से वंचित रखा गया है." निश्चित रूप से ये वो समानताएं नहीं हैं जिनसे किसानों की बात करने वाले योगेंद्र यादव जैसे सभ्य लोग खुश होंगे.
26 जनवरी को हुई घटनाओं का सबसे बुरा पहलू यह है कि उनकी वजह से जिसे कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन होना चाहिए था वो कुछ सिखों और भारतीय राज्य के बीच टकराव के रूप में बदल गया. यह सच है कि सिखों का भारी बहुमत राष्ट्रीय प्रतीकों के किसी भी अपमान को अस्वीकार करता है. (यहां तक कि एक फुटेज में कुछ सिख सिद्धू का पीछा कर रहे हैं और उसे अपशब्द भी कह रहे हैं.) और यह भी सच है कि कई गैर सिख (जिनमें मैं भी शामिल हूं) मानते हैं किसानों की मांग वाजिब है. लेकिन मुझे डर है कि लाल किले के ऊपर लगे झंडे के खंभे से झूलते हुए एक सिख का फुटेज और हवा में लहराता धार्मिक झंडा,जो किसानों के विरोध की छवि बन कर न रह जाए.
आंदोलन के नेताओं को अब अतिवादियों और कट्टरपंथियों को बाहर निकालने के लिए तेजी से काम करना होगा. उन्हें निश्चित रूप से यह जानना होगा कि उनके उद्देश्य को कितना नुकसान पहुंच चुका है. उन्होंने अतिवादियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने की गलती की क्योंकि वे एक व्यापक गठबंधन चाहते थे. लेकिन उन्हें अब उत्तर भारत से परे जाना चाहिए और अपने विरोध को राष्ट्रीय बनाने का तरीका खोजना चाहिए.
अन्यथा, ऐसे लोग जिन्हें किसानों की मांगों से कुछ लेना नहीं है और वो बिल्कुल अलग ही एजेंडा लेकर चलते हैं, उनसे खिलवाड़ करते ही रहेंगे. ठीक उसी तरह राज्य को भी अपनी प्रतिक्रिया में विचारशील होना ही चाहिए. जितना अधिक यह एक पुलिस बनाम सिख संघर्ष की तरह लगेगा, उतना ही चरमपंथी आनंदित होंगे.
एक अधूरे सच के लिए निश्चित रूप से एक खतरनाक शक्ति है, विशेषकर तब जब ट्रोल्स की एक सेना और मुख्यधारा की मीडिया में मौजूद कुछ तत्व उस अधूरे सत्य को प्रचारित होने में मदद करते हैं. हमें एक वैध उद्देश्य को केवल इसलिए बदनाम नहीं होने देना चाहिए क्योंकि कुछ अतिवादियों ने इसे अपने स्वयं के लिए हाईजैक करने का प्रयास किया.
(वीर सांघवी पत्रकार तथा TV एंकर हैं.)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.