मीडिया और सोशल मीडिया बहुत अलग-अलग संस्थाएं नहीं हैं. दोनों ही एक दूसरे के लिए सप्लायर और वितरक का काम करते हैं. हमारे जनमानस का बहुत बड़ा स्पेस इस दायरे में ग्राहक बन कर खड़ा है. तर्क और तथ्य की पहचान की क्षमता हर किसी में विकसित नहीं होती. क्योंकि हमारी ख़राब शिक्षा व्यवस्था ने उन्हें इसी स्तर का बनाया है. इस जगत के खिलाड़ियों को पता है कि शब्दों की सीमा है. इसलिए शब्द कम होने लगे हैं. टैगलाइन, हेडलाइन, कैचलाइन के ज़रिए एंकर बोलता है और व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में पढ़ा जाता है. तस्वीरों का बड़ा रोल है. लोग पढ़ने की क्षमता कई कारणों से खोते जा रहे हैं. इसलिए उनके लिए सुबह की राम राम जी की जगह गुलाब के फूल, दो कप चाय और पहाड़ के पीछे से उगते सूरज से गुडमार्निंग भेजा जाता है. जो लोग मुश्किल से पढ़ने की साधना में लगे हैं, वो व्यापक समाज के अपढ़ होने की इस प्रक्रिया से बेचैन हैं.
दुनिया के विश्वविद्यालयों में इन सब सवालों को लेकर तेज़ी से शोध हो रहे हैं. किताबें छप रही हैं. भारत में भी हो रहा है मगर स्केल वैसा नहीं है और बहुतों की गुणवत्ता बेहद सतही है. मीडिया और सोशल मीडिया लगातार आपको खुरच रहा है. भरने के नाम पर ख़ाली कर रहा है. इतनी सूचनाएं हैं कि उनका कोई असर नहीं है. इसीलिए इनका इस्तेमाल सूचित करने की जगह भ्रमित करने में होने लगा है. जिस सोशल मीडिया से जनता आज़ाद हुई थी उसी के कारण वो भंवर में फंस गई है. उसकी प्रोफाइलिंग हो चुकी है. सरकार से लेकर दुकानदार तक सबको पता है कि आप कहां जाते हैं. क्या खाते हैं. किससे मिलते हैं. आप सिर्फ एक ‘कोड’ हैं जिसे अब कोई भी मैनेज कर सकता है. सिटीज़न को ‘कोड’ में बदला जा चुका है. इस प्रक्रिया में नागरिकों का समूह भी शामिल है.
हंस पत्रिका के विशेषांक को पढ़िएगा. हिन्दी में तीन सौ पन्नों की सामग्री आपको बहुत कुछ सोचने समझने का मौक़ा देगी. तैयार करेगी ताकि आप अंग्रेज़ी की दुनिया में इस विषय पर हो रहे शोध और लिखी जा रही किताबों को समझ पाएंगे. 80 रुपया कुछ नहीं है. पत्रकारिता के छात्रों के पास तो यह अंक होना ही चाहिए. वैसे भी हिन्दी में न्यू मीडिया और सोशल मीडिया के नाम पर जो किताबें उनकी मेज़ तक ठेली गई हैं उनमें से नब्बे फ़ीसदी वाहियात हैं.
इस अंक को मीडिया पढ़ाने वाले विनीत कुमार और हिन्दी लोक जगत के माध्यमों पर असंख्य किताबें पढ़ते रहने वाले रविकान्त ने तैयार किया है. बहुत से लेखक नए हैं और हिन्दी लोक जगत के नए क्षेत्रों से आए हैं. मैंने अंग्रेज़ी के कई शानदार पाठकों को देखा है. वे काफ़ी पढ़ते हैं और किताबों का संग्रह रखते हैं. इसका अच्छा ही असर होता है. हिन्दी के भी पाठक किसी से कम नहीं हैं. उनके यहां भी अनेक विषयों पर शानदार पुस्तकों का संग्रह देखा है और उनकी विद्वता प्रभावित करती है. दुनिया से लेकर ख़ुद को समझने की बेहतर क्षमता होती है. मगर आबादी के हिसाब से हिन्दी में अच्छे पाठक कम लगते हैं.
पढ़ने और लिखने का अपना महत्व है. इसे कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए. हमारे यहां के मर्द शादी के बाद नहीं पढ़ते हैं. आप अपने घरों में ही जांच लें. यही कारण है कि उनसे बात करना झेल हो जाता है. आप भी अपने घर के बड़ों से बात करने में चट जाते होंगे. श्रद्धा और सम्मान की भावना न हो तो नमस्ते के बाद ही कट लेने का मन करता होगा. उनके साथ अन्याय भी हुआ है. गांव क़स्बों से लेकर राज्यों के कॉलेजों में घटिया तरीक़े से पढ़ाया गया है. वे पुस्तकों से दूर किए गए हैं. इस एक कारण से भी उनकी तरक़्क़ी कुछ कम रह जाती है.
इसीलिए मैं हिन्दी के पाठकों के लिए इतनी मेहनत करता हूं. यही मेरी हिन्दी सेवा है. आपके लिए रोज़ वैसी ख़बरों का सार लाता हूं जो हिन्दी के कूड़ेदान अख़बारों में कभी नहीं छपतीं. हिन्दी के अख़बार लगातार आपके सोचने समझने की शक्ति को सतही बना रहे हैं. अभी आपको मेरी यह बात अहंकारी लग सकती है मगर मैंने इस बीमारी को पकड़ लिया है. आप ग़ौर से सोचिए. ख़ुद भी हिन्दी के अख़बारों की ख़बरों को दोबारा- तिबारा पढ़ कर देखिए. आपको पता चल जाएगा. हिन्दी में एक वेबसाइट है mediavigil, आप इसे लगातार देखिए आपको मीडिया के बारे में हिन्दी में बहुत कुछ पता चलेगा. मीडिया को समझने का मौक़ा मिलेगा.
हिन्दी का पाठक अच्छा पाठक तभी बनेगा जब वह हिन्दी के अख़बारों के कूड़ेदान से आज़ाद होगा. मैं चाहता हूं कि मोहल्ला स्तर पर अख़बार बंद या अख़बार बदल का आंदोलन चले. अव्वल तो आप गोदी मीडिया के इन अख़बारों को ही बंद कर दें या फिर एकदम से मुश्किल है तो पांचवें छठे नंबर का अख़बार ले लें. कोई भी अख़बार दो महीना से ज़्यादा न लें. एक पाठक और ग्राहक की ताक़त का अंदाज़ा अख़बार वालों को लग जाएगा. आलस्य छोड़िए. हॉकर से कहिए कल से चौथे नंबर का अख़बार दे जाएं.
हिन्दी ने ही मुझे सब दिया है. इसलिए एक ज़िद है कि हिन्दी में गुणवत्ता का विस्तार हो और उसका बोलबाला हो. आपमें बहुत क्षमता है. बस आप ये न समझें कि चैनल देखना अख़बार पढ़ना ही सब कुछ जानना है. वो दरअसल अब ‘नहीं जानने’ का माध्यम बन चुका है. इसलिए आप अच्छी चीज़ें पढ़ने से पीछे न रहें. दम साध कर पढ़िए. आप आगे बढ़ेंगे. मेरा एक ही नारा है. हिन्दी का पाठक, सबसे अच्छा पाठक.
हंस का अंकागमन हो चुका है. आप आज ही ख़रीद लीजिए.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
This Article is From Aug 31, 2018
हिंदी का पाठक जब बनेगा सबसे अच्छा पाठक
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
-
Updated:अगस्त 31, 2018 01:57 am IST
-
Published On अगस्त 31, 2018 01:57 am IST
-
Last Updated On अगस्त 31, 2018 01:57 am IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं