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This Article is From Sep 01, 2016

जब खबरिया चैनल अश्लील सीडी से खेलने लगे...

Sanjay Kishore
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 01, 2016 19:24 pm IST
    • Published On सितंबर 01, 2016 19:05 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 01, 2016 19:24 pm IST
आज सुबह फिर छोटे नवाब से बहस हो गई. "फिर तुम स्पोर्ट्स चैनल लगाकर बैठ गए? अखबार तो तुम लोग वैसे भी नहीं पढ़ते हो, सुबह-सुबह कम से कम न्यूज़ चैनल देख लिया करो. तुम्हारे चाचा और मेरे बीच पहले अखबार पढ़ने के लिए लड़ाई तक हो जाती थी." स्कूल जाने के पहले हर रोज का किस्सा है. आंखें खुलते ही सबसे पहले रिमोट पर कब्जा हो जाता है. टीवी ऑन होता है और स्पोर्ट्स चैनल लग जाता है. चाहे लाइव हो या रिकॉर्डेड, फर्क नहीं पड़ता.

"आपके जमाने में स्पोर्ट्स चैनल कहां थे? आपका स्कूल 10 बजे से होता था. हमारा 8 बजे से. हमारे पास न्यूज़ पेपर पढ़ने का समय नहीं होता. हम स्कूल में पेपर पढ़ लेते हैं, " तपाक से जवाब मिला. "वैसे भी मोबाइल पर हेडलाइंस देख चुका हूं," यह बड़े साहबजादे थे. "बिना स्पोर्ट्स चैनल देखे दूध नहीं पी सकते. खाना नहीं खा सकते." मेरी खीज बढ़ रही थी. जैसे ही छोटे नवाब ब्रश करने के लिए उठे, मैंने रिमोट झपट कर न्यूज़ चैनल लगा दिया.

अब घबराने की बारी मेरी थी. अल-सुबह घड़ों पानी पड़ गया. शुक्र है कि सर्दियां अभी शुरू नहीं हुई हैं. "गलती से पोर्न चैनल तो नहीं चला दिया टाटा स्काई वालों ने!" जल्दी से चैनल बदला लेकिन अमूमन हर न्यूज़ चैनल पर एक स्थूलकाय अर्धनग्न शख्स नजर आ रहा था. किसी तस्वीर में एक लड़की को बाहों में भर रहा था तो किसी में चुंबन ले रहा था. लड़की की पहचान छुपाने के लिए उसका चेहरा 'ब्लर' या "मोजायक" तो किया गया था लेकिन छुपने से ज्यादा चीजें दीख रहीं थी. समूची नग्नता से ज्यादा उत्तेजना अर्ध नग्नता से पैदा होती है. खबरिया चैनलों की कोशिश यही थी. वैसे तो अब फिल्मों में नग्नता बिकनी कम हो गई हैं. सौ करोड़ क्लब में पारिवारिक किस्म की फिल्मों की ही एंट्री हो पाती है. सेक्स का बाजार है; लेकिन यह समझने की जरुरत है कि इंटरनेट इसके लिए बेहतर माध्यम है जहां आपकी गोपनीयता भी बनी रहती है.

छोटे नवाब ने अजीब नज़रों से मुझे घूरा और चले गए वाशरुम की तरफ. जाते-जाते मानों पूछ रहे थे-क्या यही सब देखने के लिए न्यूज़ देखूं? चौथी क्लास में हैं. फिल्म में ऐसा-वैसा दृश्य देखकर हल्की मुस्कान के साथ नज़रें चुराने लगे हैं. बड़ा वाला किशोर हो चुका है. वह ऐसी स्थिति में झेंप के साथ पढ़ाई या इधर-उधर की बातें करने लगता है.

आज मुझे लगा कि शायद मैं गलत हूं. सुबह-सुबह वैसे भी ज्यादातर खबरें हत्या-बलात्कार जैसे अपराध की होती हैं या फिर दुर्घटना की. विकास और सकारात्मकता अब खबर कहां बन पाते हैं. रिकॉर्डेड ही सही लेकिन स्पोर्ट्स चैनल, न्यूज़ चैनल से कहीं बेहतर हैं, खासकर बच्चों के लिए.

टीवी चैनल्स पर दिखने वाला अर्धनग्न शख्स संदीप कुमार था दिल्ली का महिला और शिशु कल्याण मंत्री जो अब पूर्व हो चुका है. उसकी सेक्स सीडी खबरिया चैनल वालों के लिए टीआरपी की चाबी बन गई थी. टेलीविजन की चलताऊ भाषा में एक शब्द है "खेलना". कुछ-कुछ सोशल मीडिया की दुनिया के शब्द "वायरल" से मिलता-जुलता. हर चैनल लगे सीडी की अश्लील तस्वीर से "खेलने", उसे अपनी-अपनी वेब साइटों पर "वायरल" करने. सभी के पास "एक्सक्लूसिव" फुटेज थे. एक तो इस "एक्सक्लूसिव" और "ब्रेकिंग न्यूज़" के साथ जितना व्यभिचार न्यूज़ चैनल वाले कर रहे हैं उससे यह शब्द अपने वजूद को कोस रहे होंगे. हर चैनल के पास एक ही तस्वीर... फिर भी "एक्सक्लूसिव"!

बहरहाल, सवाल है कि क्या ऐसे अश्लील दृश्य दिखलाने की इजाजत मिलनी चाहिए? न्यूज़ चैनल का स्वरूप पारिवारिक होता है. परिवार एक साथ बैठकर बेडरूम सीन कैसे देख सकता है? यह विकसित देशों में भी नहीं होता भाई! इतने संस्कार की इज्जत को पाश्चात्य सभ्यता में भी है. बात खबर रोकने की नहीं है. ऐतराज खबर को दिखलाने के तरीके पर है. कभी गौर किया है आपने कि पश्चिमी देशों में बम ब्लास्ट या किसी दुर्घटना की खबर में आपको खून नहीं दिखाई देगा. लाश की तस्वीर का क्लोज़ अप नहीं होता.

सत्ता के साथ अहंकार आता है. अहंकार सबसे पहले विवेक को हर लेता है. भोग और विलासिता अक्सर सत्ता के संगी होते हैं. "आप" के संदीप कुमार दलित कार्ड खेलकर भी खोई हुई साख वापस नहीं पा सकते. साख नहीं भी लौट पाए तो क्या यह नहीं कह सकते कि उनका राजनैतिक करियर खत्म हो गया. राजनीति में ऐसे "फ़ीनिक्स" की भरमार है.

सेक्स के जरिए राजनीति की बिसात पर शह और मात का खेल पहले भी खेला गया है. सन 1977 में अपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की बुरी तरह पराजय हुई. मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार में जगजीवन राम उप प्रधानमंत्री बने. सूर्या पत्रिका में जगजीवन राम के बेटे सुरेश राम की एक लड़की के साथ नग्न तस्वीरें छपीं. इस पत्रिका की संपादिका थी इंदिरा गांधी की बहू मेनका गांधी. जनता पार्टी में दो फाड़ हो गए. सरकार गिर गई. इंदिरा गांधी की मदद से चरण सिंह प्रधानमंत्री बन गए.

लेकिन आमतौर पर भारतीय राजनीति में निजी जिंदगी को पर्दे के पीछे रखने की परंपरा रही है. कई नेता हैं जिनकी एक से ज्यादा पत्नियां हैं. कई के कई प्यार हैं. कई की अय्याशियां हैं. कई के विवाहेत्तर संबंध हैं. लेकिन राजनैतिक विरोधी भी इन पर आम तौर पर खामोशी ओढ़े रहते हैं. लोकतंत्र के चौथे खंबे प्रेस से भी इस मसले पर देश की राजनीति का एक अघोषित समझौता रहा है.

मगर अब "आप" के संदीप कुमार की घटना के बाद नैतिकता से जुड़ा एक बड़ा सवाल है कि क्या भारतीय राजनीति में अपनी प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने की लड़ाई बेडरूम तक पहुंच गई है?

संजय किशोर एनडीटीवी के खेल विभाग में एसोसिएट एडिटर हैं...

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