सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिकता को अपराध मानने के खिलाफ क्यूरेटिव पिटीशंस को 5 सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपे जाने के मामले में सरकार और राजनीतिक दलों का दोहरा खेल उजागर हुआ है। तत्कालीन यूपीए सरकार ने 2008 में दिल्ली हाईकोर्ट में एफिडेविट में कहा था कि समलैंगिकता बीमारी होने के साथ अनैतिक भी है पर अब पी. चिदम्बरम और कपिल सिब्बल समलैंगिकता की वकालत कर रहे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा समलैंगिकता के पक्ष में निर्णय को संघ परिवार के लोगों द्वारा 2009 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी थी और अब भाजपा सरकार के मंत्री अरुण जेटली की लामबंदी के बावजूद सुप्रीम कोर्ट में सरकारी वकील खामोश हैं।
दिलचस्प बात यह है कि क्यूरेटिव पिटीशन दायर करने के लिए तीन सीनियर एडवोकेट द्वारा दिए गए सर्टिफिकेट में मुकुल रोहतगी की अनुशंसा भी शामिल है जो मोदी सरकार में एटार्नी जनरल और सर्वोच्च लॉ आफिसर हैं। केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू के समलैंगिकता पर सतर्क बयान के बावजूद सरकार को अब स्पष्ट निर्णय लेना ही पड़ेगा और संघ परिवार के दबाव में यदि इस मामले का विरोध किया गया तो एटार्नी जनरल को बहस से अलग रखना पड़ेगा जिससे बड़ा संवैधानिक संकट भी पैदा हो सकता है।
क्यूरेटिव पिटीशन रुपा अशोक हुरा मामले में संविधान की धारा 142 की व्याख्या से उपजी नई कानूनी व्यवस्था है जिसका फैसला पहले जजों के चैम्बर में होता था और अब खुली अदालत में बहस से फैसला होगा। संविधान पीठ अब यह निर्धारित करेगी कि क्या 2013 में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से न्यायिक विधि व्यवस्था पर कोई संकट है और क्या उस आदेश को पारित करने में नेचुरल जस्टिस के नियमों का उल्लघंन हुआ था। इसमें यह भी देखा जायेगा कि पूर्ववर्ती जज इस मामले में किसी प्रकार का कोई व्यक्तिगत दुराग्रह तो नहीं रखते थे। समलैंगिकता के समर्थकों द्वारा यह कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2012 में ऑर्डर रिजर्व किया था और दिसंबर 2013 में फैसला दिया जो सीपीसी के कानून का उल्लंघन है जिसके अनुसार सुनवाई खत्म होने के 2 महीने के भीतर निर्णय दिया जाना चाहिए। यदि इस मापदंड से देखा जाये तो समलैंगिकता के पक्ष में दिल्ली हाई कोर्ट का निर्णय भी चुनौती के दायरे में आ जायेगा जहां 7 नवंबर 2008 को निर्णय सुरक्षित रखने के बाद जुलाई 2009 में आदेश पारित किया गया था।
दुनिया के 75 से अधिक देशों में समलैंगिकता गैरकानूनी है और इससे एड्स के खतरों की आशंका व्यक्त की जाती है। 42वें विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में समलैंगिकता के खिलाफ सख्त टिप्पणी करते हुए इसमें बदलाव से इंकार किया था। भारत में एक बड़ा तबका समलैंगिकता को प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ मानते हुए इसे पश्चिमी बाजार द्वारा पैदा की गई बीमारी मानता है। परन्तु समर्थक वर्ग इसे निजी आजादी से जोड़कर बेडरूम में कानून की तांकझांक के खिलाफ अपना अभियान चला रहा है। 156 वर्ष पुरानी आईपीसी की धारा 377 को बदलते समाज के अनुरूप बदलना ही चाहिए पर उसकी जवाबदेही लेने से नेता इनकार क्यों कर रहे हैं ? सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के मूल निर्णय में कहा था कि समलैंगिकता के कानून में बदलाव करना संसद की जिम्मेदारी है। दिल्ली का राजतंत्र महानगरीय मीडिया के दबाव से निर्णय लेने की बाध्यता के बावजूद जमीनी हकीकत से दुराव के वजह से उन्हें अंजाम तक नहीं पंहुचा पाता, जैसा कांग्रेसी नेता शशि थरूर द्वारा दिसंबर 2015 में समलैंगिकता के पक्ष में पेश प्राइवेट बिल की 71-24 बहुमत की विफलता में देखा गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस विषय पर निर्णय संसदीय सर्वोच्चता में हस्तक्षेप ही होगा जैसा केंद्र सरकार ने अपने 2008 के हलफनामे में कहा था।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार समलैंगिकता के आरोप में अभी तक सिर्फ 200 लोगों के खिलाफ ही आपराधिक कार्यवाही हुई है परंतु कई अन्य ब्रिटिशकालीन कानूनों के दुरुपयोग से देश की बड़ी आबादी त्रस्त है। दो वयस्क स्त्री-पुरुषों के बीच संबंध को देह व्यापार के नाम पर रोकने का कानून क्यों होना चाहिए? किसी पुरुष द्वारा विवाहित महिला से स्वेच्छा से स्थापित संबंधों को व्यभिचार के तहत अपराध क्यों मानना चाहिए? माननीय सांसद जनता के लिए नए कानून बना सकें और पुराने कानूनों को खत्म कर सकें, इसके लिए संसदीय व्यवस्था में देश तीस हजार करोड़ रुपये से अधिक खर्च करता है। इन कामों को करने की बजाय संसद के सत्र हंगामे की भेंट चढ़ जाते हैं जहां सांसदों के वेतन और पेंशन बढ़ने के कानून जरूर पास हो जाते हैं। न्यायिक सक्रियता और मुकदमों के बढ़ते बोझ पर उंगली उठाने वाले राजनेताओं के पास, समलैंगिकता के बहाने संसद द्वारा आपराधिक कानूनों में आमूलचूल बदलाव का बड़ा अवसर है जिससे संसदीय व्यवस्था की शान भी बहाल हो सकेगी।
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और टैक्स मामलों के विशेषज्ञ हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
This Article is From Feb 04, 2016
समलैंगिकता पर बहस से उपजा संवैधानिक संकट
Virag Gupta
- ब्लॉग,
-
Updated:फ़रवरी 04, 2016 17:48 pm IST
-
Published On फ़रवरी 04, 2016 16:04 pm IST
-
Last Updated On फ़रवरी 04, 2016 17:48 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं
समलैंगिकता, संविधान पीठ, सुप्रीम कोर्ट, क्यूरेटिव पिटीशंस, Supreme Court, Homosexuality, Curative Petition., Constitutional Bench