नए साल में कहीं 'फीलगुड' की हवा न निकाल दे बुंदेलखंड

नए साल में कहीं 'फीलगुड' की हवा न निकाल दे बुंदेलखंड

प्रतीकात्‍मक फोटो

मुश्किल हालात से जूझ रहा देश नए साल का जश्न मनाकर जाग गया है। लेकिन देश के सामने  पिछले साल के इतने सारे काम अधूरे पड़े हैं कि नया करने की तो वह सोच ही नहीं सकता। हां, नए संकटों से निपटने की बात उसे जरूर सोचनी पड़ेगी।

गए साल के आखिरी हफ्ते की खबरें बता रही हैं कि सूखे की मार और उससे निपटने का इंतजाम न हो पाने के कारण देश बड़े हादसे की कगार पर है। खासतौर पर बुंदेलखंड के हालात बता रहे हैं कि केंद्र सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती सूखे से बेहाल बुंदेलखंड की बनने वाली है। यह देश का वह इलाका है जहां डेढ़ करोड़ से ज्यादा किसान आबादी इस बार खेतों में बुआई तक नहीं कर पाई।

मरणासन्न हालत में पहुंचे तेरह जिले
बुंदेलखंड की करुण और दारुण स्थिति बयान की हद के बाहर है। कुएं और तालाब अभी से सूख चले हैं। भूजल स्तर नीचे चले जाने से बोरवैल भी जवाब दे रहे हैं। थोड़े से इलाके के लिए, जहां बांध और नहरें हैं, वहां बांध आधे भी नहीं भर पाए। मानसून के बाद की फसल बोने के लिए इस साल खेतों में न्यूनतम नमी भी नहीं थी। किसानों ने रात को 12 बजे के बाद ओस के सहारे बुआई तक की कोशिश की। हार-थककर अपने बीज बचाने के लिए उन्हें अपने खेतों को खाली छोड़ना पड़ा। कर्ज से लदे बेबस किसानों को आत्महत्या के अलावा और कोई चारा नहीं दिखता।

आजादी के बाद ऐसे हालात पहली बार
आजादी के बाद के इतिहास में यह पहली बार है कि बुंदेलखंड के गांव के लोग घर छोड़कर भागने की हालत तक में नहीं दिखते। भागकर शहरों में जाने लायक किराया और अनाज तक उनके पास नहीं बचा। जो लोग भागकर शहरों में गए थे वे भी वहां काम न मिलने से परेशान होकर वापस आ रहे हैं। बुंदेलखंड की डेढ़ करोड़ से ज्यादा किसान आबादी इस दुविधा में है कि दो तीन महीने बाद उनका क्या होगा?

आंखें मूंदने के अलावा क्या कोई चारा नहीं?  
बुंदेलखंड के लिए तीन साल पहले सामाजिक स्तर पर सोच-विचार के व्यवस्थित उपक्रम किए गए थे। जल विशेषज्ञों, प्रबंधन प्रौद्योगिकी के प्रशिक्षित युवाओं, स्वयंसेवी संस्थाओं और प्रदेश और केंद्र सरकार के सक्षम पदाधिकारियों ने मिल-बैठकर समाधान ढ़ूंढने की  कवायद की थी। रिवाइवल ऑफ बुंदेलखंड की थीम पर उस सोचविचार में यह निकलकर आया था कि बुंदेलखंड की त्रासदी का सबसे बड़ा कारण छीजता चला जा रहा जल प्रबंधन है। यह निष्कर्ष अंग्रेजों के समय से लेकर पिछली यूपीए सरकार के कार्यकाल तक की तमाम कोशिशों को गौर से देखने के बाद निकलकर आया था। यह सिफारिश की गई थी कि अब तक तो जैसे-तैसे काम चल गया लेकिन आने वाले दिनों में भयावह संकट का अंदेशा है और फौरन पानी के इंतजाम की जरूरत है।

समस्या का आकार पहाड़ सा
सोचविचार के बाद निष्कर्ष में यह भी दर्ज किया गया था कि बुंदेलखंड की समस्या का प्रकार देश के दूसरे इलाकों से अलग है। साथ ही समस्या का आकार अनुमान से कई-कई गुना बड़ा है। इसी विचार-विमर्श में हिसाब लगाया गया था कि 13 जिलों के कम से कम 7800 पुराने तालाबों को रिवाइव करने यानी पुनर्निर्माण के लिए कम से कम  साढ़े 15 हजार करोड़ रुपए का खर्चा आएगा। यह तो आजादी के तीस साल बाद तक की स्थिति का आकलन है। अगर तब के बाद यानी अस्सी के दशक के बाद बढ़ी आबादी को जोड़ें तो जनसंख्या दुगनी हो गई है। इतने बड़े आधारभूत ढांचे पर पचास हजार करोड़ का खर्चा होने का अंदाजा लगाया गया था। तेरह जिलों में उद्योग धंधे पनपाने के लिए कम से कम 35 हजार करोड़ की अलग से जरूरत बताई गई थी। यानी आज बुंदेलखंड को बचाने के लिए कम से कम एक लाख करोड़ रुपए की दरकार है। और अगर जान बचाने के लिए राहत सोचें तो कम से कम 50 हजार करोड़ की फौरी मदद चाहिए।

सत्तर के दशक की पाठा पेयजल परियोजना की याद आई
अपने समय में एशिया की सबसे बड़ी जल परियोजना के नाम से मशहूर पाठा पेयजल परियोजना के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को विश्व बैक से भारी कर्ज लेना पड़ा था। बहरहाल उस समय के जल निगम यानी एलएसजीईडी के इंजीनियर याद करके बताते है कि पाठा पेयजल परियोजना के निर्माण के समय बुंदेलखंड में राष्ट्रीय स्तर का रोजगार मेला जैसा लग गया था। इस परियोजना के जरिए मानिकपुर के दूरदराज इलाके में बसे आदिवासियों के लिए भी पीने के पानी का इंजजाम कराया गया था।

इस समय प्रदेश बनाम केंद सरकार का चक्कर
केंद्र में पिछली यूपीए सरकार के दौरान बुंदेलखंड को सात हजार करोड़ का स्पेशल पैकेज दिया जाना कितना भी राजनीतिक विवादों में रहा हो, और भले ही बुंदेलखंड में यूपीए को 2014 के चुनाव में उसका कोई भी चुनावी प्रतिफल न मिला हो, यहां तक कि केंद्र में ग्रामीण विकास राज्यमंत्री प्रदीप आदित्य तक लोकसभा चुनाव हार गए हों, लेकिन आज हमें मानवता के लिहाज से देखना पडेगा कि देश के इस बड़े भूखंड को करुण स्थिति से उबारा कैसे जा सकता है। यहीं पर केंद्र और उप्र सरकार की जिम्मेदारियों की बात आती है।

सात जिले यूपी में छह एमपी में
बुंदेलखंड के तेरह जिलों में सात उप्र में और छह मप्र में आते हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उप्र की माली हालत उजागर है। उधर आर्थिक वृद्धि दर में सरपट दौड़ने का दावा करने वाला मप्र एक बार को सोच भी सकता है कि अपने हिस्से के बुंदेलखंड के लिए दो पांच हजार करोड़ निकाल ले। लेकिन भारी भरकम आकांर का उत्तर प्रदेश तो अपनी चालू परियोजनाओं के लिए भी पैसे के इंतजाम के लिए कर्ज और केंद्र की मदद की गुहार लगा रहा है। यानी मौजूदा बेबसी के आलम में हमेशा की तरह सिर्फ केद्र सरकार से ही उम्मीद लगाई जाएगी। वैसे भी उसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए देश में अच्छे माहौल का प्रचार करना है। लिहाजा बुंदेलखंड में अकाल जैसे हालात की खबरों के बीच वह विदेशी निवेशकों को कैसे समझा पाएगा कि अपने पैसे लेकर हमारे यहां आइए।  

बुंदेलखंड के लिए एक लाख करोड़ का इंतजाम कैसे हो?
थोड़ी देर के लिए मानकर चलें कि मौजूदा केंद्र सरकार के लिए अपने घोषित हाईवे विकास, स्किल डेवलपमेंट, स्टैंड अप, स्टार्ट अप, बुलेट टेन, स्मार्ट सिटी, जैसे कार्यक्रमों से पैसा काटकर बुंदेलखंड को देने की स्थिति नहीं है। बेशक दो करोड़ की आबादी का दुख कम करने का काम बहुत बड़ा है। लेकिन जिस तरह से बुंदेलखंड में दारुण हाहाकार मचा है, 2016 में उसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकेगी। आने वाले तीन-चार महीनों में वहां बड़े भारी उथलपुथल का अंदेशा है। और तब मजबूरन भारत सरकार को अपना टैंट बुंदेलखंड में लगाना पड़ सकता है। मजबूरन उसे विश्वबैंक, सेठ देशों के राष्ट्राध्यक्षों और देश के बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों को बुंदेलखंड की हालत दिखाकर मदद मांगना पड़ सकती है। इतना तय है कि जिसे भी एकबार बुंदेलखंड ले जाकर किसानों और खेतिहर मजदूरों की हालत दिखा दी जाए, वह कितना भी पत्थर हो उसका दिल पिघलकर बहने ही लगेगा।

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