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This Article is From Dec 14, 2015

रवीश रंजन : गोरक्षा जैसे मुद्दों पर बहस के बजाय देसी गाय की नस्ल सुधारने पर ध्‍यान देना होगा

written by Ravish ranjan shukla
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 23, 2015 13:42 pm IST
    • Published On दिसंबर 14, 2015 15:46 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 23, 2015 13:42 pm IST
लेखक का औसत दर्जे के किसान परिवार से ताल्लुक होने के कारण खेत, खलिहान और पशुओं से स्वाभाविक रिश्ता है। पिछले छह महीने से गोरक्षा और गोहत्या जैसी कई बहस और गाय पर हो रही राजनीति से अलग हमें लगा कि बदलते जमाने के हिसाब से गाय को देखने का नजरिया भी बदला जाए। इसी के चलते मैं और मेरा दोस्त देवा एक अत्याधुनिक गाय की डेयरी को देखने और समझने के लिए गाजियाबाद चल पड़े। दिल्ली से करीब 50 किमी दूर पीले सरसों के फूल और मेथी के खेतों के बीच से होते हुए हम कुशली गांव की एक डेयरी में पहुंचे।

करीब 4000 वर्गमीटर में फैले इस डेयरी में 110 जानवर हैं, जिसमें ज्यादातर साहीवाल और गिरी नस्ल की गायें हैं। यहां हमारी मुलाकात लोहे के कारोबार से डेयरी उद्योग से जुड़े अनिल गुप्ता से हुई। कभी शौकिया तौर पर फैक्ट्री में एक गाय पाली थी। लेकिन उसके बाद गाय को लेकर दिलचस्पी इस तरह बढ़ी कि करीब चार से पांच करोड़ रुपए का निवेश करके आज वे  डेयरी चला रहे हैं। डेयरी में तीन सौ लीटर दूध का उत्पादन रोज़ाना होता है। दूध को ठंडा रखने का एक प्लांट लगा है। इस प्लांट को बिजली देने के लिए जनसेट रखा है। अत्याधुनिक तरीके से गाय को दुहनें की मशीन लगी है। हर तीसरे दिन वेटरनरी डॉक्टर आकर गाय देखते हैं।

करीब 12 लोगों की टीम
इस डेयरी में मैनेजर समेत करीब 12 लोगों की एक टीम है, जो दिन-रात गायों की देखभाल में जुटी रहती है। यही नहीं, इन गायों के करीब दो दर्जन से ज्यादा बछड़े और बछड़ी भी हमें स्वस्थ्य दिखे। जो आमतौर पर डेयरी में गाय से ज्यादा दूध लेने के एवज में कमजोर ही दिखते हैं। यहां गाय को खिलाने की एक पौष्टिक घास साइलेज की हमें जानकारी मिली। करीब साढ़े छह रुपए किलो के हिसाब से इस घास को मंगाया जाता है जिससे गायों में दूध की उत्पादकता बढ़ती है। दरअसल ये साइलेज एक तरह की घास होती है जिसे फरमंटेशन करके बनाया जाता है। इसकी महक अचार की तरह होती है। जब हरे चारे की उपलब्धता कम होती है तो इसे गायों को दिया जाता है। लेकिन इन सबके बावजूद ये डेयरी दो लाख रुपए महीने के घाटे में चल रही है।

घाटे की वजह ए-2 दूध  ...
आप सोच रहे होंगे ये ए-2 दूध क्या है और इसकी वजह से घाटा कैसे लग रहा है। भारत में ए-1 और ए-2 दो तरह के दूध है। ए-2 दूध जो हमारी देसी नस्लों की गाय का दूध है जो पौष्टिकता के मामले में ए-1 नस्ल की गाय के दूध से कहीं ज्यादा होता है। लेकिन ए-2 दूध देने वाली देसी नस्ल साही वाल और गिरी गाये जहां एक दिन में 15 से 20 लीटर दूध देती है। वहीं ए-1 दूध देने वाली फ्रेजेन और जर्सी गायों का दूध देने का औसत दिन में 25 से 40 लीटर तक है। यही वजह है कि जहां अनिल गुप्ता जैसे डेयरी चलाने वालों का दूध 50 से 60 रुपए लीटर होता है। वहीं बाजार में दूध 30 से 40 रुपए लीटर में बिक रहा होता है।

लेकिन इस सबके बावजूद अनिल गुप्ता कहते हैं कि डेयरी के काम में 3 साल तक आपको बहुत लाभ की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। वे उत्साहित होकर कहते हैं कि पंजाब के किसानों के पास कम संख्या की बेहतरीन नस्ल की गाय हैं जिससे वे कम लागत में अच्छी कमाई कर रहे हैं। हम उसी तर्ज पर अपनी गायों की संख्या सीमित रखकर उनकी नस्ल में लगातार सुधार करने की कोशिश में जुटे हैं। आने वाले दिनों में हम इस डेयरी से अच्छी कमाई करेंगे।

मुनाफे की कुंजी पंजाब के हाथ में है
दूध उत्पादन में सफलता के नए मुकाम को पंजाब के प्रोग्रेसिव डेयरी फारमर्स ने छुआ है। डेयरी उद्योग से जुड़े वली खान बताते हैं कि पंजाब में आठ हजार किसानों की इस ताकतवर संस्था को पंजाब सरकार ने तकनीकी जानकारी से लेकर कई अत्याधुनिक साजो समान भी मुफ्त या बेहद कम दाम पर दिए हैं। जिसके चलते आज इन किसानों के पास अच्छी नस्ल की गायें हैं और दूध को बाजार तक पहुंचाने की एक पेशेवर संस्था है। जबकि उप्र सरकार कामधेनु योजना के तहत 36 लाख से लेकर एक करोड़ रुपए बिना ब्याज के लोन तो दे रही है लेकिन यहां के किसानों को तकनीकी रूप से होशियार बनाने की कोई कोशिश नहीं हो रही है। यही वजह है कि उप्र में दूध के कारोबार से पेशेवर लोग नहीं, बल्कि वे किसान जुड़े हैं जो खेती के साथ दूध को साइड बिजनेस के रूप में देखते हैं। उप्र में पराग नाम की सहकारी संस्था भी गैर पेशेवर लोगों के हाथ में सौंपे जाने से डेयरी से जुड़े किसानों को इसका ज्यादा लाभ नहीं मिल पा रहा है।   

हालांकि आपको दिल्ली से लेकर कई जगहों पर सफल डेयरी के कई ऐसे मॉडल भी दिख जाएंगे जो गाय से दूध निकालकर उन्हें कूड़े के ढेर पर गंदगी खाने के लिए छोड़ देते हैं। बाजार में इस तरह के टॉक्सिक दूध की भी कमी नहीं है। लेकिन हमें गोरक्षा और बीफ जैसे मुद्दों पर अर्थहीन बहस के बजाए अपनी देसी गाय की नस्ल को सुधारने और अच्छी देखभाल करके सफल डेयरी चलाने पर ध्यान देना होगा। तभी आने वाली पीढ़ी गाय के महत्व को पौष्टिक दूध के जरिए ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकेगी।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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