पिछले कुछ वर्षों में हमारे जलवायु परिवर्तन चक्र में बड़ा बदलाव देखने को मिला है. यह एक ऐसा तथ्य है, जिसके साथ हम जी रहे हैं. भारत के ज्यादातर इलाकों में असहनीय गर्मी के महीनों, सर्दियों में कड़ाके की ठंड और मानसून में भारी बारिश अब नया पैमाना बन गई है. हर बार ये नए रिकॉर्ड बना रहे हैं. इसके बावजूद हममे से कुछ लोग अभी तक यह महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन सिर्फ ध्रुवीय इलाकों में बर्फ के पिघलने या ग्लेशियरों के सिकुड़ने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारी दहलीज तक दस्तक दे चुका है.
असल में सवाल है :क्या हम जलवायु परिवर्तन को रोक सकते हैं?
हालांकि क्लाइमेट चेंज का एजेंडा दुनिया भर में गति पकड़ रहा है और दुनिया में बहुत सारे देशों ने महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए हैं और कुछ देश इस दिशा में काम कर भी रहे हैं. लेकिन इंसानी आबादी में से ज्यादातर का मानना है कि प्रकृति अपने आप ही अपने घावों को भर लेगी और हम अपनी उन दैनिक गतिविधियों को बदस्तूर जारी रख सकेंगे जो बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जित (carbon footprints) करती हैं.
यद्यपि हम इसे प्रकृति को पहुंचे नुकसान की भरपाई और पृथ्वी को उसकी प्राकृतिक सुंदरता लौटाने को इसे आखिरी दशक का अवसर मान रहे हैं, मेरा निजी यकीन है कि इस काम के लिए अपने आपको को एक दशक देना, इतनी ज्यादा मोहलत देना एक खिलवाड़ जैसा है.
बड़ा सवाल है: पृथ्वी को बचाने के लिए हम किस हद तक जाने को तैयार हैं. ऐसा क्या होगा, जिससे हमें अहसास हो सके कि जलवायु परिवर्तन किस कदर अपने इकोसिस्टम और इकोनॉमी को नुकसान पहुंचा रहा है.
कोल्हलापुर में बचाव अभियान के दौरान एनडीआरएफ की एक टीम
वर्ष 2019 में ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग से अरबों डॉलर का नुकसान हुआ था. इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सैकड़ों मौतें हुईं, हजारों बेघर या प्रभावित हुए और लाखों हेक्टेयर का जंगल राख में तब्दील हो गया. अमेरिका पिछले एक साल में अब तक 9 जुलाई तक एक सूखा, दो बाढ़ की घटनाएं, चार भयानक तूफान और एक भयंकर बर्फीले तूफान का सामना कर चुका है. इसके अलावा देश के कई हिस्सों में जंगलों में आग लगने की बड़ी घटनाएं सामने आ चुकी हैं.
कनाडा पिछले चार सालों में एक ओर भयानक सर्दी (-60 डिग्री सेल्सियस) का सामना कर रहा है. वहीं दूसरी ओर गर्मियों में पारा 49.6 डिग्री तक छूने लगा है. इस साल अब तक जर्मनी, बेल्जियम, ब्रिटेन भारी बारिश, बाढ़, भूस्खलन की ऐसी घटनाओं को झेल चुके हैं, जिनकी तस्वीरें हम फिल्मों में देखते हैं.
जब हम यह सब पढ़ रहे हैं तब महाराष्ट्र पिछले कुछ सालों में भयानक जलवायु परिवर्तन संकट का सामना कर रहा है. मानसून का काल छोटा हो गया है, लेकिन इस दौरान बारिश का प्रकोप काफी बढ़ गया है. इतनी तेज बारिश कि इसे बादल फटने की एक छोटी घटना भी माना जा सकता है. हालांकि तेज गर्मी के दिनों का वक्त हर साल बरकरार है. इस दौरान हम तटीय क्षेत्रों में दो चक्रवाती तूफानों का सामना कर चुके हैं, महज 11 महीनों के अंतराल में ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ.
इसी हफ्ते कोल्हापुर, सांगली, सतारा, रायगड, रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग अप्रत्याशित तौर पर भारी बारिश का सामना कर रहे हैं, जिस कारण कई बड़े भूस्खलन (massive landslides) भी हुए हैं. कस्बे जलमग्न हो गए हैं, खेतों में फसल नष्ट हो गई है और कई लोग जिंदा दफन हो गए. इन जिलों में भारी बाढ़ के एक हफ्ता पहले मुंबई, ठाणे, पुणे में भी अप्रत्याशित स्तर पर बारिश देखने को मिली थी और इस कारण जलभराव और भूस्खलन की बड़ी घटनाएं हुई थीं.
महाराष्ट्र में एक हफ्ते से भी ज्यादा वक्त से रेड अलर्ट की स्थिति है. महाराष्ट्र में भूस्खलन की सभी घटनाओं में एक बात आम देखी गई कि कीचड़, पानी का तेज बहाव और मलबे का सैलाब भूस्खलन रोकने के लिए बनाई गई दीवारों को तोड़ता हुए आगे बढ़ा, ये प्रकृति का रौद्र रूप ही है. महाराष्ट्र के साथ केरल, गोवा, कर्नाटक, तेलंगाना, गुजरात भी तीव्र जलवायु परिवर्तन के बदलाव स्वरूप होने वाली घटनाएं झेल रहे हैं. दिल्ली और उत्तराखंड भी इस प्रकोप से नहीं बचे हैं.
अब यह वक्त की बात है कि हमने मान लिया है कि शहरों में बाढ़ जैसे हालातों के पीछे कमजोर होता बुनियादी ढांचा ही वजह नहीं है. हालांकि शहर अपने वाटर ड्रेनेज सिस्टम को बेहतर बना रहे हैं, पंपिंग स्टेशन लगा रहे हैं, लेकिन जिस तरह से कम वक्त में भारी बारिश का दौर देखने को मिला है, उसे संभालना किसी भी शहरी एजेंसी के बस के बात नहीं है.
ऋतुओं में बदलाव, मौसम संबंधी दुश्वारियां, अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाएं (natural disasters) पिछले एक दशक में सामान्य सी बात होकर रह गई हैं. भारत जैसे देश में न केवल ग्रामीण इलाके प्रभावित होंगे, बल्कि शहर भी. बड़े पैमाने पर पलायन होगा, क्योंकि हम शहरों और गांवों में प्राकृतिक आपदाओं के कारण सुरक्षित स्थानों की ओर रुख करेंगे. लेकिन अब कोई भी स्थान महफूज नहीं रह गया है. जीवन स्तर, रोजगार सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, पेयजल आपूर्ति समेत सभी आवश्यक चीजों पर हमारे देश में खतरा मंडरा रहा है. जहां मानसून को प्रायः असली वित्त मंत्री कहा जाता है.
जलवायु परिवर्तन से जुड़े पलायन और अनकूलन के तहत सरकारों औऱ प्रशासकों को हर फैसले को इस पैमाने पर आंकना चाहिए कि इससे कितना खतरा बढ़ेगा और इससे पर्यावरण (environment) के लिए आगे क्या संभावनाएं पैदा होंगी. नागरिकों के लिए यह सिर्फ एक गतिविधि या जीवनशैली में बदलाव के लिए वीकेंड एक्टिविटी तक सीमित नहीं होगा.
हालांकि हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि बिना विकास के भी कोई अच्छी खबर नहीं आ सकती. अक्षय ऊर्जा के विकास, चार्जिंग स्टेशन, इलेक्ट्रिक वाहन के विकास के बिना यह संभव नहीं है. हमें कार्बन उत्सर्जन कम करना होगा. पर्यावरण के अनुकूल ग्रीन बिल्डिंग्स के बिना हमारे सीवर बिना शोधित जल के समुद्र में गंदगी गिराते रहेंगे.
गर्मी पैदा करने के नए तरीकों, खाना पकाने की नई पद्धतियों के बिना हम लगातार आग जलाने के लिए लकड़ियां काटते रहेंगे. असली फोकस सस्टेनेबिलिटी या सतत विकास है. विकास और पर्यावरण एक दूसरे के पूरक बन सकते हैं, जब विकास सतत हो और पर्यावरण पर पड़ने प्रभाव के ईमानदारी पूर्ण आकलन पर केंद्रित हो.
भारत के लिए हमें एक राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन परिषद की जरूरत है, जिसकी अगुआई किसी और को नहीं बल्कि प्रधानमंत्री के पास हो. इसमें सभी वन मंत्री, पर्यावरण मंत्री और जलवायु परिवर्तन से जुड़े वैज्ञानिक हों. हालांकि प्रशासनिक तौर पर हम अलग-अलग राज्य हैं, लेकिन हम एक समान भविष्य को साझा करते हैं, फिर चाहे वो उम्मीद भरा हो या प्रलयंकारी. क्लाइमेट चेंज हम सभी को प्रभावित कर रहा है और इसलिए काउंसिल को उतनी ही अहमियत दी जानी चाहिए, जितनी कि हम जीएसटी काउंसिल ( GST Council) या नीति आयोग (NITI Aayog) को देते हैं.
मुझे पूरा यकीन है कि भारत जलवायु परिवर्तन के शमन और अनुकूलन में दुनिया भर की अगुवाई कर सकता है. हमारे वेदों में ही प्रकृति के पांच तत्वों की पूजा करने का मूल्य समाहित है. हमारे पिछली कुछ पीढ़ियों पहले ही हमने देखा है कि हमारे दादा-दादी टिकाऊ विकास से भरी जिंदगी जीते थे. न कि यूज एंड थ्रो की संस्कृति के वाहक थे. मौजूदा दौर में हमारे पास मौजूद वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की प्रतिभाएं निश्चित तौर पर जलवायु परिवर्तन के संकट का सामना करने के लिए नवोन्मेषी तकनीक का रास्ता खोज सकते हैं.
जब 130 करोड़ लोग आगे बढ़ेंगे तो दुनिया पर पड़ने वाला असर व्यापक होगा. हमें बस यह मान लेने की जरूरत है कि जलवायु परिवर्तन हमारी सोच से भी काफी तेज है और हम उसे और तेज करने का कारण बन रहे हैं.
( आदित्य ठाकरे-Aaditya Thackeray , महाराष्ट्र सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं. वो पर्यावरण, पर्यटन और प्रोटोकॉल का पोर्टफोलिया संभालते हैं. वो शिवसेना की यूथ विंग युवा सेना के भी प्रमुख हैं. )
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