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This Article is From Sep 10, 2015

सर्वप्रिया सांगवान : हम सब आहत हैं

Reported By Sarvapriya Sangwan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 10, 2015 21:19 pm IST
    • Published On सितंबर 10, 2015 21:14 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 10, 2015 21:19 pm IST
हर चोट का इलाज दुनिया में है लेकिन ये बार-बार छोटी छोटी बात पर आहत होने वाली भावनाओं वाली बीमारी लाइलाज है। देश अपने कमाने-खाने में व्यस्त है और राजनीति भावनाओं को बचाने में। उसके अलावा मुद्दा है ही क्या।

एक किस्सा है कर्नाटक राज्य का। 2012 में कर्नाटक के डिप्टी सीएम के.एस. ईश्वरप्पा गांधी जयंती के दिन मांसाहार करते पकड़े गए और कांग्रेस ने मौका भांप कर गवर्नर को याचिका दे दी कि ईश्वरप्पा को तुरंत बर्खास्त किया जाये क्योंकि उन्होंने गांधीवादी लोगों की भावनाएं आहत की हैं।

भावनाओं के कई प्रकार हैं। सिर्फ धर्म की वजह से नहीं, बल्कि पार्टी, नेता, इतिहास, जाति, विचारधारा, दर्शन, फिल्मों, किताबों और कभी-कभी यूंही आहत हो जाती हैं। फिलहाल महाराष्ट्र में सरकार के द्वारा जैन धर्म के धार्मिक त्यौहार पर्युषण के दौरान मीट पर बैन लगाये जाने के खिलाफ पूरे विपक्ष और उनके साथी दल शिवसेना ने भी मोर्चा संभाल लिया है। शिवसेना और मनसे वही दल हैं जो गौ-मांस पर प्रतिबन्ध लगाने को लेकर भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ी थी।

देखा जाये तो हिन्दू धर्म की भावनाओं का खयाल रखते हुए गौ-मांस बंद हो सकता है तो फिर जैन धर्म के लोगों की भावनाओं के सम्मान में 4 दिन का मीट बैन तो न्यायोचित है। प्रतिबन्ध की समय सीमा भी दोनों धर्मों के लोगों की संख्या के अनुपातिक लगती है। अगर भाजपा शासित महाराष्ट्र की सरकार ऐसा नहीं करती है तो फिर तो उस पर सिर्फ हिन्दुओं के तुष्टिकरण का आरोप लगना तय है। गणेश चतुर्थी पर भी महाराष्ट्र में एक दिन के लिए मीट पर बैन लगता ही है।

ये तो राजनीतिक न्याय की बात हुई। लेकिन देश के संविधान में साफ़-साफ़ लिखा है कि आप बिना किसी खौफ के अपने-अपने धर्म का पालन कर सकें।  वहां ये बिलकुल नहीं लिखा है कि आप पूरे देश से अपने धर्म का पालन करवाएं। इस देश में नास्तिकों का भी आपकी तरह एक अल्पसंख्यक समुदाय है। इसलिए किसी भी समाज के द्वारा सरकार से इस तरह के प्रतिबन्ध का अनुरोध करना सरासर गलत है।

महाराष्ट्र में ही नहीं, ये बैन कई और राज्यों में भी लगता रहा है। गुजरात में पिछले कई वर्षों से पर्युषण के दौरान ऐसा प्रतिबन्ध लगाया जाता रहा है। इसके खिलाफ 2008 में कुरैशी जमात ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी डाली थी लेकिन मार्कण्डेय काटजू और एच.के. सेमा की बेंच ने मुग़ल बादशाह अकबर की मिसाल देते हुए अपने फैसले में कहा कि अकबर भी हफ्ते में कुछ दिन अपनी हिन्दू पत्नी और शाकाहारी हिन्दुस्तानियों के सम्मान में शाकाहार का पालन करता था और इसलिए हमें भी दूसरे लोगों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।

बेशक भावनाओं का सम्मान करना चाहिए लेकिन उससे पहले भावनाओं पर एक किताब छप जानी चाहिए जिसे पढ़ कर हम और आप दूसरों की भावनाओं का सम्मान करना सीख जाएं। फिर तो कानून की किताब भी मोटी होते रहने से बच जाएगी। अगर भावनाओं पर ही कानून बनते तो आज आपका या मेरा लिखना भी मुनासिब नहीं होता।

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