दिल्ली की सड़कें, साइकिल की सवारी...

मेरी सोच कहती है कि छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखकर हम इस तेज़-रफ़्तार ज़िन्दगी में कुछ रफ़्तार हासिल कर सकते हैं, वरना वे दिन अब ज़्यादा दूर नहीं, हम सब साइकिल से सफर किया करेंगे...

उफ़ ये दिल्ली की सड़कें... गाड़ी पर चलते हुए अचानक आ गया सड़क पर गड्ढा... आप कहते हैं, अरे, यह कल तो नहीं था, रात-रात में कहां से बन गया... लेकिन अब बन गया तो बन गया, क्या कर सकते हैं, लेकिन आपकी गाड़ी का सत्यानाश कर गया... अब इस गड्ढे के लिए भी गाड़ी रोक-रोककर चलानी पड़ेगी... कोई बात नहीं यार, वैसे भी इस बढ़ते ट्रैफिक में ठीक-ठाक रफ़्तार से चलने की सोच ही कौन पाता है...

गाड़ी तो हम नए से नए मॉडल की ले लेते हैं, जिसकी रफ़्तार सबसे तेज़ हो, लेकिन कभी सोचा है - अपनी तेज़ रफ़्तार गाड़ी को इस शहर में कभी उसकी पूरी रफ़्तार से चला पाए हैं... जवाब है - नहीं... और यह एक ऐसा सपना है, जिसके इस जन्म में पूरा होने के आसार भी नहीं हैं, बशर्ते आप किसी गांव में जाकर बस जाएं, या शहर में कर्फ्यू लग जाए, और आपको सड़क पर गाड़ी चलाने की इजाज़त मिल जाए...

सुबह घर से ऑफिस और शाम को ऑफिस से घर आते-जाते रोज़ सोचता हूं, ऑफिस में ही एक कमरा मिल जाए... कम से कम 'तेल बचाओ आन्दोलन' या 'धन बचाओ आन्दोलन' का उम्मीदवार तो बन ही जाऊंगा... दिल्ली के बैंकों के लोन से दबे दिखावापसंद लोगों के हाथ में मनपसंद गाड़ियां तो आ गईं, लेकिन वे कभी सोचने की ज़रूरत महसूस नहीं करते कि कब इन्हे अच्छी रफ़्तार से चला पाएंगे...

इसका इलाज भी शायद हम लोगों के बस का नहीं है... या तो हम कुछ 'सुधर' जाएं और अपनी पसंदीदा गाड़ियों को कुछ आराम देकर सार्वजनिक सेवाओं का इस्तेमाल शुरू कर दें, या पूलिंग करें - यानि एक ही दिशा में जाने वाले मिल-जुलकर चलें, और आपस में बदल-बदलकर गाड़ियां लेकर आएं... मैंने एक दिन तय किया - कोई और करे न करे, मैं तो 'सुधरने' की कोशिश करूंगा... लेकिन पहले ही दिन सपना टूट गया... ऑफिस तो देर से पहुंचा ही, कपड़े भी फटवा बैठा... 60 सवारियों के लिए चलने वाली बस में 120 से ज़्यादा सवारियां लदी हुई थीं, और उससे कहीं ज़्यादा बस स्टैंड पर खड़ी थीं... दिल्ली परिवहन निगम की हरी और लाल बसें देखकर ख़्याल आया, सारी बसें ऐसी ही हो जाएं, और इनकी गिनती बढ़ जाए, तो कितना अच्छा हो, क्योंकि तब शायद मेट्रो और बस को तरजीह मिलनी शुरू हो जाए, इनका इस्तेमाल बढ़ जाए और सड़कों पर से गाड़ियां कुछ कम हो जाएं...

लेकिन दिल्ली की बढ़ती आबादी, और साथ-साथ बढ़ती ट्रैफिक समस्याओं को देखकर हाल ही में पढ़ी एक ख़बर के बाद पड़ोसी चीन को बधाई देने का मन करता है, जिसने एक ख़ास शहर में ट्रैफिक समस्या से निपटने के लिए सार्वजनिक बस सेवा में 20 गुना वृद्धि कर दी, और साथ ही मोटर साइकिल पर लगने वाले टैक्स को 20 गुना बढ़ा दिया... नतीजा - बस सेवा का इस्तेमाल बढ़ गया और दुर्घटनाओं में काफ़ी कमी आई... सरकार को नुकसान तो शर्तिया हुआ, लेकिन जनता का भला हुआ, सड़क सुरक्षा अपने-आप बढ़ गई...

हो सकता है, राष्ट्रमंडल खेलों से पहले दिल्ली में भी सड़क के इन गड्ढों से निजात मिल जाए, नए पुलों और मेट्रो की नई लाइनों के शुरू हो जाने से ट्रैफिक कुछ सुचारु दिखाई देने लगे, नए स्टेडियम, नई इमारतें, नए होटल दिल्ली के सौंदर्य को चार चांद लगा दें, लेकिन दिल्ली की लगातार बढ़ती आबादी को देखकर सबसे पहले महसूस होता है कि यह सिस्टम दोबारा नहीं बिगड़ेगा, इस बात की कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि ट्रैफिक जाम के भंवर में फंसी दिल्ली रोज़ एक नए रसातल में धंसती जा रही है...

अब कुछ उपायों पर विचार करें... मेरी समझ कहती है - जिनका काम फ़ोन या कंप्यूटर (इन्टरनेट) से चल जाता है, उन्हें घर से काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए... ज़रूरत पड़ने पर ही वे लोग ऑफिस आएं... सभी ऑफिस नौ से पांच या दस से छह चलने के बजाए अलग-अलग समय पर दो-दो घंटे के अन्तर से खुलें और बंद हों, ताकि सड़क पर ट्रैफिक बंट जाए... यह भी ज़रूरी नहीं कि सभी के साप्ताहिक अवकाश शनिवार और रविवार को ही हों... दफ्तर और कर्मचारियों की सहूलियत के हिसाब से उन्हें भी अलग-अलग दिन तय किया जा सकता है...

इसके अलावा जिस तरह स्कूल में दाखिले के लिए तय किए मानदंडों में से एक है, बच्चा स्कूल से तीन किलोमीटर के दायरे में रहता हो, तो प्राथमिकता दी जाती है... ऐसा नौकरी के लिए आवेदन करते समय भी किया जा सकता है... उसकी शैक्षणिक योग्यता और अनुभव के साथ-साथ ज़रूरत हो, तो उसके निवास की दूरी के हिसाब से भी उसे वरीयता दी जा सकती है...

मेरी अपनी सोच कहती है कि इन या इनके जैसी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखकर हम इस तेज़-रफ़्तार ज़िन्दगी में कुछ रफ़्तार हासिल कर सकते हैं, वरना वे दिन अब ज़्यादा दूर नहीं लगते, जब कार, बस, मेट्रो वगैरह को छोड़कर हम सब पुराने दिनों की तरह साइकिल से सफर किया करेंगे...

विवेक रस्तोगी Khabar.NDTV.com के संपादक हैं...

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