विज्ञापन
This Article is From Oct 05, 2015

विराग गुप्ता : बीफ, बीफबैन पर राजनीति और 'पिंक इकोनॉमी'

Written by Virag Gupta
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 05, 2015 17:24 pm IST
    • Published On अक्टूबर 05, 2015 17:09 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 05, 2015 17:24 pm IST
गोहत्या पर कानूनी प्रतिबंध तथा अनुच्छेद 48 के तहत संवैधानिक संरक्षण के बावजूद राजनीति की दुकान में बीफ की नीलामी के माध्यम से सभी राजनैतिक दलों ने यूपी के चुनावों का शंखनाद कर दिया है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रचार के दौरान (प्रधानमंत्री नरेंद्र) मोदी ने बिहार में नवादा की सभा में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा था कि वे 'हरित क्रांति' की जगह 'गुलाबी क्रांति' (मांस उत्पादन) को ज्यादा सब्सिडी व टैक्स में छूट देकर बढ़ावा दे रहे है और उन्ही मुद्दों पर अब मोदी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कठघरे में खड़ा कर दिया है।

'गुलाबी क्रांति' से अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने अपने पहले बजट में ही मांस उत्पादन को बढ़ावा देने एवं नए बूचड़खाने स्थापित करने व आधुनिकीकरण के लिए 15 करोड़ रुपये की सब्सिडी का प्रावधान करते हुए 13 प्रकार की छूटों को ज़ारी रखा। इसके अलावा बूचड़खाने मशीनरी पर आयात शुल्क को 10 प्रतिशत से घटाकर चार प्रतिशत करते हुए, आयकर अधिनियम की धारा 80-आईवीजेड (11-ए) के तहत छूट को भी बरकरार रखा गया है।

देश में लगभग 3,616 बूचड़खाने हैं, जिनमें 38 अत्याधुनिक या यांत्रिक हैं, और इनके अलावा 40,000 से ज्यादा अवैध बूचड़खाने भी हैं। आम धारणा के विपरीत मुगलों की बजाय यूरोपीय शक्तियों के शासनकाल में गायों के वध का बड़ा व्यापार प्रारंभ किया गया, जो आज भी जारी है। वर्ष 1644 में डचों द्वारा भारत से गाय की खालों का निर्यात प्रारंभ किया गया और वर्ष 1760 में रॉबर्ट क्लाइव ने कोलकाता में पहला आधुनिक बूचड़खाना स्थापित किया, जहां प्रतिदिन 30,000 जानवर मारे जा सकते थे। आजादी के बाद नवंबर, 1947 में कृषि मंत्रालय द्वारा सरदार बहादुर दातार सिंह की अध्यक्षता में समिति बनाई गई, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर 20 दिसंबर, 1950 को केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को गोवध पर पूर्ण प्रतिबंध न लगाने की सलाह दी थी।

'गुलाबी क्रांति' का एक रोचक विरोधाभास है कि आजादी के बाद से ही गोमांस का निर्यात नकारात्मक सूची में प्रतिबंधित होने के बावजूद वर्ष 2014-15 के दौरान 24 लाख टन मीट का निर्यात करने से भारत में 4.8 अरब अमेरिकी डॉलर की विदेशी मुद्रा आई, जो विश्व व्यापार का 58.7 फीसदी हिस्सा है। आम धारणा के विपरीत मांस का व्यापार करने वाले देश के सबसे बड़े चार मांस निर्यातक हिन्दू हैं। कुछ वर्ष पूर्व राज्यसभा की पेटिशन कमेटी ने मांस के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। उस रिपोर्ट को खारिज करते हुए केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग राज्यमंत्री निर्मला सीतारमण ने लोकसभा में 28 नवंबर, 2014 को एक अतारांकित सवाल का जवाब देते हुए कहा कि किसी भी राज्य से मांस के निर्यात को प्रतिबंधित करने की कोई मांग नहीं आई है। उनके अनुसार, मांस के निर्यात की नीति किसानों, पशु उत्पादकों, मांस उपभोक्ताओं, व्यापारियों, डेयरी, चमड़ा और पशु आहार के हित में है और पूर्ण वध पर प्रतिबंध लगने से देश की जीडीपी में दो प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है।

विनोबा भावे ने कहा था कि हिन्दुस्तान में आज गाय की हालत उन देशों से भी खराब है, जिन्होंने गोसेवा का नाम भी नहीं लिया। उनके अनुसार हमने नाम तो लिया, पर काम नहीं किया। इसका परिणाम है कि आजादी के समय 35 करोड़ की आबादी वाले भारत में गोवंश (गाय, बछड़ा, बैल और सांड) की संख्या लगभग एक अरब 21 करोड़ थी और अब देश की आबादी 1 अरब 21 करोड़ है, परंतु गोवंश सिर्फ 10 करोड़ बचा है। संवैधानिक उत्तरदायित्व के विपरीत पशुवध को बढ़ावा देने वाली सरकारें, गायों की गोचर जमीन को हड़पने वाले भूमाफिया, गायों के चमड़े के उत्पादों को इस्तेमाल करने वाला शहरी अभिजात्य, गोमांस का निर्यात कर बड़ी आमदनी करने वाले उद्योगपति फिर क्यों-कर गोवध पर रुग्ण प्रलाप करते हैं।

सरकारी अनुदान में चलती गुमनाम गोशालाओं और राजनैतिक नारेबाजी से भारतीय गोवंश का संरक्षण संभव नहीं हो सकेगा। स्वामी विवेकानंद ने गाय के दूध के माध्यम से स्वस्थ युवा भारतीयों का स्वप्न देखा था, परंतु मुंशी प्रेमचंद के 'गोदान' में 'होरी' से लेकर आज के किसान का बेटा गाय के दूध का सेवन तो कर ही नहीं पाया। गायों के संरक्षण और संवर्द्धन की जिम्मेदारी उजड़ते गांवों के गरीब किसानों के कमजोर कंधों पर डाल दी गई, जो अब इस जिम्मेदारी को उठा नहीं सकता। खेती में बैलों की जगह ट्रैक्टर, गोबर खाद की जगह यूरिया, गोमूत्र की जगह फिनायल, गोपालन की जगह स्वान संस्कृति, दूध की जगह कोका कोला इस्तेमाल करने वाला नव आधुनिक समाज गायों को रोटी देना भूलकर नारेबाजी में लिप्त हो गया।

गोवंश वध को रोकने के लिए नई अर्थव्यवस्था में उसे जिंदा रखने और लाभकारी रखने के सार्थक और प्रभावी प्रयास करने होंगे। हम शहरी पार्कों की घास को गायों के अनुकूल चारे, गोबर को पार्कों के लिए खाद, अपशिष्ट खाद्य पदार्थों को गोशालाओं में नियमित आपूर्ति प्रणली तथा शहरी सीमा में देसी गायों के लिए आधुनिक डेरीफार्म हेतु मास्टर प्लान में ज़रूरी कानूनी प्रावधान करके सार्थक कदम उठा सकते हैं। 'बेटी बचाओ' के साथ 'गाय बचाओ' के लिए अब 'सेल्फी विद काओ' (Selfie with Cow) तथा स्मार्ट सिटी के पोषण हेतु उसके चारों और हवाई पट्टी के साथ गो-पट्टी बनानी ही होगी। ऐसा नहीं होने पर  गायें भी 'गुलाबी क्रांति' की बलि चढ़ने हेतु अभिशप्त रहेंगी।

- विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता, साइबर कानून विशेषज्ञ तथा लेखक हैं

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

 

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com