समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिये जाने के लिए दायर दो साल पुरानी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ द्वारा सुनवाई होगी. सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने प्राइवेसी पर फैसले में जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस नरीमन और जस्टिस कौल ने संविधान के अनुच्छेद 21 में दिये गये जीवन के अधिकार के तहत समलैंगिकता समेत अनेक अधिकारों की चर्चा की थी. प्राइवेसी के कानूनी हक के बाद सुप्रीम कोर्ट को आधार पर फैसला देना है और संसद को डेटा सुरक्षा पर कानून बनाना बाकी है और अब समलैंगिकता का मामला भी नए तरीके से सुनवाई के लिए आ गया है.
दिल्ली हाईकोर्ट ने वर्ष 2009 में नाज़ फांउडेशन और अन्य लोगों की याचिका पर समलैंगिकता के बारे में आई.पी.सी. की धारा 377 को संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के विरुद्ध बताया था. सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए कहा कि आई.पी.सी. की धारा 377 असंवैधानिक नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के जज सिंघवी ने अपने विस्तृत फैसले में यह भी कहा था कि कानून बदलना संसद की जिम्मेदारी है. सुप्रीम कोर्ट में 2013 के फैसले के बाद रिव्यू याचिका 2014 में रद्द हो गई और क्यूरेटिव याचिका को फरवरी 2016 में संविधान पीठ के सम्मुख सुनवाई के लिए भेज दिया गया.
विधि आयोग ने अपनी 172वीं रिपोर्ट में समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करने की सिफारिश की थी. इस रिपोर्ट के अनुसार, कानून में बदलाव करने पर पिछले 18 वर्षो में सभी सरकारें विफल रहीं. कई अन्य रिपोर्टों में समलैंगिकता से एड्स तथा बच्चों के यौन शोषण के खतरों की बात कही गयी है. जिस आधार पर कांग्रेस की यूपीए सरकार ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिकता की याचिका के विरोध में हलफनामा दायर किया था. परन्तु सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद शशि थरूर ने 2015 में आई.पी.सी. की धारा 377 को निरस्त करने के लिए संसद में प्राइवेट बिल पेश किया, जिसके पक्ष में 14 और विपक्ष में 58 वोट पड़े. कांग्रेस सरकार के वरिष्ठ मंत्री कपिल सिब्बल ने समलैंगिकता के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट में जोरदार दलीलें दीं, जिन पर अब बड़ी पीठ में सुनवाई होगी. भाजपा के समर्थक बाबा रामदेव और आरएसएस समलैंगिकता को मर्ज के साथ पारिवारिक व्यवस्था के खिलाफ मानते हैं. दूसरी ओर भाजपा द्वारा नियुक्त एटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने समलैंगिकता के आदेश को गलत बताते हुए क्यूरेटिव याचिका को एप्रूव कर दिया.
इंग्लैण्ड में ईसाई चर्च के दबाव में वर्ष 1533 में समलैंगिकता को अपराध बनाया गया था, उसी तर्ज पर अंग्रेजों ने आई.पी.सी. की धारा 377 से समलैंगिकता को भारत में भी अपराध घोषित कर दिया. अंग्रेजों के समय बनाये गये अनेक कानून स्वतंत्रता और समानता का हनन करते हैं और इसलिए सुप्रीम कोर्ट की बहस समलैंगिकता तक सीमित नहीं रहेगी. नैतिकता के तकाजे वक्त के साथ बदलते हैं तो क्या कानून को वक्त के साथ नहीं बदलना चाहिए? दो व्यस्कों के बीच सहमति से शारीरिक संबंध को अपराध मानना क्या स्वतंत्रता और प्राइवेसी के अधिकार के खिलाफ है? समलैंगिकता पर बहस से क्या अब वेश्यावृत्ति को भी कानूनी दर्जा देने की मांग नहीं उठेगी? ब्रिटिश कालीन अनेक कानूनों पर बदलाव के लिए विधि आयोग की अनेक सिफारिशों के साथ सुप्रीम कोर्ट ने भी अनेक फैसले दिये हैं. पर संविधान के अनुसार कानून में बदलाव या नये कानून बनाना संसद का काम है. संसद के सत्रावसान पर अनेक सांसदों ने अदालतों की बढ़ती भूमिका और अति न्यायिक सक्रियता को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया था. रिव्यू याचिका रद्द होने के बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम हो चुका है, फिर समलैंगिकता कानून में बदलाव के लिए सरकार को सुप्रीम कोर्ट के किस फैसले का इंतजार है? समलैंगिकता पर संसद द्वारा कानून में बदलाव नहीं किया गया तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान की नई इबारत फिर गढ़ेगा.
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं.
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This Article is From Jan 08, 2018
समलैंगिकता पर फैसले से संसद की सर्वोच्चता दांव पर
Virag Gupta
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 08, 2018 22:03 pm IST
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Published On जनवरी 08, 2018 21:18 pm IST
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Last Updated On जनवरी 08, 2018 22:03 pm IST
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