एजेंसियों की चिंता वाजिब है कि अगर 360 डिग्री फ़ोटो उपलब्ध हो जाएंगी तो चरमपंथी इसका दुरुपयोग कर सकते हैं। भारत के रक्षा संस्थानों, परमाणु संयंत्रों और अन्य संवेदनशील जगहों की फ़ोटो गूगल मैप में उपलब्ध होने की वजह से जनवरी में दिल्ली हाईकोर्ट ने चिंता जताई थी, और अगर अब गूगल स्ट्रीट व्यू आ जाता तो सुरक्षा की चिंता कई गुना बढ़ जाती।
गूगल स्ट्रीट व्यू को वैसे तो दुनिया के 76 देशों ने अनुमति दे रखी है, लेकिन वह विवादों से बरी नहीं है। कई देशों में निजता, यानी प्राइवेसी के उल्लंघन की शिकायत की गई हैं, लेकिन भारतीय संदर्भ में देखें तो चिंता की कई और वजहें होनी चाहिए, जिनका ज़िक्र भारत सरकार ने नहीं किया है।
गूगल स्ट्रीट व्यू लेने के लिए गूगल आमतौर पर कार का उपयोग करता है, लेकिन जहां ज़रूरत होती है, वहां रिक्शा, साइकिल और नाव तक का प्रयोग करता है। देश की राजधानी दिल्ली जैसे शहर में भी सेंट्रल दिल्ली को छोड़ दें, तो बाक़ी सड़कों पर आवारा कुत्तों से लेकर गाय और सांड के दृश्य सामान्य हैं। इस लिहाज़ से देखें तो शहर का 15-20 प्रतिशत इलाक़ा (या इससे भी कम) ही ऐसा होगा, जिसे आप बिना झिझक दुनिया को दिखाना चाहेंगे। बाक़ी का हिस्सा तो ऐसा है कि अधिकारी अपने प्रधानमंत्री तक को यह दृश्य नहीं दिखाना चाहते। याद कीजिए कि कितने ही मौक़ों पर अधिकारी कनात तानकर सड़क के किनारे की झुग्गियों और गंदे नालों को छिपा देते हैं। जिन दिनों शहर में कॉमनवेल्थ गेम्स हो रहे थे, उन दिनों ऐसे कनात आम हो गए थे। विदेशी मेहमानों से छिपाने के लिए दिल्ली में बहुत कुछ था। वह भी तब, जब शहर के सौंदर्यीकरण पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए थे और उन दिनों साफ़सफ़ाई का काम मुस्तैदी से हो रहा था।
दिल्ली को छोड़िए। दूसरे आम शहरों के बारे में सोचिए। मेरठ हो या भोपाल हो, वडोदरा हो या नागपुर हो, विजयवाड़ा हो या लखनऊ या पटना हो। इन शहरों में तो 10 प्रतिशत इलाक़ा भी स्ट्रीट व्यू में दिखाने लायक नहीं है। हर शहर में सिविल लाइन्स जैसा एकाध इलाक़ा मिलेगा, जो सुव्यवस्थित होगा। अगर राजधानी हुई तो विधानसभा, सचिवालय और मंत्रियों के बंगलों वाला इलाक़ा ऐसा मिल जाएगा। शेष शहर तो अपनी मर्ज़ी से जीता है और मरता है।
कहीं सड़क के किनारे कोई खड़ा पेशाब करता दिख जाएगा तो कहीं कोई कार का दरवाज़ा खोलकर गुटखा थूकते। कहीं ट्रैफ़िक सिपाही वसूली करता दिखेगा तो हर चौराहे पर लाल बत्ती होते ही भिखारियों का झुंड। कहीं सड़क गड्ढों से पटी दिखाई देगी तो कहीं सड़कों का नामोनिशान तक दिखाई नहीं देगा। कहीं सड़क के किनारे कचरे का ढेर दिखाई देगा तो कहीं दीवार पर गुप्त रोगों का विज्ञापन। कहीं आधी सड़क तक दुकानों का अवैध कब्ज़ा होगा, कहीं कोई धार्मिक स्थल सड़क का नक्शा बिगाड़े खड़ा होगा। फ़ुटपाथ का अता-पता मिल जाए तो पैदल चलने वालों का भाग्य खुल गया समझिए।
सोचिए, हमारे अपने शहरों में गूगल की कार स्ट्रीट व्यू लेने निकलती तो क्या-क्या क़ैद हो जाता... और एक बार क़ैद हो गया तो समझिए कि दुनिया को देखने से कोई नहीं रोक सकता। यूं भी भारत बदनाम है गाय और सांपों के देश के रूप में। गूगल स्ट्रीट व्यू पर ऐसी तस्वीरें देखकर यह बदनामी और पुख़्ता हो जाती।
अब आप गूगल को अहमदाबाद की जगह गांधीनगर और रायपुर की जगह नया रायपुर दिखाने को तो नहीं कह सकते न, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वच्छ भारत अभियान जब तक सफल नहीं हो जाता, जब तक सरकार की हर एजेंसी हमारे शहरों को बेहतर शहर बनाने की दिशा में पहल नहीं करतीं, तब तक तो कम से कम हम गूगल स्ट्रीट व्यू के लायक नहीं हैं। सुरक्षा के बहाने ही सही, इससे बचना चाहिए। सुरक्षा एजेंसियों ने एक तरह से भारतीयों की लाज बचा ली है।
विनोद वर्मा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं...
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