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This Article is From Jun 07, 2016

अजीत जोगी : बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले...

Vinod Verma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 07, 2016 17:12 pm IST
    • Published On जून 07, 2016 17:11 pm IST
    • Last Updated On जून 07, 2016 17:12 pm IST
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता, राज्यसभा और लोकसभा के पूर्व सांसद और छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री रहे अजीत जोगी ने ख़ुद को कांग्रेस से मुक्त करने की घोषणा कर दी है, और वह राज्य में नई पार्टी का गठन करने जा रहे हैं।

अपनी नई पार्टी के नाम आदि की घोषणा वह बाद में करेंगे। अभी उन्होंने अपने समर्थकों को कई विकल्प देकर एक का चयन करने को कहा है, लेकिन उन्होंने जो अभी किया, उसके लिए उनके पास ज़्यादा विकल्प नहीं थे। या तो वह बहुत बेआबरू होकर भी उसी कूचे में बने रहते या फिर निकल जाते। उन्होंने ग़ालिब की तरह निकल लेना ठीक समझा। अब उनके अरमानों की परीक्षा है।

आलाकमान की शह...
कांग्रेस से किनारा करने से पहले उन्होंने ठीक तरह से भांप लिया था कि जिस आलाकमान की शह पर वह अब तक अपने प्रतिद्वंद्वियों को मात देते आए हैं, उस शह का कोटा अब ख़त्म हो चला है। इस शह के दम पर ही उन्होंने कभी दिग्विजय सिंह से खुली लड़ाई लड़ी तो कभी छत्तीसगढ़ के लिए चुनाव प्रभारी रहे प्रियरंजन दासमुंशी को बुरी तरह लताड़ा और कभी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सामने भी गुस्ताखियां कीं। एआईसीसी के प्रभारी महासचिवों को तो उन्होंने हमेशा अपने से कमतर माना। मोतीलाल वोरा जैसा एकाध अपवाद छोड़ दें तो छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेताओं की तो वह अपने सामने कोई बिसात ही नहीं मानते थे। इसकी शिकायतें पहुंचती रहीं और एक दिन आया, जब कांग्रेस आलाकमान की सोच बदल गई।

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस आलाकमान की सोच में एकाएक कोई परिवर्तन हुआ है। अजीत जोगी की राजनीतिक जोड़तोड़ की कलई धीरे-धीरे खुली है, लेकिन अबकी बार ठीक तरह से खुली है और अब आलाकमान ने मान लिया है कि अपनी ताक़त का जो बयान वह दिल्ली दरबार में करते रहे हैं, दरअसल उसकी जड़ें छत्तीसगढ़ में बहुत खोखली हो गई हैं। उन्हें पार्टी से निकाले जाने की मांग तो वर्ष 2013 में हुए चुनावों के पहले से ही हो रही थी, लेकिन तब दिल्ली को लगता था कि शायद इससे पार्टी को नुक़सान होगा।

पर्दाफ़ाश...
लेकिन पिछली जनवरी में बस्तर के अंतागढ़ विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव के बारे में षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश हुआ, तो कांग्रेस आलाकमान भी भौंचक रह गया। जो टेप मीडिया में सामने आए, उनके अनुसार अजीत जोगी और उनके बेटे अमित जोगी ने मिलकर मुख्यमंत्री रमन सिंह से सांठगांठ की और कांग्रेस के ही उम्मीदवार को उपचुनाव के मैदान से हटा दिया! इससे पहले प्रदेश कांग्रेस के नेता शिकायतें करते रहते थे कि राज्य की बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ कांग्रेस की हर लड़ाई में अजीत जोगी रमन सिंह की तरफ़ खड़े दिखाई देते हैं, लेकिन इसकी सुनवाई हो नहीं रही थी। कांग्रेस आलाकमान को अब तक लगता रहा कि शिकायतें आपसी गुटबाज़ी की वजह से की जा रही हैं।

अंतागढ़ उपचुनाव के टेप की वजह से न केवल उनके बेटे अमित जोगी को कांग्रेस से निष्काषित कर दिया गया, बल्कि एआईसीसी से अजीत जोगी को भी अलग करने की अनुशंसा की गई। अजीत जोगी प्रदेश की राजनीति के सबसे संकरे हाशिये पर खड़े कर दिए गए। उनकी पीठ दीवार से सटी हुई थी और सामने आलाकमान के सिपहसलार भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव तलवारें लिए खड़े थे।

ऐसे में अजीत जोगी के पास इसके अलावा कोई और विकल्प शायद नहीं बचा था कि वह दीवार में एक छेद करके दूसरी ओर निकल जाएं। उन्होंने ऐसा ही किया।

कितना असर...?
देखना यह है कि कांग्रेस की दीवार में जो छेद अजीत जोगी ने बनाया है, उससे कितना नुक़सान और कितना फ़ायदा होगा। दिल्ली में बैठकर छत्तीसगढ़ की राजनीति का आकलन कर रहे राष्ट्रीय पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि यह कमज़ोर हो रही कांग्रेस को हुआ एक और नुक़सान है, लेकिन छत्तीसगढ़ की राजनीति को क़रीब से देख रहे लोग इसे मानने को राज़ी नहीं हैं। कांग्रेसियों ने कल पटाखे फोड़े हैं।

दिल्ली की अवधारणा में अजीत जोगी ही छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के एकमात्र नेता हैं। लेकिन सच यह है कि उनकी राजनीतिक हैसियत अब यह हो गई है कि राहुल गांधी के कार्यक्रम के ठीक पहले एक ज़िला कांग्रेस अध्यक्ष उनका सरेआम अपमान कर देता है और वह बेबस-से रह जाते हैं। कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य और अनुसूचित जाति-जनजाति प्रकोष्ठ का सचिव प्रदेश में इतना बेचारा-सा रह गया है, इसका अंदाज़ा अभी दिल्ली को नहीं है।

अजीत जोगी से जुड़े विवादों ने उनके क़द को धीरे-धीरे बहुत घटा दिया है। मुख्यमंत्री रहते उनका शासन कथित तौर पर इतना निरंकुश रहा कि उसके बाद के तीन विधानसभा चुनावों में बीजेपी का प्रिय शगल यह प्रचारित करना रहा कि अगर कांग्रेस जीतती है, तो अजीत जोगी फिर मुख्यमंत्री बन जाएंगे! (मानो गब्बर आ जाएगा) ज़ाहिर है कि इससे बीजेपी को फ़ायदा होता था।

जाति गले की फांस...
उनकी जाति का मसला भी उनके गले की फांस बना हुआ है। दस्तावेज़ चुगली करते हैं कि अजीत जोगी का आदिवासी होना असंदिग्ध नहीं है। हालांकि यह मामला अभी अदालत में है और आरोप है कि रमन सिंह सरकार की कृपा से ही इसका फ़ैसला अटका हुआ है। अदालत में जमा दस्तावेज़ कहते हैं कि अजीत जोगी दरअसल अनुसूचित जाति से आते हैं। इस वर्ग में जोगी का अच्छा-ख़ासा प्रभाव भी रहा है, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 10 में से नौ सीटें जब बीजेपी जीत गई तो सवाल उठे कि क्या जोगी जी का प्रभाव ख़त्म हो गया...? चुनाव परिणामों ने तो कम से कम यही साबित किया।

दूसरा अमित जोगी की छाया ने भी अपने पिता अजीत जोगी की राजनीति में बहुत अंधेरा कर दिया है। अमित जोगी पर एनसीपी के नेता की हत्या का आरोप लगा और वह कई महीने जेल में रहे। दिलीप सिंह जूदेव का स्टिंग करने का आरोप भी उन पर लगा और अंतागढ़ उपचुनाव में कांग्रेस के नुक़सान की स्क्रिप्ट भी कथित तौर पर उन्होंने ही लिखी। उनके दरबार में किसी को निपटाने, किसी को ठिकाने लगाने और किसी को ठीक करने की चर्चा आम है, ऐसा उनके पूर्व दरबारी बताते हैं। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि नई पार्टी का गठन भी अमित जोगी के उर्वर दिमाग़ की उपज है।

अजीत जोगी 2014 में एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना के शिकार हुए और तब से व्हीलचेयर पर ही हैं। लेकिन अमित जोगी अभी युवा हैं और वह बहुत तेज़ रफ़्तार से दौड़ना चाहते हैं। इतनी तेज़ कि राहुल गांधी भी एक दिन पीछे रह जाएं। यह अजीत जोगी का पुत्रमोह है कि वह अपने बेटे को राजनीति के पाठ पढ़ाने की जगह उन्हें निरंकुश होने की छूट देते हैं। वरना अजीत जोगी जैसी राजनीतिक समझ वाले व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा नहीं होती।

शातिर राजनेता...
अजीत जोगी बहुत अच्छी राजनीतिक समझ वाले एक शातिर राजनेता हैं। यह शातिरपन उनमें पता नहीं कहां से आया, लेकिन यह तय है कि 15 बरस से अधिक समय तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहने की वजह से यह शातिरपन पैना ही हुआ, और राजनीति उसकी धार तेज़ करती रही। उनमें अपने राजनीतिक आकाओं को पहचानने और उन्हें ख़ुश रखने की ख़ूबी है, तो वह अपने पीछे भीड़ खड़ी करने की कला में भी पारंगत हैं। लेकिन साथ में वह पर्याप्त संख्या में दुश्मन भी बनाते चलते हैं।

यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जिस समय उन्होंने कांग्रेस से किनारा करने का फ़ैसला किया है, उस समय वह कांग्रेस के सबसे क़ाबिल नेताओं में से एक थे। पढ़ाई-लिखाई से लेकर राजनीतिक पैंतरेबाज़ी तक सब में, लेकिन उन्होंने कांग्रेस में अपनी उपयोगिता को ख़ुद ही धीरे-धीरे ख़त्म किया।

वह चाहते तो 10 जनपथ से अपनी क़रीबियों का बेहतर ढंग से उपयोग में लाते, चर्च के प्रभाव का इससे अच्छा दोहन करते और अपने बेटे की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को अन्यान्य तरीक़ों से पूरा करने की योजना बनाते। लेकिन अब तो तीर कमान से निकल चुका है। अभी राज्य के चुनाव में ढाई साल का वक़्त है। यह तीर ढाई साल में किस दिशा में जाएगा, उसकी उड़ान कैसी होगी और वह निशाने पर जाकर लगेगा या नहीं, यह वक़्त ही बताएगा। और इसका फ़ैसला इस बात से भी होगा कि अजीत जोगी की दोस्ती को अब रमन सिंह कितना उपयोगी पाएंगे। अगर रमन सिंह ने दामन छोड़ दिया, तो अगली मुसीबतें राजनीतिक से ज़्यादा अदालती होंगी और तब राजनीतिक भविष्य अधर में ही होगा।

विनोद वर्मा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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