डिक्शनरी राजनीति की : भाषा को बख्शो, मेरे आका...!

डिक्शनरी राजनीति की : भाषा को बख्शो, मेरे आका...!

यह लगभग 60 साल पहले की बात है, जब हिन्दी के महान कवि अज्ञेय को कविता लिखते समय शब्दों के चुनाव संबंधी संकट का सामना करना पड़ा था। वह अपनी प्रेमिका के सौन्दर्य का वर्णन करने जा रहे थे कि उन्हें लगा कि यह काम अब चंद्रमा और कमल से तुलना करके नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'अब इन शब्दों के देवता कूच कर गए हैं...', यानी, अब उन शब्दों के अर्थ वे नहीं रह गए, जो पहले थे... बदल गए हैं... यानी, उनमें अब उतना दम नहीं रह गया है।

यह पीड़ा शब्दों के एक जादूगर एवं कारीगर की थी। सोचता हूं कि यदि अज्ञेय कवि न होकर शशि थरूर होते, या नितिन गडकरी होते... कुल मिलाकर यह कि यदि वह राजनेता होते, तो क्या शब्दों के अर्थों के क्षरण की उनकी यह पीड़ा भी वही होती और उतनी ही होती। अब उत्तर मिल गया है... 'ऐसा कतई नहीं होता...', क्योंकि जो स्वयं नष्ट करने में शामिल होता है, उसे नष्ट करने का दर्द कभी नहीं होता।

अकादमिक से राजनयिक और फिर राजनेता बने शशि थरूर चाहे कन्हैया कुमार को आज का भगतसिंह कहें, या भगतसिंह को तब का कन्हैया कुमार, यह शब्दों के अर्थ के पतन तथा प्रतीकों के भयंकर दुरुपयोग का जीवंत उदाहरण है। शब्दों की इस तरह की हत्या के लिए उनके विरुद्ध कोई एफआईआर दर्ज नहीं कराई जा सकती। अब यह तो वही जानें कि ऐसा करके उन्होंने भगत सिंह को नीचा दिखाया है या कन्हैया कुमार को कुछ ज्यादा ही भाव देकर उसे भयंकर भ्रम में डालकर उसकी राजनीतिक हत्या करने का 'डिप्लोमेटिक पड्यंत्र' रचा है। सच इन दोनों में से चाहे जो भी हो, यह उनके जैसे व्यक्तित्व को तनिक भी शोभा नहीं देता। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यदि आज वह राजनीति में नहीं होते, तो उनसे यह वाक्य बड़ी से बड़ी धमकी देकर भी नहीं कहलवाया जा सकता था। इतिहास की इतनी सामान्य जानकारी और समझ तो उन्हें है ही।

अब आते हैं, इसी तरह के एक अन्य ताजातरीन वक्तव्य पर। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में वरिष्ठ मंत्री नितिन गडकरी ने प्रधानमंत्री को 'ईश्वर का वरदान' तथा 'गरीबों का मसीहा' घोषित कर डाला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस पद पर आए अभी दो साल में भी दो महीने कम हुए हैं। कम से कम अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं दिखा कि लोग गडकरी जी की इन दोनों बातों पर यकीन कर लें। आप इसकी तसदीक करने की कोशिश करें, तो जवाब में आपको हल्की-सी व्यंग्यात्मक मुस्कान मिलेगी, जिसमें गडकरी जी के प्रति तरस खाने का दयनीय भाव भी घुला होगा। 'तरस' यह सोचकर कि 'कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके ऊपर कोई राजनीतिक संकट आने वाला है...'

गडकरी जी के लिए यदि यह कहना उनकी मजबूरी थी, तो उन्होंने समय सही नहीं चुना। शब्दों एवं प्रतीकों के सही भावार्थ सम्प्रेषित हों, इसमें समय की बहुत बड़ी भूमिका होती है। यह समय श्री श्री रविशंकर के समारोह का समय था। एक प्राधिकरण द्वारा समारोह को गलत ठहराकर पांच करोड़ रुपये का जुर्माना ठोके जाने के बावजूद प्रधानमंत्री की वहां उपस्थिति को लोग उनके ईश्वरत्व से जोड़कर नहीं देख पा रहे हैं। उनकी इस उपस्थिति ने 'याराना अध्यात्मवाद' को साफ तौर पर सिद्ध करके लोगों के विश्वास को खंडित किया है।

फिर इस समारोह में कथित रूप में 50 करोड़ रुपये फूंक दिए गए। यदि इस भव्य कार्यक्रय में महात्मा गांधी को बुलाया जाता, तो वह क्या करते...? भारत के लोग उन्हें 'गरीबों का मसीहा' मानते हैं। उनके इस मानने का तालमेल श्री श्री के घोर पूंजीवादी प्रदर्शन के आध्यात्म से नहीं बैठता।

अच्छा होता कि गडकरी जनता से इन दोनों उपाधियां प्रदान करने का अधिकार नहीं छीनते, और बेहतर होगा कि शशि थरूर भी इतिहासकार बनने का मोह छोड़कर राजनीति ही करें, क्योंकि राजनीति की डिक्शनरी में चारणगत शब्दों का अकाल नहीं है।

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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