डॉ विजय अग्रवाल : ज़करबर्ग और स्पीलबर्ग साबित कर चुके हैं छुट्टियों का करिश्मा

डॉ विजय अग्रवाल : ज़करबर्ग और स्पीलबर्ग साबित कर चुके हैं छुट्टियों का करिश्मा

प्रतीकात्मक चित्र

हाल ही में फेसबुक संस्थापक मार्क ज़करबर्ग ने अपने काम से दो महीने की छुट्टी लेने की घोषणा की। कुछ ऐसी ही घोषणा 'जुरासिक पार्क' जैसी सुपरहिट फिल्म बनाने वाले स्टीवन स्पीलबर्ग ने भी की थी, लेकिन उनकी छुट्टियां ज़करबर्ग के मुकाबले 30 गुना ज़्यादा थीं - पांच साल की। लेकिन छुट्टी लेने के पीछे के कारण दोनों के काफी-कुछ एक जैसे रहे। ज़करबर्ग ने इसे 'मैटरनिटी लीव' कहा है, यानी उनकी पत्नी उनके बच्चे को जन्म देने वाली हैं, इसलिए। वैसे, अब वह पिता बन चुके हैं, उन्हें बधाई। उधर, जब स्पीलबर्ग की पत्नी मां बनने के करीब थीं, तब उन्होंने कहा था, ''मैं अपने बच्चे को बढ़ते हुए देखना चाहता हूं...''

हममें से कुछ लोग इन दोनों को बेवकूफ कहेंगे, तो कुछ लोग पागल भी। कुछ लोग अलाल भी कह सकते हैं, कुछ न करना पड़े, इसका बहाना। हम इन्हें और चाहे कुछ भी क्यों न कह लें, लेकिन इन दोनों के इन फैसलों की तारीफ तो नहीं ही करेंगे। आज के उस दौर में तो और भी नहीं, जब काम करने का फितूर हमारी चेतना में काले नाग की तरह कुंडली मारकर बैठ गया है। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री इसके सबसे अच्छे प्रतिनिधि हैं। स्टीव जॉब्स भी इसी श्रेणी में थे। बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करने वाले लगभग सभी बड़े लोगों के हालात यही हैं।

हम सभी के पास जो सबसे बड़ी दौलत है, और जो सबके पास एक जैसी ही है, वह है समय। इसे हम अपने जीवन का 'स्पेस' कह सकते हैं। यही हमें इत्मीनान से सांस लेने के मौके मुहैया कराता है। साथ ही यह भी कि हमारा दिमाग अपने रूटीन के घेरे से निकलकर तथाकथित रूप से कुछ इधर-उधर आवारागर्दी कर सके। अन्यथा जिन्दगी की रेलगाड़ी रोजाना बनी-बनाई एक फिक्स पटरी पर दौड़ ही रही है। यदि हम जीवन की सिसकियों को सुनने की हिम्मत जुटा सकें तो सुनेंगे कि कितने करुण और दीन स्वर में वह हमसे समय की भीख मांग रही है।

जो चेतना कुछ रचना चाहती है, जो चेतना कुछ ढूंढना चाहती है, और जो चेतना सही में जीना चाहती है, उसकी पहली अनिवार्य शर्त होती है कि ''मुझे स्पेस चाहिए, ताकि मैं उन्मुक्त होकर इस ब्रह्माण्ड में विचरण कर सकूं...'' इस स्वच्छंद विहार के दौरान ही चेतना में कोई एक ऐसा पल अचानक ही कौंधता है कि उसे महसूस करके वह खुद चकित रह जाता है कि 'यह क्या हुआ...' दुनिया की जितनी भी बड़ी खोजें हुई हैं, इसी एक पल के कौंधने से हुई हैं, जिसकी तलाश में चेतना भटकती रहती है। ज़करबर्ग और स्पीलबर्ग, दोनों रचनात्मकता के इस रहस्य को जानते हैं, इसलिए जिसे हम 'उनका छुट्टी पर जाना' कहते हैं, वह मूलतः उनकी ओर से अपनी चेतना को काम पर लगाना है, और जब यह स्वतंत्र चेतना काम करके लौटती है, तो मानवजाति को धरोहर के रूप में नया कुछ दे जाती है।

हम अपने काम से ऊब जाते हैं, अपनी जगह से ऊब जाते हैं, अपने संबंधों से ऊब जाते हैं, और अंततः अपने आप तक से ऊब जाते हैं... क्यों...? इसलिए, क्योंकि हमने इन्हें नया नहीं किया। इन्हें नया करने के लिए समय चाहिए था, और हम थे कि हमारे पास वैसे तो सब कुछ था, एक समय को छोड़कर। जबकि इसे सिर्फ समय चाहिए था, शेष सब कुछ को छोड़कर। हमें यह तो हर पल याद रहता है कि 'जीवन समय से बना है', लेकिन यह याद नहीं रह पाता कि 'जीवन समय के लिए नहीं बना है...' फलस्वरूप जिन्दगी की इस सबसे बड़ी दौलत को दौलत न समझकर झूठमूठ की दौलत जुटाने में लुटाने लगते हैं। यहां हम एक अच्छे सौदागर होने का प्रमाण पेश करने से चूक जाते हैं, और बस यही चूक जिंदगी की चूक बन जाती है। कुछ लोग इसे चूकने नहीं देते, जैसे कि बर्ग द्वय - यानी ज़करबर्ग और स्पीलबर्ग।

डॉ. विजय अग्रवाल जीवन प्रबंधन विशेषज्ञ हैं...

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