गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने एक बड़ा खूबसूरत प्रसंग रचा है, जो गौतम बुद्ध और उनकी पत्नी यशोधरा से जुड़ा हुआ है। प्रसंग उस समय का है, जब राजकुमार सिद्धार्थ ज्ञान प्राप्ति के बाद राजधानी कपिलवस्तु लौटकर अपने ही राजमहल में भिक्षा मांगने जाते हैं। यशोधरा उन्हें इस वेष में देखकर दंग रह जाती हैं, और दुखी भी। यशोधरा प्रश्न पूछने की अनुमति मिलने पर महात्मा बुद्ध से कहती हैं...
''प्रभु, जो ज्ञान आपको वन में जाने से मिला, क्या वह यहां रहकर नहीं मिल सकता था...?''
''मिल सकता था...'' बुद्ध ने छोटा-सा उत्तर दिया...
''तो फिर आप यहां से गए क्यों...?'' यशोधरा ने अगला प्रश्न किया...
''लेकिन यह ज्ञान कि वह ज्ञान यहां भी मिल सकता था, वहां जाने के बाद ही तो मिला...'' महात्मा बुद्ध ने जवाब दिया...
इस प्रसंग का बहुत स्पष्ट संदेश है कि भौतिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में कहीं भी, कोई भी, तनिक भी विरोध नहीं है। कुछ भी छोड़ने की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत है तो अपने अंदर के उन तारों को जोड़ने की, जो टूट-टूटकर बिखर गए हैं, या गलत जुड़ गए हैं। जैसे ही ये सब सही रूप में जुड़ेंगे, अंदर आध्यात्मिकता का प्रवाह शुरू हो जाएगा।
फुटबॉल के खेल में सभी खिलाडि़यों की अपनी-अपनी पोज़ीशन निश्चित रहती है। मैच चल रहा है, खिलाड़ी खेल रहे हैं, और हर खिलाड़ी खेले रहे जा खेल के अनुसार थोड़ी-थोड़ी अपनी पोज़ीशन भी बदल रहे हैं, लेकिन एक सीमा तक ही। सभी की मर्यादाएं तय हैं, कौन कहां तक जा सकता है। ऐसा नहीं हो सकता कि गोलकीपर सेंटर लाइन पर जाकर गेंद को पकड़ ले या फॉरवर्ड बिना गेंद लिए ही डी-एरिया में घुसकर गेंद के आने का इंतज़ार करे। यदि उसने ऐसा करके गोल कर भी दिया, तो वह फाउल माना जाएगा और उसे उसका दंड भी मिलेगा।
अब इस पूरे खेल में गोल करने के सबसे अधिक मौके फॉरवर्ड खिलाड़ी को मिलते हैं। बैक का नाम तो कभी-कभार गोल करने वालों की सूची में आता है। बाकी खिलाड़ी तो कभी-कभी दौड़-भागकर भी लेते हैं, लेकिन गोलकीपर तो दौड़-भाग के नाम पर केवल गोलपोस्ट के बीच थोड़ी-बहुत उछल-कूद करने के अलावा कुछ भी नहीं कर पाता। खड़े-खड़े उसे ऊब भी हो जाती होगी। यदि आपने कभी गोलकीपिंग की हो, तो आप जानते ही होंगे कि ऊब होती ही है और गुस्सा आने लगता है अपनी गोलकीपिंग पर। मन करता है कि हम भी मैदान भर में खूब दौड़ लगाएं और दुश्मनों को छकाते हुए गेंद को ले जाकर सीधे-सीधे गोल में डाल दें।
अब फुटबाल के इस खेल की सारी आध्यात्मिकता इस बात में निहित है कि हर खिलाड़ी अपनी-अपनी सीमाओं और दायित्वों को खुले और पूरे मन से स्वीकार कर अपना-अपना खेल खेले। न तो हर कोई फॉरवर्ड बन सकता है, न गोलकीपर। जो भी खिलाड़ी जो कुछ बन सकता था, मैनेजर ने या कैप्टन ने अपने विवेक और उनकी योग्यता को देखते हुए उन्हें वह काम सौंप दिया है। सौंपे गए यही काम उनके गुण-धर्म हैं, और इसी गुण-धर्म को अपने कौशल और प्रयत्न से चरम तक पहुंचा देने में लगे रहना अपने 'स्व' में स्थित रहना है। ऐसा कर हम न केवल अपनी टीम को जिता सकेंगे, बल्कि सही मायने में खेल का सच्चा आनंद भी ले सकेंगे। तभी हम देखने वालों को भी खेल का आनंद दिलाकर उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतर सकेंगे। तब हमें खेलने का सुख और संतोष भी मिल सकेगा। यहां तक कि यदि टीम हार भी गई, तब भी हमारा खेल सराहा जाएगा, क्योंकि हमने जमकर खेला था। यह जमकर खेलना ही आध्यात्मिक जीवन जीना है।
चाहे ईश्वर के अवतार राम और कृष्ण हों, चाहे ईश्वर के पुत्र प्रभु यीशु हों, अथवा अल्लाह के संदेशवाहक मोहम्मद साहब हों, सभी ने इस धरती पर आकर जो कुछ किया, जैसा जीवन जिया, उससे यही संदेश मिलता है कि 'कर्म ही मुक्ति है...' इनमें से कोई भी, कभी भी कर्म से विमुख नहीं हुआ। उन्हें जो कुछ करने को मिला, उसे ही अपना समझकर उसे प्यार करके किया। यह मुश्किल नहीं है, हम भी कर सकते हैं। उपाय यह है कि या तो अपनी पसंद का काम ढूंढ लें, या फिर यह कि जो मिल गया है, उसे ही पसंद करने लगें। बस, जीवन आध्यात्मिक हो जाएगा।
डॉ. विजय अग्रवाल जीवन प्रबंधन विशेषज्ञ हैं...
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This Article is From Oct 14, 2015
डॉ विजय अग्रवाल : महात्मा बुद्ध, फुटबॉल का खेल, और आध्यात्मिक जीवन के मायने...
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 14, 2015 15:52 pm IST
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Published On अक्टूबर 14, 2015 15:49 pm IST
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Last Updated On अक्टूबर 14, 2015 15:52 pm IST
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