सुप्रीम कोर्ट ने 'पद्मावत' पर चार राज्यों में लगी रोक को हटा दिया है और बाकी राज्यों से भी कहा है कि वे फिल्म पर बैन लगाने की कोशिश न करें. यह राहत महज संजय लीला भंसाली के लिए नहीं है बल्कि उन सभी लोगों के लिए भी है जिनको डर था कि कहीं उसकी बात किसी को पसंद नहीं आई तो उन पर भी कहीं बैन ही न लग जाए. यह भंसाली की नहीं अभिव्यक्ति की जीत है जिसका अधिकार हमें भारत के संविधान ने दिया है और यह भारतीय लोकतंत्र का मूल है.
याद होगा इमरजेंसी के वक्त किस तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन किया था... वह भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले अध्याय के रूप में दर्ज है. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश ने यह फैसला सुनाया और कहा है कि राज्य सरकारें कानून व्यवस्था का हवाला देते हुए किसी फिल्म को बैन नहीं कर सकते. अदालत ने कहा कि यदि इस देश में 'बैंडिट क्वीन' रिलीज हो सकती है तो पद्मावत को भी रिलीज होने से नहीं रोक सकता.
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से पद्मावत तो बच गई मगर अभी आगे क्या होगा इस पर सस्पेंस बना हुआ है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध लगाया था मगर इस बार पोंगल पर जल्लीकट्टू हुआ और लोग भी मारे गए. स्थानीय भावनाओं के सम्मान की आड़ लेते हुए राजनैतिक दल अदालतों का मजाक उड़ाते रहे हैं. गोवा फिल्म महोत्सव में 'सेक्सी दुर्गा' नाम की फिल्म को इसलिए नहीं दिखाया गया क्योंकि आयोजकों को लगा कि इसके नाम से एक बड़े समुदाय की भावनाएं आहत होती हैं.
अपने देश में फिल्मों पर प्रतिबंध लगाने की परंपरा बहुत पुरानी है. फिल्म 'आंधी' पर भी बैन लगा था जिसकी हीरोइन इंदिरा गांधी की तरह दिखती थीं. बाद में यह 1975 में रिलीज हुई...लेकिन इमरजेंसी पर बनी फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' कभी रिलीज नहीं हो पाई. सरकार ने उसका प्रिंट ही जलवा दिया था. बाद में यह किसी और रूप में रिलीज हुई. फिल्म 'फायर' और एक अन्य फिल्म 'वॉटर' पर भी जमकर विवाद हुआ क्योंकि यह समलैंगिकता जैसे विषयों पर बनी थी, जो अभी भी अपने समाज में चर्चा न करने जैसा विषय है...मगर सालों बाद समाज अब इसी विषय पर अलग ढंग से सोच रहा है और इसका फैसला भी सुप्रीम कोर्ट को करना है यानि निजात कोर्ट ही देगा.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करें तो अपने देश में दो सबसे चर्चित मामले याद आते हैं. लेखक सलमान रश्दी की किताब 'द सेटेनिक वर्सेस' का काफी जिक्र होता रहा है. भारतीय मूल के रश्दी विदेश में रहते हैं और यह कहकर उनकी किताब बैन की गई कि वह अल्पसंख्यक समाज की भावनाओं के खिलाफ है. दूसरा नाम है एमएफ हुसैन का जिनकी पेंटिंग को लेकर इतना विवाद बढ़ा कि पूरे भारत में उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए गए जिससे परेशान होकर हुसैन दुबई चले गए जहां उनका निधन हो गया.
.. और अंत में इतना जरूर कहूंगा कि भारतीय जनमानस जो कट्टर सोच का नहीं है उसने राहत की सांस ली होगी. पिछले दो हफ्तों से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के बीच जो चल रहा था उससे लोगों का विश्वास सर्वोच्च अदालत को लेकर डगमगा रहा था. एक बार फिर लोगों में यही विश्वास कायम हुआ होगा कि उनके बीच जो भी चल रहा हो.. आम लोगों के मुद्दे जैसे निजता,अभिव्यक्ति, समलैंगिगता और आधार कार्ड जैसे तमाम मुद्दों के लिए इनका दरवाजा खटखटाया जा सकता है.
(मनोरंजन भारती एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एक्जीक्यूटिव एडिटर - पॉलिटिकल, न्यूज हैं)
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This Article is From Jan 18, 2018
'पद्मावत' के जरिए अभिव्यक्ति की जीत
Manoranjan Bharati
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 18, 2018 16:26 pm IST
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Published On जनवरी 18, 2018 16:26 pm IST
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Last Updated On जनवरी 18, 2018 16:26 pm IST
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