जब जेएनयू में नक़ाबपोश आ सकते हैं तो वो अब कहीं भी आ सकते हैं. उनके चेहरे पर नकाब तो चढ़ा था मगर आप दर्शकों के चेहरे पर तो नकाब नहीं है. रात के अंधेरे में लाठी डंडे और लोहे के रॉड के साथ जब अपराधी नकाब ओढ़ लें तो आप अपना टॉर्च निकाल कर रखिए. अपराधी तो नहीं ढूंढ पाएंगे कम से कम रात के अंधेरे में पलंग के भीतर कहीं कोने में दुबके उस लोकतंत्र को ढूंढ पाएंगे जिसे हिंसा की इन तस्वीरों के ज़रिए ख़त्म किया जा रहा है. आपके भीतर से जेएनयू को खत्म किया जा रहा है ताकि आप नकाबपोश गुंडों को भी देश भक्त समझने लगें.
पांच साल के दौरान गोदी मीडिया और सोशल मीडिया के ज़रिए आपके भीतर एक अच्छी यूनिवर्सिटी को इस कदर खत्म कर दिया गया है कि बहुत से लोग नकाब पोश गुंडों को देखते हुए नहीं देख पा रहे हैं. कोई 90 साल पहले भी लोग इसी तरह नहीं देख पाए थे जब प्रोपेगैंडा की सनक उन पर हावी हो गई थी. वो देश कुछ और था, ये देश भारत है. आम तौर पर भारत की दूसरे नंबर की इस यूनिवर्सटी के हॉस्टल में आराम से लाठी रॉड लेकर नकाबपोश घुस आए हैं इसे देखकर किसी का भी दिल दहल जाना चाहिए था. मगर बात हो रही है नक्सल की, एंटी नेशनल की और आतंकवादियों की और जिहादियों की. आप जो सामने से दिख रहा है वो छोड़ कर नक्सल और एंटी नक्सल को ही सुनने और देखने लगते हैं. आप तथ्यों और तर्कों को छोड़ देते हैं. छवियों से जेएनयू को देखने लगते हैं. इमेज जो आपके दिमाग में व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने बनाई है. आप चेक करें कि क्या अभी तक आपको नकाबपोश गुंडे याद हैं या भूल कर आप नक्सल बनाम राष्ट्रवाद की बहस में भटक गए हैं. इसी तरह से बहुत से लोग एक बार फिर जेएनयू से से नफरत करने लगते हैं और नकाबपोश गुंडों को देखकर सामान्य होने लगे हैं. सहज होने लगे हैं. सच सच बताइये, क्या आपको व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में जेएनयू को लेकर ऐसे मेसेज मिले हैं न जिनमें जेएनयू को जिहादियों का अड्डा बताया जा रहा है और बंद करने की बात की जा रही है? 90 साल पहले ठीक यही हुआ था. वो देश कुछ और था. ये देश भारत है.
एक दर्शक के लिए वाकई इम्तहान का समय है. जब तक आप एक मुद्दे को ठीक से समझ नहीं पाते तब तक दूसरी घटना सामने आ जाती है. आप पहले वाला छोड़ दूसरे वाले में लग जाते हैं तब तक तीसरा मसला आ जाता है. इसलिए न आप घटना समझ पाते हैं न घटना की क्रोनोलोजी समझ पाते हैं. वही समझते हैं जो गोदी मीडिया और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी आपको बताता है. रविवार को जामिया की लाइब्रेरी में पुलिस का हमला हुआ, रविवार को ही जेएनयू के हॉस्टल में हमला हुआ. तुरंत ही इस खबर को बैलेंस किया जाने लगा कि यह लेफ्ट बनाम राइट का झगड़ा है. नकाबपोश गायब हो गए. वो अभी तक पकड़ में नहीं आ सके हैं. ऐसी ही थ्योरी जामिया के वक्त लांच की गई. आप जामिया में चली गोली से जुड़ी खबरों के हवाले से इस थ्योरी के गेम को समझिए. हम आपको एनडीटीवी और एक्सप्रेस में गोली से संबंधित खबरों के आधार पर बताना चाहते हैं. 15 दिसंबर को जामिया मिल्लिया के कैंपस में पुलिस घुसती है और छात्रों को मारती है. 16 दिसंबर को दिल्ली पुलिस कहती है कि उसकी तरफ से कोई गोली नहीं चलाई गई. उसी दिन एनडीटीवी के परिमल कुमार और सुकीर्ति की रिपोर्ट आती है कि तीन लोगों को गोली लगी है. दो सफदरजंग में भर्ती हैं और एक होली फैमिली में. अगले दिन 17 दिसंबर की खबर में होली फैमिली के निदेशक कहते हैं कि तमीम को गोली नहीं लगी है. इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपती है कि दिल्ली पुलिस अब मानती है कि गोली चली है. जांच होगी कि पुलिस ने चलाई या किसी और ने. 18 December को वीडियो आता है कि दो पुलिस वाले गोली चला रहे हैं. सभी देखते हैं कि पुलिस गोली चला रही है और साथ में एक और पुलिस के अफसर हैं. इंडियन एक्सप्रेस की खबर छपती है कि पुलिस ने कहा है कि उसने गोली नहीं चलाई लेकिन इलाके से खाली कारतूस मिले हैं. 5 जनवरी को इंडियन एक्सप्रेस और अन्य जगहों पर खबर छपती है कि केस डायरी के हवाले से की 3 बुलेट फायर हुआ. दो पुलिस वालों ने गोली चलाई और साथ में एसीपी रैंक के अफसर थे.
जामिया को लेकर दिल्ली पुलिस का पहले दिन का दावा था कि गोली नहीं चली है, और कई दिन बीतने के बाद खबर छपती है कि पुलिस ने ही गोली चलाई थी. यूनिवर्सिटी के छात्रों पर गोली चले यह बात प्रमुखता नहीं पाती है क्योंकि तब तक दूसरी घटनाएं जगह ले लेती हैं. इस बार जेएनयू के छात्र उसी तरह जब गोदी मीडिया यह चला रहा था कि जेएनयू में लेफ्ट के गुंडों ने हमला किया है. अगर इसी थ्योरी को लेकर चलें तो सवाल यह होना चाहिए कि लेफ्ट के गुंडे जेएनयू छात्र संघ की प्रेसिडेंट आइशी घोष को यानी अपने ही संगठन की नेता को मारने के लिए नकाब पहन कर आएंगे? इस तरह से अपने ही अध्यक्ष का सर फोड़ देंगे? एक चैनल पर एक बयान मैंने सुना कि जामिया से आए गुंडों ने हमला किया है. पर आइशी घोष और जेएनयू छात्र संघ और शिक्षक संघ तो जामिया के छात्रों के समर्थन में हैं, फिर जामिया से गुंडे आकर वो भी जेएनयू में अपने ही समर्थकों को क्यों मारेंगे?
यही नहीं अब आप एक वीडियो देखिए. नकाबपोश गुंडे आराम से लाठी डंडा लेकर जेएनयू से टहलते हुए बाहर जा रहे थे और न जेएनयू के गेट की सुरक्षा रोकती है और न दिल्ली पुलिस. दोनों के रहते लेफ्ट के गुंडे आराम से जा रहे हैं जिन्हें सरकार के समर्थक कई नेता लेफ्ट टेरर लेफ्ट आतंकवाद कहते हैं. आतंकवादी ऐसे टहलते जाते हैं? जैसे बकरी चरा कर घर जा रहे हों?
क्या आपको लगा कि आईशी को उनके ही छात्र संगठन के सदस्यों ने मारा होगा? उनके सर पर 15 टांके लगे हैं. यह सही है कि जेएनयू कैंपस में दो तीन दिनों से तनाव का माहौल था. अब एक वीडियो दिखाया जा रहा है कि जो दिन के वक्त का है. घटना से बहुत पहले का है. इस वीडियो फुटेज को लेकर दावा किया जा रहा है कि ये नकाबपोश हैं, लेफ्ट के गुंडे हैं. आप खुद देखें इस वीडियो को. इस वीडियो में तो छात्र भागते नज़र आ रहे हैं. सारे लोगों ने अपना चेहरा नहीं ढंका है. कइयों का चेहरा देखा जा सकता है. एक दो के सिर पर हुडी है. चार पांच ने मफलर से चेहरे को ढंका है. एक ने पूरी तरह लपेटा है. किसी ने नकाब नहीं पहना है. इनके हाथों में हथियार नहीं है. आइशी के हाथ में भी हथियार नहीं है. आरोप हैं कि इनके साथ आइशी घोष हैं. यह साबित नहीं है कि शाम के हमलावर यही हैं? या इस वक्त की घटना का शाम की घटना से क्या संबंध हैं? अगर ये हमलावर थे और लेफ्ट के थे तो जेएनयू ने क्यों नहीं कंट्रोल किया? क्या एबीवीपी ने इनकी शिकायत जेएनयू प्रशासन से की थी? क्या अब ये कहा जाएगा कि आइशी घोष अपने साथ गुंडे लेकर जा रही हैं ताकि वो बाद में उनका सर तोड़ दें? एक टीचर का सर तोड़ दें? क्या इन्हीं लोगों ने बाद में हिंसा की? बहरहाल यह जांच का विषय है. आइशी घोष कह रही हैं कि वे साबरमती टी प्वाइंट की तरफ जा रही थीं.
नकाबपोश गुंडे हथियारों के साथ कहां से आए, सवाल ये है. इस छवि और सवाल से हटाने के लिए कितनी मेहनत की जा रही है. हमने इस हमले में घायल प्रो सुचारिता सेन से बात की. उन्होंने बताया कि कैंपस में झगड़ा बढ़ रहा था तो शांति के लिए शिक्षक संघ ने एक कॉल दिया कि साबरमती टी प्वाइंट पर जमा होकर शांति के लिए अपील करेंगे. हिंसा की निंदा करेंगे. साबरमती हॉस्टल का नाम है. वहां पर 40 के करीब शिक्षक थे. 200-300 छात्र थे. प्रो. सेन ने पहले सुना की भीड़ आ रही है फिर देखा कि आ चुकी है. प्रो. सेन और महिला प्रोफेसरों ने तय किया कि वे आगे जाकर घेरा बनाती हैं ताकि उन्हें देखकर कोई हमला न करें. आखिर हमारे देश में औरतें देवी का रूप होती हैं लेकिन उन पर पत्थर चल गया. पहले कंधे पर लगा और फिर सर पर. प्रो. सेन गिर गईं. प्रो. सेन ने कहा कि उनके चेहरे ढंके थे.
प्रोफेसर सुचारिता सेन भूगोल की जानी मानी विद्वान हैं. दुनिया में उनका नाम है. उन्होंने जेएनयू से ही पढ़ाई की है और वहां 1997 से पढ़ा रही हैं. जेएनयू की सुरक्षा व्यवस्था ने न छात्रों को बचाया न अपने प्रोफेसरों को. जेएनयू प्रशासन की तरफ से कोई मीडिया में नहीं आया. वाइस चांसलर ने इतनी बड़ी घटना पर ट्वीट से अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली. यहां एक सवाल बहुत ज़रूरी है. जेएनयू में पुलिस कुछ नहीं कर रही थी तो वो वहां पर जेएनयू की अपनी सुरक्षा है. सुरक्षा सिस्टम है. उस सिस्टम के होने के बाद भी गार्ड ने घटना से पहले, घटना के दौरान या घटना के बाद किसी एक गुंडे को नहीं पकड़ा?
इस तस्वीर में आप देख सकते हैं कि कितने आराम से ये लड़के लाठी डंडे लेकर खड़े हैं. क्या यह संभव है कि जेएनयू की सुरक्षा टीम में से किसी ने नहीं देखा? किसी ने अपने कमांड को सतर्क नहीं किया? जेएनयू की सुरक्षा बेहतर हो इसके लिए 2019 के अक्तूबर में 400 से 500 गार्ड हटा दिए गए. उनकी जगह सेना के रिटायर जवान लाए गए. पहले काम कर रहे गार्ड हाईकोर्ट चले गए. सेना के जवानों को रखा तो गया मगर संख्या घट कर 270 हो गई. फिर भी सेना की ट्रेनिंग वाले जवान इन लाठी डंडा वाले गुंडो पर काबू नहीं पा सके? वे उस वक्त कहां थे, उनके सेंट्रल कमांड को क्या सूचना मिली? छात्रों और शिक्षकों का कहना है कि ये गार्ड चुपचाप खड़े रहे. गुंडों को जो करना था करने दिया.
क्या आपको पता है कि जेएनयू में लाइब्रेरी का बजट करीब 4 करोड़ है और सुरक्षा का बजट 2017-18 के अनुसार करीब सवा 17 करोड़ है. मैंने ये सारी जानकारी द वायर, द प्रिंट और नेयूज़ 18 में छपी रिपोर्ट से ली है. 1 दिसंबर 2019 के रोज़ इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर की याद दिला दूं जिससे आपको जेएनयू की सुरक्षा व्यवस्था को समझने में मदद मिलेगी.
एक्सप्रेस ने पीटीआई के हवाले से खबर लिखी है कि इन सुरक्षा गार्ड ने एडमिन ब्लॉक में प्रदर्शन में छात्रों पर हमला किया था. उन्हें घसीट कर हटाया और सामान फेंक दिए. उसमें कुछ लड़कियों को चोट भी लगी थी. वो सिक्योरिटी गार्ड 5 जनवरी की शाम कहां थे, जिन्हें जेएनयू की सुरक्षा को बेहतर करने के लिए लाया गया था और तीन साल से काम कर रहे 400 गार्ड को हटाया गया था.
दिल्ली पुलिस का जवाब नहीं. तीस हज़ारी कोर्ट में उसकी डीसीपी पर हमला हुआ, लॉकअप में आग लगा दी गई मगर न तो प्रॉपर्टी नुकसान का ज़ुर्माना वसूला गया न पुलिस जामिया की तरह अंदर गई. उल्टा वकीलों ने हड़ताल कर दी और कोर्ट के बाहर दिल्ली पुलिस के एक जवान को मारा. तब गृहमंत्री अमित शाह ने कुछ नहीं कहा. जामिया मिल्लिया में अनुमति नहीं थी लेकिन दिल्ली पुलिस अंदर गई लाइब्रेरी तक गई और छात्र छात्राओं को मारा. जेएनयू में दिल्ली पुलिस भीतर होते हुए भी आदेश का इंतज़ार करती रही. नकाबपोश आए और भाग गए. आप क्रोनोलोजी समझ सकते हैं. आप थेथरोलोजी भी समझ सकते हैं. कितनी अच्छी है दिल्ली पुलिस. दिल्ली पुलिस की यह बात ठीक है कि सुरक्षा की ज़िम्मेदारी जेएनयू की है और वही तो हम पूछ रहे हैं. जेएनयू के गार्ड क्या कर रहे थे? क्या प्रशासन और सिक्योरिटी चीफ को अलर्ट किया? प्रशासन ने पुलिस को पौने आठ बजे क्यों बुलाया? तब तक तो मामला ऐसे भी शांत हो चुका था. सारा हंगामा जेएनयू के गेट पर हो रहा था. हमें यह साफ नहीं है कि अंदर जाकर जेएनयू में पुलिस ने हालात को कैसे संभाला, किसे काबू में किया? साबरमती हॉस्टल के बाहर तैनात गार्ड क्या कर रहा था, उसकी क्या भूमिका रही, यह जानने का विषय है. गार्ड ने हमलावरों को देखते ही वार्डन और सिक्योरिटी अफसर को क्या सूचना दी, उसे जेएनयू के हॉस्टल मैनुअल के अनुसार वार्डन और सिक्योरिटी अफसर को बताना ही है. हॉस्टल में सीसीटीवी कैमरा नहीं है.
जैसे इस लड़की ने चेहरे पर नकाब पहना है. हाथ में तख्ती का टुकड़ा है. क्लोज़ अप करने पर इसका चेहरा साफ साफ नज़र आ जाता है. अभी तक पुलिस इसका भी पता नहीं लगा सकी है. सोशल मीडिया में इसका संबंध एबीवीपी से बताने के कई मैसेज चल रहे हैं, हम उसकी पुष्टि नहीं कर सकते. क्या आप देख पा रहे हैं?
अब आते हैं व्हाट्सएप मैसेज पर जिनसे यह साफ होता है कि जेएनयू का सुरक्षा सिस्टम और दिल्ली पुलिस का अपना सिस्टम क्यों नहीं इन नकाबपोश गुंडों पर काबू कर पाया. क्या इस वजह से कि लाठी डंडा लेकर चलने वालों में कुछ के संबंध अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से साफ-साफ दिखते हैं. एनडीटीवी के अरविंद गुनाशेखर और श्रीनिवासन जैन ने इसकी पड़ताल की है. एक तस्वीर में दो लड़के लाठी डंडा लेकर खड़े हैं. जेएनयू के पूर्वी गेट के पास की है. जो सबसे पहले दिख रहा है उसका नाम विकास पटेल पता चला है. विकास जेएनयू अखिल भारतीय विद्याथी परिषद की कार्यकारिणी परिषद का सदस्य है. पिछले साल यह एबीवीपी जेएनयू का उपाध्यक्ष था. जेएनयू का पूर्व छात्र है. लाठी के साथ खड़े हैं. अब इस तस्वीर को हम ज़ूम इन करते हैं. जिसने नीले और पीले रंग की स्वेट शर्ट पहनी है. यह कई तस्वीरों में दिखता है. इसका नाम शिव मंडल पता चला है. हमारे सहयोगी अरविंद गुनाशेखर ने छात्रों से बात कर बताया है कि यह जेएनयू के स्कूल ऑफ लैंग्वेज का छात्र है, रशियन स्टडीज़ का. प्रथम वर्ष का छात्र है. यही छात्र जो नीले और पीले स्वेट शर्ट में है, रात को कई लड़कों के साथ आराम से बाहर जाता हुआ दिख रहा है. अरविंद गुनाशेखर ने बताया है.
तो क्या एबीवीपी इस हमले में शामिल थी? एबीवीपी ने इस पर सफाई नहीं दी है कि ये उसके सदस्य हैं या नहीं, इनके हाथ में डंडे क्यों हैं? लेकिन वो साफ साफ और बार-बार कह रही है कि यह प्रोपेगैंडा नहीं है. वह हिंसा में शामिल नहीं है. तो क्या लाठी डंडे के साथ खड़े ये लड़के जेएनयू के जंगलों से वन क्रीडा करके लौट रहे थे? वन में जाकर आमोद प्रमोद के लिए वृक्ष शाखाएं तोड़ लाएं हों? अखिल भारतीय विद्याथी परिषद का कहना है कि एबीवीपी की तरफ से सवाल उठाए जा रहे हैं कि यह तस्वीर कब की है, जांच का विषय है. रविवार की शाम बहुत से व्हाट्स एप ग्रुप के स्क्रीन शॉट घूमने लगे. इनमें से एक ग्रुप है फ्रैंड्स ऑफ आरएसएस. दूसरा ग्रुप है यूनिटी अगेंस्ट लेफ्ट. इन मैसेज पर एनडीटीवी के श्रीनिवासन जैन और अरविंद गुनाशेखर ने व्हाट्सएप ग्रुप की बातचीत की भी पड़ताल की है.
इस व्हाट्स एप ग्रुप की बातचीत बता रही है कि जेएनयू पर बाहरी हमले की साज़िश रची गई थी. वक्त है शाम साढ़े पांच बजे का. जब योगेंद्र शौर्य एक लिंक डालता है कि इस ग्रुप को ज्वाइन करें. लेफ्ट टेरर के खिलाफ एकजुट होना है. फिर तीन मिनट बाद 5 बज कर 35 मिनट पर मैसेज भेजता है कि अब पकड़ कर इन लोगों को मार लगनी चाहिए. बस एक ही दवा है. 5 बज कर 39 मिनट पर विकास पटेल का एक मैसेज आता है कि डीयू के लोगों की एंट्री आप खजान सिंह स्वीमिंग साइड से करवाइये. हम लोग यहां 25-30 हैं. योगेंद्र शौर्य भारद्वाज भी एबीवीपी से जुड़ा हुआ है जिसने अपनी ट्विटर और फेसबुक प्रोफाइल अब डिलिट कर दी है. खजान सिंह स्वीमिंग साइड से एंट्री की बात पर संदीप सिंह कहते हैं कि मॉल गेट भी है. जिसका जवाब आता है, योगेंद्र शौर्य का कि आईसीएसएसआर से भी एंट्री है. संदीप पीएचडी का छात्र है. संदीप ने अपनी प्रोफाइल डिलिट नहीं की है.
दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता मंदीप रंधावा ने बताया कि रविवार शाम जेएनयू में कुल 34 छात्र और छात्राओं को चोट लगी थी जिन्हें ट्रामा सेंटर में ले जाया गया और सभी 34 को सोमवार सुबह तक डिस्चार्ज कर दिया गया. यानी कुल 34 ही घायल हुए. अब एबीवीपी दावा करती है कि उसके 25 से अधिक छात्र घायल हुए हैं. तो क्या सारे छात्र एबीवीपी के हैं? तब तो यह और गंभीर है कि जेएनयू में नकाबपोश गुंडे एबीवीपी के लोगों को इस तरह से मार गए. एबीवीपी ने दिल्ली पुलिस और जेएनयू प्रशासन पर इस तरह के आरोप नहीं लगाए हैं कि दोनों फेल रहे हैं. उम्मीद है कि एबीवीपी 25 से अधिक घायल छात्रों को मीडिया के सामने पेश करेगी, और एबीवीपी पर आरोप लगाने वाले 34 छात्रों और शिक्षकों को पेश करेंगे. एबीवीपी की प्रेस रिलीज में सिर्फ एक छात्र का नाम है और उसका बयान एएनआई के ज़रिए आया है. एबीवीपी ने अपनी प्रेस रिलीज़ में कहा है कि वामपंथी छात्र संगठनों से जुड़े गुंडों ने लाठी डंडों से उन पर हमला किया जिसमें एबीवीपी के कई कार्यकर्ता घायल हो गए. जेएनयू छात्र संघ के प्रत्याशी रहे मनीष जांगिड़ का हाथ टूट गया है. हम मनीष जांगिड़ का बयान आपको दिखाना चाहते हैं. इन्हें पता है कि स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन हैं फिर भी मनीष एम्स पर जो आरोप लगा रहे हैं वो गंभीर हैं.
'मुझे मीडिया में बोलने में शर्म आ रही है. इलाज शुरू होने के बाद में वहां पर तमाम आका लोग हैं, वृंदा करात, प्रियंका गांधी, कमलनाथ, योगेंद्र यादव आते हैं और उसके बाद एबीवीपी से पार्शियालिटी हुई. एबीवीपी के लोगों को झेलनी पड़ती है. हम लोग सबसे पहले एम्स जाने वाले हैं और रात साढ़े तीन बजे तक हमारा इलाज नहीं होता है. बाद में हमने लोकल प्रशासन से अपील की तो स्टाफ चेंज हुआ तब जाकर हमारा इलाज हुआ.'
सोचिए मनीष जांगिड़ कह रहे हैं कि रात तीन बजे तक उनका इलाज नहीं हुआ. जबकि आठ बजे से ही घायल छात्रों का ट्रॉमा सेंटर पहुंचना शुरू हो गया. क्या मनीष जांगिड़ अपने इलाज के समय को लेकर सही बोल रहे हैं? बीजेपी के सोशल मीडिया के राष्ट्रीय प्रभारी अमित मालवीय ने रात 11 बज कर 50 मिनट पर एक वीडियो ट्वीट किया था. इस ट्वीट में वही मनीष जांगिड़ हैं जिन्हें आपने अभी बोलते सुना और जिनकी बात एबीवीपी ने प्रेस रिलीज में की है. इस वीडियो में आप देखेंगे कि जिसमें मनीष जांगिड़ अकेले बैठे हैं और बयान दे रहे हैं. उनके हाथ में आप प्लास्टर देख सकते हैं यानी उनका इलाज हो चुका था.
तो आपने देखा कि इस वीडियो में मनीष के हाथ में पट्टी है, प्लास्टर है. रात 11.50 का है फिर भी मनीष जांगिड़ कह रहे हैं कि रात तीन बजे तक इलाज नहीं हुआ. जबकि प्लास्टर के साथ उनका वीडियो 12 बजे ही आ गया था. आगे फिर मनीष ने कहा, 'एक डाक्टर को पूरे देश में जीवन रक्षक कहा जाता है. उस वक्त कोई भी एबीवीपी का कार्यकर्ता इस सिचुएशन में नहीं था कि मीडिया के सामने आकर बोल सके. प्रियंका बोलीं, हम प्रियंका से बोले तो उन्होंने इग्नोर किया. और जैसे प्रियंका आने वाली थीं ऐसे लोगों को हास्पिटल के कपड़े पहनाकर व्हील चेयर पर बिठा दिया गया जिनको एक खरोंच तक नहीं आई थी. जो हास्पिटल का प्रशासन है वो तुरंत प्रियंका के आगे सरेंडर हो जाता है. हमको ट्रामा सेंटर से बाहर निकाल दिया जाता है. हम लोग दूसरे रूम में खड़े होते हैं. फिर कुछ डाक्टर आते हैं और देखते हैं कि सीवियर कंडीशन हैं तो हमारा एक एक कर इलाज होता है. बारह घंटे सॉरी 8 से 10 घंटे लग जाता है.'
सुना न आपने. हिन्दी में मनीष जांगिड़ कह रहे हैं कि एम्स ने ऐसे ऐसे लोगों को अस्पताल के कपड़े पहनाकर व्हील चेयर पर बिठा दिया ताकि प्रियंका गांधी को दिखाया जा सके? मैं नहीं चाहता कि आप इस बयान पर हंसें. रविवार रात को हंगामा हो रहा है. गृहमंत्री अमित शाह दिल्ली के उप राज्यपाल से बात कर रहे हैं. इधर एम्स वाले ठीक ठाक लोगों को अस्पताल के कपड़े पहनाकर व्हील चेयर पर बिठा रहे हैं ताकि प्रियंका गांधी घायलों से मिल सकें. अब आप हंस सकते हैं. देखिए थेथरोलोजी को समझ लेंगे तो क्रोनोलोजी समझ जाएंगे. देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन हैं प्रियंका गांधी नहीं हैं. ऐसे तर्कों के बीच आप किस पर भरोसा करेंगे. मनीष जांगिड़ ने आरोप लगाया है कि आइशी के जनरल सेक्रेट्री सतीश चंद यादव ने मारा जो एक भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे. उनके साथ मारपीट करने वालों में आइशी भी शामिल थीं. मनीष ने भी एक व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़े होने की बात की है.
थीम एंड थ्योरी के नाम पर जेएनयू के मामले को उलझाया जा रहा है. फीस वृद्धि के खिलाफ तो एबीवीपी ने अपने शिक्षा मंत्री के खिलाफ प्रदर्शन किया था. लेफ्ट के छात्रों ने भी किया था. नकाबपोश कौन लाया? जैसे जामिया का मामला उलझा दिया गया. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का तो पता ही नहीं चला वहां क्या क्या हुआ. 2017 में रामजस कॉलेज की हिंसा का आज तक पता नहीं चला. शाम को जब प्रेस के लोग कवर करने गए तो उनके साथ हिंसा क्यों हुई.
आज तक के आशुतोष मिश्रा ने जब वहां पर कानून व्यवस्था का सवाल उठाया तो उनके साथ धक्का मुक्की क्यों हुई? यह भीड़ अभिषेक मिश्रा पर टूट पड़ी. क्या ये भी लेफ्ट के गुंडे थे? अभिषेक को नक्सल और जिहादी बोला गया. कौन लोग थे जो पत्रकारों से बदतमीज़ी कर रहे थे, कैमरे तोड़ रहे थे, मोबाइल फोन छीनने की कोशिश कर रहे थे? पुलिस ने तब मदद क्यों नहीं की? योगेंद्र यादव के साथ भी बहुत बुरा हुआ. योगेंद्र एसी कमरे वाले इंटेलेक्चुअल नहीं हैं. जामिया के वक्त भी योगेंद्र ने अपनी ज़िम्मेदारी समझी और भागे भागे गए वहां. वे जेएनयू की खबर सुनते हुए भी भागे. क्या आपको लगता है कि ये लेफ्ट के छात्र योगेंद्र को मार रहे हैं? क्या आप वाकई इतने मासूम हैं? योगेंद्र को मारा गया. उनकी आंख किसी तरह बच गई.