भारत में असंतुलित बाल-लिंग अनुपात देश के सामने बड़ी चुनौती बन चुका है। यह चुनौती सिर्फ सरकार के लिए नहीं है परंतु पूरे समाज के लिए गंभीर है। भारत सरकार ने 100 ऐसे जिलों को चिन्हित किया जिसमें बाल-लिंग अनुपात लगातार कम होता जा रहा है। इस समस्या से निपटने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' की शुरुआत जनवरी 2015 में की।
नए आंकड़ों के अनुसार 0-6 वर्ष के बच्चों के बीच पिछले 50 वर्षों में बाल लिंगानुपात में प्रति हज़ार बच्चों में 1961 में 976 से गिरकर 2011 में 918 हो जाना निश्चित ही किसी राष्ट्रीय चिंता से कम नहीं है। जहां एक तरफ भारत सरकार इसे प्राथमिकता देते हुए 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' मुहिम चला रही है, वहीं लड़कियों की शिक्षा और उनके विकास पर नजर रखने वाली एजेंसियों की रिपोर्ट चिंताजनक है ।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक सुनियोजित लिंग भेद के कारण भारत की जनसंख्या से 5 करोड़ लड़कियां और महिलाएं गायब हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक भारत में प्रत्येक दिन औसतन 2000 कन्या भ्रूण का गर्भपात होता है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक भ्रूण जांच कराने में बेटा की चाह रखने वाले कई फिल्म एवं खेल जगत के सितारे भी शामिल हैं। इन स्थितियों में यह प्रश्न उठता है कि क्या सचमुच 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ'मुहिम अगले कुछ वर्षों में वास्तविक परिस्थिति को बदल पाएगी या फिर इस मुहिम का यथा शीघ्र मूल्यांकन कर इसके क्रिन्यावयन को ज़्यादा सुदृढ़ बनाने की ज़रूरत है?
इस कार्यक्रम की रूप-रेखा को ध्यान से समझना एवं इसके क्रियान्वयन की प्रभावशीलता को आंकना अति आवश्यक है। वैसे तो कार्यक्रम की प्रभावशीलता मुहिम के प्रचारों को सुनकर एवं देखकर ऐसा लगता है कि लगभग 200 करोड़ वाली योजना का क्रियान्वयन भी ज़मीनी स्तर पर भी तेज़ गति से चल रहा होगा। परंतु जिलों में क्रियान्वयन की वास्तविक स्थिति केंद्र सरकार की उम्मीदों से अभी दूर है।
हालांकि कार्यक्रम में क्रियान्वयन की प्रक्रिया में उल्लेखित है कि इसकी ज़िम्मेदारी में राज्य, जिला, प्रखंड एवं पंचायत स्तर पर विभिन्न अधिकारियों की भागीदारी सुनिश्चित की गई है। बावजूद इसके अभी तक कई जिलों में अधिकारियों ने इसकी सुध नहीं ली है। कार्यक्रम के अंतर्गत इन स्तरों पर सरकारी समितियों के गठन एवं क्रियान्वयन की बात रखी गई है।
सर्वप्रथम यह जानना ज़रूरी है कि 100 में से कितने जिलों ने सभी स्तर की समितियां बना ली हैं और कितने समितियों की बैठक नियमित रूप से हो रही है। सभी जिलों के पास अपनी 'जिला कार्य योजना' होनी चाहिए जिसके मुताबिक वे अपने जिले में इस मुहिम को ज़मीन पर उतारने का कार्य करेंगे एवं केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजेंगे।
गौरतलब है कि 2 वर्ष 6 महीने चलने वाली इस कार्यक्रम का एक वर्ष एवं छह महीना बीत चुका है और सिर्फ एक वर्ष के लिए बारहवीं योजना के तहत बजट शेष है। बीते महीनों में कई जिलों ने अपनी समितियां तक ठीक से गठित नहीं की हैं और समितियां यदि बनी हैं तो जिला कार्य योजना के तहत उन्होंने क्रियान्वयन शुरू नहीं किया है। वरिष्ठ अधिकारियों के प्रयासों के बावजूद भी बिहार के वैशाली जिले का अनुभव यह बताता है कि अभी तक सभी पक्षों में इस घोर सामाजिक मुद्दे को खत्म करने के लिए तालमेल नहीं बन पाया है। एक कार्यशाला में डॉक्टरों और अधिकारियों के बीच झगड़े की कहानी वहां के अख़बारों की सुर्ख़ियों में बना रहा। केंद्र सरकार को सभी ज़िलों से ''एक्शन टेकन रिपोर्ट'' जल्द ही मंगवानी चाहिए।
'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' मुहिम के तीन उद्देश्यों में से एक लिंग-जांच को रोकना प्रमुख है ताकि कन्याओं के जन्म बाधित न हो सकें। लिंग जांच की अनगिनत विडंबनाएं हम अक्सर समाचारों में देखते रहते हैं। इस मुहिम की मार्गदर्शिका में पुलिस विभाग की अहम भूमिका को कहीं पर भी उल्लेखित नहीं किया गया है। यदि जल्द ही इस कार्यक्रम को ज़मीनी स्तर पर मज़बूत नहीं किया गया तो हम कहीं इतने बड़े बजट को व्यर्थ ना गंवा बैठें। इसके साथ-साथ एक ऐसा मौका भी गंवा देंगे जिससे कि भ्रूण हत्या जैसी घिनौनी समाजिक विपदाएं खत्म नहीं हो पाएंगी।
इस कार्यक्रम के सही क्रियान्वयन के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय एवं महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को जल्द ही वास्तविकता की जांच करनी चाहिए और कार्यक्रम के मापदंड को मज़बूत करना चाहिए। कार्यक्रम की सफलता ज़मीनी स्तर पर समितियों एवं अधिकारियों के कार्य पर टिकी हुई है। सभी समितियों की बैठकों की वीडियो रिकॉर्डिंग और उसका संग्रह अनिवार्य कर देना चाहिये। बैठकों में सिर्फ हाजिरी बनाने वाले अधिकारी ज़िम्मेदारी पूर्वक अपनी भूमिका निभाने के लिये मज़बूर होंगे एवं उद्देश्य पूर्वक चर्चा करेंगे।
ग्रामीण स्तर से लेकर प्रखंड स्तर तक एवं जिला स्तर से लेकर राज्य स्तर तक के टास्क फोर्सों की बैठक का वीडियो प्रमाण होना चाहिये। इससे सभी स्तर पर जिम्मेदारियां तय हो पाएंगी और यह माध्यम कागज़ी प्रलेखन से ज़्यादा कारग़र साबित होगा। यदि यह कार्य जिला अधिकारियों को परेशानी भरा लगे तो इस कार्य के लिए सरकार निजी कंपनियों से भी कार्य सम्पन्न करवा सकती है।
कार्यक्रम में सोशल-ऑडिट की बात कही गई है, जिसके लिए मुहिम का आखिरी समय तक इंतज़ार न करके जल्द ही राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों अथवा विश्वास करने योग्य संस्थानों से करवानी चाहिए ताकि प्रत्येक जिला का आकलन स्वतंत्र रूप से हो सके। जिला स्तर पर भी विभिन्न क्षेत्र से जुड़े एवं इस महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दे पर मदद करने को तत्पर व्यक्तियों को जिला टास्क फ़ोर्स में शामिल करना चाहिए। जिला कार्य योजना का क्रियान्वयन सिर्फ जिला के सरकारी अधिकारियों पर नहीं छोड़ना चाहिए। इससे समाज के लोगों को इस ख़ास मुहिम में शामिल किया जा सकता है।
'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' मुहिम समूचे देश के गरिमा को बचाने एवं लड़कियों के घटते जन्म को रोकने का अनूठा प्रयास है। समूचे देश के सामने यह चुनौती है कि लगातार कम हो रहे बाल लिंग अनुपात को कैसे रोका जाए। केंद्र सरकार के लिए यह ज़रूरी है कि इस योजना में आवंटित बजट का सही उपयोग करवाएं, समय सीमा को ध्यान में रखते हुए नए तरीकों से जिलों की जिम्मेदारी तय करें, प्रत्येक ज़िला के प्रयासों एवं कार्य को हर महीना वेबसाइट में प्रकाशित किया जाए ताकि कार्य पद्धति में पारदर्शिता आये।
केंद्र सरकार की 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' वेबसाइट प्रत्येक माह 100 जिलों के मासिक उपलब्धियों से अपडेट होना चाहिये। वर्तमान में यह वेबसाईट कार्यक्रम की प्रभावशीलता को नहीं दर्शा पा रही है। देश में बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ योजना की रुपरेखा के साथ ही उस पर तत्परता से सक्रिय क्रियान्वयन की आवश्यकता है। इस समस्या से निपटने का काम मुश्किल ज़रूर है पर असंभव नहीं है ।
(डॉ संजय कुमार हार्वर्ड विश्वविद्यालय में मेसन फैलो रह चुके हैं एवं ‘सेवा’ भारत के निदेशक हैं।)
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This Article is From Jul 13, 2016
असंतुलित लिंग-अनुपात और 'बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ' अभियान...
Dr Sanjay Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 13, 2016 17:13 pm IST
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Published On जुलाई 13, 2016 17:13 pm IST
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Last Updated On जुलाई 13, 2016 17:13 pm IST
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