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This Article is From Jun 02, 2015

प्रियदर्शन की बात पते की : एक पुरुष के भीतर एक स्त्री

Priyadarshan
  • Blogs,
  • Updated:
    जून 02, 2015 21:44 pm IST
    • Published On जून 02, 2015 21:31 pm IST
    • Last Updated On जून 02, 2015 21:44 pm IST
1976 के मांट्रियल ओलिंपिक में ब्रूस जेनर ने डेकाथेलॉन में स्वर्ण पदक जीता। डेकाथेलॉन यानी दस खेलों की प्रतियोगिता जिसमें दुनिया भर के मर्दों की असली ताकत का इम्तिहान होता है। लेकिन जब ब्रूस दौड़ते थे तो उनके भीतर एक औरत भी दौड़ती थी।

वह लगातार उनके भीतर दौड़ती रही। पूरे 64 बरस बाद वो बाहर आई है। उसके बाहर आने से दुनिया हैरान है। वो देख रही है कि अपने जिस सितारे को वो इतने सारे बरसों में मर्द की तरह पहचानती रही, वो औरत निकली। लेकिन इतने बरस तक ब्रूस ने ये सच्चाई क्यों छुपाए रखी? क्या वे अब तक डरती रहीं? या वो इससे बेख़बर थीं?

ये भी संभव है कि ब्रूस के भीतर के मर्द ने इस औरत को मारना चाहा हो- उसे अपने भीतर बार-बार कुचला हो, दबाया हो। लेकिन औरतें पिटती हैं, दबती हैं, आसानी से मरती नहीं। उनके भीतर एक आत्मा जैसे किसी लौ की तरह जलती रहती है। वह लौ ब्रूस के भीतर भी जलती रही और उसने आख़िरकार अपना एक जिस्म, अपना एक आकार हासिल कर लिया। उन्होंने अपना यौन-परिवर्तन कराया और अब वो कैटलिन जेनर हैं। यही नहीं, इस उम्र में उन्होंने वैनिटी फेयर के लिए फोटो शूट किया है।

ब्रूस जेनर की कहानी हमें क्यों छूती है? हमारे समाज में औरत होना आसान काम नहीं है। इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। सब जैसे मान कर चलते हैं कि औरत होने का मतलब कमज़ोर होना है। सब उसका इम्तिहान लेना चाहते हैं। औरत भी आगे बढ़ती है तो कई बार मर्द होने की कोशिश करती है। लेकिन यहां एक मर्द है जो औरत बनकर खुश है। क्योंकि इसी में उसे अपना वजूद सार्थक लगता है।

इससे ये समझ में आता है कि औरत और मर्द के जो सामाजिक कठघरे हमने बनाए हैं, वे अंतिम नहीं हैं, जो यह समझ बनाई है कि औरत जिस्मानी तौर पर कमज़ोर होती है और मर्द मजबूत, वह सही नहीं है। दरअसल हर स्त्री के भीतर एक पुरुष होता है, हर पुरुष के भीतर एक स्त्री। पुरुष पहले अपने भीतर की इस स्त्री को मारता है और फिर एक अपराध बोध में जीता दुनिया भर की औरतों को अपने से हेय समझता है।

लेकिन एक स्त्री अपने भीतर के पुरुष को भी पाल लेती है और खुद को भी बचाए रखती है- शायद इसीलिए ये संभव होता है कि एक ओलिंपिक विजेता अपना जीता हुआ सोना, अपना बनाया हुआ रिकॉर्ड, अपनी हासिल की हुई शोहरत और अपना बसाया हुआ परिवार- सब जैसे छोड़कर अपने वजूद को तलाशता है और फिर महसूस करता है कि वह दरअसल स्त्री है- सबसे सुंदर बात ये है कि इस महसूस करने में न कोई संकोच है, न सतहीपन, बस एक मानवीय अभिमान जो अपनी नई पहचान बना रहा है।

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