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This Article is From Apr 11, 2022

अधिकारों की लड़ाई संविधान की अदालतों में नहीं, धर्म के चौराहों पर हो रही...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 11, 2022 23:41 pm IST
    • Published On अप्रैल 11, 2022 23:40 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 11, 2022 23:41 pm IST

ऐसा कोई हफ्ता या दिन नहीं गुज़रता है, जब देश के किसी हिस्से से ऐसी ख़बरें नहीं आतीं कि एक दल किसी को खाने से रोक रहा है,एक दल किसी को मंदिर के बाहर तरबूज बेचने से रोक रहा है, अधिकारों की लड़ाई संविधान की अदालतों में नहीं, धर्म के चौराहों पर हो रही है. अधिकार का फैसला धर्म के आधार पर हो रहा है. संविधान की पंचायत में सुनवाई ऐसे होती है जैसे आज से पहले यह विषय नहीं आया हो इसलिए पंच समझने के नाम पर तारीखों का सहारा ले रहे हैं.हर दिन बहस का उत्पादन किया जा रहा है.इन घटनाओं की संख्या को अगर आप भारत के मानचित्र पर रखकर देखेंगे तो पता चलेगाा कि आप नज़रअंदाज़ कर दें या निंदा कर दें, दोनों ही बातों से कोई असर नहीं पड़ता है. इन धार्मिक अतिक्रमणों और आक्रमणों के सहारे समाज के मिडिल क्लास को एक किस्म के धार्मिक और मानसिक सुख की सप्लाई होती है. उसे इस खुजली से आनंद मिल रहा है. हर जगह नया भारत और सबका भारत बनाने के नारे तो लिखे हुए हैं लेकिन इन्हीं नारों की आंखों के सामने एकतरफा भारत भी बनता दिखाई दे रहा है. 

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में जो हुआ है, उसे आप तर्कों और तथ्यों से नहीं समझ सकते क्योंकि समझने की वायरिंग चेंज हो चुकी है. तथ्य तो होंगे ही लेकिन लोग उसी चश्मे से इस घटना को देखेंगे जिससे जे एन यू देशद्रोही दिखता है, धर्म विरोधी दिखता है.जेएनयू प्रशासन का लिखित का बयान है कि हवन को रोकने का प्रयास हुआ लेकिन मना लिया गया शांति से हवन हुआ इसके बाद भी रात के भोजन के वक्त हंगामा हुआ. लेकिन प्रशासन के जवाब में छात्रों के उन आरोपों के जवाब नहीं हैं कि मांसाहारी खाना रोका गया तो कई लोगों के लिए खाने की कमी हो गई. तथ्य तो यह भी हैं, यह वीडियो जो जनवरी 2020 का है, जब जेएनयू के साबरमती हास्टल में इस तरह से गुंडे घुस आए थे और हमला कर दिया था. क्या इनमें से कोई पकड़ा गया है, क्या ऐसी घटनाओं में शामिल किसी को भी सज़ा हुई है? तब फिर यह सवाल कहां से गलत हो जाता है कि सज़ा किसे होगी, इस बहस के उत्पादन से पहले से तय हो चुका होता है जब दिल्ली में निगम के आदेशों से  मांसाहार बैन का विवाद राजनीतिक रुप नहीं ले सका तब रामनवमी खत्म होते होते जे एन यू में पैदा हो ही गया. इस दिल्ली में दशकों से नवरात्रि मनाई जाती रही है लेकिन कभी इस तरह से मांसाहार रोकने का विवाद पैदा नहीं हुआ. क्या यह केवल एक धर्म विशेष के दुकानदारों पर हमला है? इसका जवाब हां तो है ही लेकिन यह पूरा जवाब नहीं लगता. 

हर धर्म के लोग गली गली में मांस मछली और मुर्गा और अंडा बेचते हैं. क्या किसी ने सोचा कि दस दिन तक ये क्या कमाएंगे, क्या खाएंगे. कहीं ऐसा तो नहीं कि इस तरह के विवादों से डर पैदा कर इन लोगों से हफ्ता वसूली का नया रेट तय होने वाला हो या फिर मांस मछली के काराबोर में लगी बड़ी कंपनियों के लिए देसी बाज़ार का विस्तार किया जा रहा हो? कैमरे पर तो कोई नहीं कहेगा लेकिन जब आप दुकान जाएं तो पता कर सकते हैं कि हफ्ता कितना बढ़ गया है और कौन ले रहा है. कर्नाटक में जिन दिनों हलाल बनान झटका का विवाद चल रहा था उन्हीं दिनों राज्य में नव वर्ष की शुरूआत होने के उपलक्ष्य में मांसाहार का आयोजन किया जाता है. इन विवादों से नफरत फैलती रही और मांस की बिक्री भी जारी रही. बल्कि मटन की बिक्री दोगुनी हो गई. 

इस तरबूज़ का क्या कसूर था, क्या इतना कि इसे बेचने वाला मुसलमान है और धाड़वाड़ के हनुमान मंदिर के बाहर बेच रहा था. बुजुर्ग नबी साहब को आज तक किसी ने मंदिर के सामने फल बेचने से नहीं रोका, लेकिन अचानक यह सब क्यों हुआ. पुलिस ने मामला दर्ज किया और कुछ लोगों को गिरफ्तार किया है.मेले से किसी धर्म के लोगों को निकाला जा रहा है, किसी दिन किसी जाति के लोगों को निकाला जाएगा, किसी दिन किस दल को वोट न करने पर दुकान हटा दी जाएगी. अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं कि त्योहारों में पंडालों के बाहर हर तरह का खाना मिलता है और जिन्हें नहीं खाना होता है और जो खाते हैं दोनों आराम से अपनी आराध्य के सामने सर झुकाकर चले जाते हैं. 

आप धार्मिक ग्रंथों से अनेक उदाहरण दे सकते हैं, संविधान के अनुच्छेदों से उदाहरण दे सकते हैं मगर किसे देना हैं, जो ऐसा कर रहे हैं उन्हें यह सब ख़ूब मालूम है, उन्हें फिर भी ऐसा करना है.  ऐसी घटनाओं सरकार के विज्ञापनों में लिखें सबका विकास और नया भारत के नारों को चुनौती दे रही हैं.

यूक्रेन के संकट में अपनी भूमिका तलाश रहे भारत के प्रधानमंत्री रूस और अमेरिका के संबंधों में संतुलन साधने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन ऐसा क्यों हैं कि अपने ही देश के कई राज्यों में खाने पीने पहनने रहने के मुद्दों को लेकर एक समुदाय दूसरे समुदाय को लगातार धक्का दे रहा है और उसमें प्रधानमंत्री की कोई भूमिका नहीं होती? क्या ऐसे मामलों में बोलना प्रधानमंत्री का काम नहीं है? उन्हें नहीं बोलना चाहिए कि सब बंद होना चाहिए. बिहार के मुज़फ्फरपुर के पारू थाना में एक मस्जिद पर झंडा फहराने का क्या तुक था, क्या यह भी पूजा वंदना का हिस्सा है,  क्या ये उकसाना नहीं है,किसी समुदाय को अपमानित करना नहीं है? क्या हम सबका भारत के नाम पर एकतरफा भारत बनता हुआ नहीं देख रहे हैं? 

कई राज्यों से सांप्रदायिक टकराव की खबरें हैं. मध्य प्रदेश के खारगोन में कर्फ्यू लगानी पड़ी. एसपी को लगी गोली है. 6 पुलिसकर्मियों सहित दो दर्जन लोग घायल हो गए. कई लोगों को हिरासत में लिया गया है. गुजरात के हिम्मतनगर और खंभात से भी हिंसा की खबरें हैं और बंगाल से भी हिंसा की खबरें हैं. हर जगह कारणों के डिटेल अलग हैं.जिस तरह के नारे लग रहे हैं और गाने बजाए जा रहे हैं, उन्हें न तो सुना जाता है और न सुनाया जाता है. बड़ी संख्या में युवाओं को इन धुनों पर नाचने और तलवारें लहराने के लिए जुटा लिया गया है. इन बहसों की डिज़ाइन देखिए,आपको हमेशा एक पक्ष का ही पलड़ा भारी दिखेगा और उसी का नियंत्रण दिखेगा. जो उकसा रहा है वही पीड़ित बनने का कार्ड खेल रहा है. जीवन जीने और निजी पसंद के अधिकार पर धर्म के अधिकार का कब्ज़ा हो गया है.ऐसा लगता है कि इस देश में इस अधिकार को लागू कराने वाली संस्थाएं नहीं बचीं, न रोकने का नैतिक बल बचा है. नेहाल किदवई बता रहे हैं कि इन नफरती नारों और बहिष्कारों के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज कराना कितना मुश्किल होता जा रहा है.

अगर पहले हो चुकी घटनाओं और मामलों का इतिहास देखेंगे तो पता चलेगा कि जांच के नाम पर क्या हो रहा है.देश आर्थिक चुनौतियों से गुज़र रहा है और मिडिल क्लास का एक तबका धर्म के आधार पर नफरत के मानसिक सुख से गुज़र रहा है.इसी समय में एकतरफा श्रीलंका बनाने वाली जनता इन दिनों सबका श्रीलंका का राग अलापने लगी है जब हम सबका भारत के नाम के पीछे एकतरफा भारत का एजेंडा लागू होते देख रहे हैं.

74 साल से नस्ल और धर्म के आधार पर लड़ते लड़ते श्रीलंका आज एकता की भाषा बोल रहा है. इस भाषा तक पहुंचने में आर्थिक तबाही को आना पड़ा, सब कुछ बर्बाद होना पड़ा तब जाकर वहां के 18 से 40 साल के युवा पुराने झगड़ों को बुलाकर एकता की बात कर रहे हैं. श्रीलंका में तमिल हिन्दू भी हैं, ईसाई भी हैं. वहां हिन्दू और ईसाई एक तरफ हैं. भारतीय मूल के तमिल हैं और हज़ारों साल से बसने वाले श्रीलंकाई मूल के तमिल हैं लेकिन दोनों तमिल एक दूसरे के खिलाफ हैं. श्रीलंका के मुसलमान भी तमिल ही बोलते हैं फिर भी तमिल भाषा उनकी पहचान का हिस्सा नहीं है. लिट्टे के दौर में प्रभाकरण यहां के मुसलमानों को गद्दार कहा करते थे. अंग्रेज़ जब श्रीलंका छोड़ कर गए तो वहां की नौकरियों से लेकर सत्ता की हर कुर्सी पर तमिल लोगों का कब्ज़ा था. ज़ाहिर है असंतोष बढ़ना था और सिंहली बौद्ध को दावेदारी करनी थी. राजनीति शुरू हुई कि बहुमत की भाषा सिंहली को मान्यता मिले. तमिल नाराज़ हो गए तो गृह युद्ध हो गया. अब श्रीलंका में गृह युद्ध समाप्त हुआ,

सिंहली, तमिल को मान्यता मिल गई और अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा मान लिया गया. तब भी कई साल तक तमिल का सिंहली और सिंहली का तमिल पर पूरा भरोसा नहीं बना. सब एक दूसरे पर शक करते रहे. राजापक्षे की सरकार सिंहली बौद्ध बहुमत की सरकार मानी जाती थी और उन्हें भी स्ट्रांग मैन कहा जाता था. लेकिन देश जब आर्थिक संकट में गया तो लोगों को होश आ गया कि ये बहुमत अल्पमत का खेल सबको गर्त में पहुंचा चुका है. किसी के पास खाने के लिए भोजन औऱ दवा नहीं है. यही कारण है कि श्रीलंका में एकता के नारे लग रहे हैं. एकता की इस नई ताकत ने दशकों पुराने अविश्वास और झगड़े को खत्म कर दिया है.

इस एकता के आगे सत्ता में रहते हुए राजापक्षे की शक्ति चली गई है.  दो तिहाई बहुमत होने के बाद भी उनके सांसद अलग बैठ रहे हैं. कैबिनेट ने इस्तीफा दे दिया लेकिन कोई मंत्री बनने को तैयार नहीं है. जिस श्रीलंका में हर समुदाय के लोग एक दूसरे पर शक कर रहे थे वहां पर आर्थिक फैसले लेने वाली तीन बड़ी संस्थाओं का नेतृत्व तीनों प्रमुख समुदाय के लोग कर रहे हैं. सेंट्रल बैंक के भ्रष्ट गवर्नर की जगह नंदलाल वीरासिंघे को गवर्नर बनाया गया जो सिंहली बौद्ध हैं. आर्थिक मामलों पर फैसले लेने के लिए एक आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन हुआ है जिसके अध्यक्ष इंद्रजीत कुमारस्वामी हैं जो कि तमिल हैं. वित्त मंत्री अली साबरी को बनाया गया है जो मुसलमान हैं. इस तरह आपस में लड़ने वाला श्रीलंका इस संकट के समय एकजुट हो गया है. ऐसा श्रीलंका के इतिहास में कभी नहीं हुआ. 

श्रीलंका में राष्ट्रपति को अकूत अधिकार है. जो राष्ट्रपति चुनता है वही प्रधानमंत्री से लेकर सारे मंत्री को चुनता है. इसलिए वहां 74 वर्षों में कई परिवारों का शासन रहा है. जो भी राष्ट्रपति बनता है हर कुर्सी पर अपने परिवार को बिठा देता है. सेनानायके परिवार, भंडारनायके परिवार, जयवर्धने परिवार, प्रेमदासा परिवार औऱ राजापक्षे परिवार. लोगों ने नस्ल के नाम पर नफरत करते करते राजनीति को खोखला कर दिया और इसका लाभ उठाकर कुछ लोगों ने सारा धन अपने पक्ष में कर लिया. लोगों को इस एकता पर यकीन नहीं हो रहा है, उन्हें लगता है कि जल्दी ही फिर से सब अपने अपने खेमे में बंट जाएंगे.एक्सप्रेस में निरुपमा सुब्रमण्यन ने लिखा है कि लोग नारे लगा रहे हैं कि न हम वर्ग के आधार पर विभाजित हैं न नस्ल के आधार पर. एम के स्टालिन ने श्रीलंका के तमिलों के लिए मदद भेजने की बात की तो वहां के तमिल नेताओं ने मना कर दिया कहा कि मदद भेजें तो सबके लिए भेजें. यहां केवल तमिल ही परेशान नहीं हैं. मदद आए लेकिन सबके लिए आए.

श्रीलंका का एक अखबार है डेली मिरर. उसने अपने संपादकीय में लिखा है कि कैसे सरकार की वजह से श्रीलंका में नस्लभेद खत्म हो गया. ये और बात है कि सरकार में आने के लिए राजापक्षे ने उसी नस्लभेद और अतीत के गौरव की स्थापना की राजनीति को हवा दी थी. डेली मिरर ने लिखा है कि 

राशन औऱ तेल जैसी ज़रूरी चीज़ों के लिए कतार में लगे श्रीलंका के लोग एक समान नज़र आ रहे हैं. लेकिन जब 2019 में वहां राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हुआ था तब वहां के लोग नस्लों के आधार पर बंटे हुए थे. राजापक्षे ने वादा किया कि सिंहला बौद्धों के अधिकारों की स्थापना की जाएगी, सिंहला बौद्धों को लगा कि मज़बूत नेता आ गया है.इस तरह की बातें हो रही थीं कि मुसलमान दुकानदार खाने पीने की चीज़ों में रसायन मिलाते हैं जिससे सिंहला बौद्ध पुरुषों की नसबंदी हो जाएं. श्रीलंका के लोग राजापक्षे के पीछे पागल थे कि यह व्यक्ति उन्हें उनका देश वापस लाकर देगा जैसे कि उनका देश कहीं खो गया था. डेली मिरर ने लिखा है कि राजापक्षे भी शान से कहने लगे थे कि उन्हें केवल सिंहली बौद्ध लोगों ने चुना है लेकिन राष्ट्रपति सबके हैं. 

नस्ल के अधार पर अल्पसंख्यकों को सत्ता से हटाने के लिए तरह तरह के नियम बनाए जाने लगे. तभी आर्थिक संकट का पहाड़ टूट पड़ा. लोग सड़क पर आ गए, तमिल मुसलमानों और तमिल हिन्दुओं से नफरत का मानसिक सुख भयानक आर्थिक दुख के आगे बिखर गया. जो लोग सिंहला बौद्ध गौरव के नाम पर राजापक्षे के हर फैसले को आंख बंद कर समर्थन दे रहे थे वे आंखें खोलकर घंटे गिन रहे हैं और राशन की कतारों में खड़े हैं. जिन किसानों ने राजापक्षे को खूब वोट किया वह खेती में रसायनों के इस्तेमाल पर रोक से बर्बाद हो गए. तेल नहीं मिल रहा है तो मछुआरे भूखे हैं, मछली पकड़ने समंदर नहीं जा सकते.

श्रीलंका का सबक यही है कि धर्म या नस्ल के नाम पर नफरत के असर में लोगों ने अपने ही चुने नेता की हर गलती को अनदेखा किया और खुद को गटर में पहुंचा दिया. इसी डेली मिरर अखबार में 30 मार्च 2019 का एक लेख छपा है. तब श्रीलंका के एक सांसद ने संसद में कहा था कि जिन कारपोरेट संस्थानों के मालिक या प्रमुख मुसलमान हैं, उनके खिलाफ तरह तरह की अफवाहें फैलाई जा रही हैं, इससे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान हो सकता है.अप्रैल 2020 में इस तरह के लेख छप रहे थे कि कोविड के नाम पर तरह तरह की सेंशरशिप लगाई जा रही है, लोगों को चुप करा कर अजीब तरह के फैसले लागू किए जा रहे हैं. मुसलमानों को दुश्मन बताने की मशीन फिर से चालू कर दी गई है कि मुसलमान संक्रमण फैलाने की साज़िश कर रहे हैं याद कीजिए उसी समय भारत में तबलीग ज़मात को लेकर यही सब चल रहा था. वहां का मीडिया भी यही काम कर रहा था, राजनेता भी इसी तरह की बातें कर रहे थे. नफरती भाषण चरम पर था, सरकार चुप थी, लोग चुप थे. 

आज सब बोल रहे हैं तब जब सब बर्बाद हो गया. श्रीलंका की तबाही केवल आर्थिक कारणों से नहीं हुई है बल्कि इन कारणों की भी भूमिका है और उन लोगों की भी जो नफरत की इस राजनीति में मानिसक सुख प्राप्त कर रहे थे. श्रीलंका भी एकतरफा होने चला था, अब सबका होने की बात कर रहा है. भारत में आए दिन कोई न कोई किसी मस्जिद के सामने जाकर उकसा रहा है तो कोई उकसाने के नाम पर किसी पर हमला कर दे रहा है.आज जंतर मंतर पर तेलंगाना की केसीआर पार्टी ने प्रदर्शन किया तो उसमें राकेश टिकैत ने भी हिस्सा लिया.

पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़न के बाद खेती की लागत में जो वृद्धि हुई है और कमाई में कमी आई है उसका एक हिसाब किया है. फरवरी 2019 में प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना लांच हुई थी और किसानों को साल में 6000 रुपये मिलने लगे थे. उस समय मुंबई में एक लीटर डीज़ल 68 रुपये का था.इन दिनों 104 रुपया लीटर है. करीब सवा दो एकड़ खेत में धान की खेती में 85 लीटर डीज़ल की खपत होती है. नए रेट के अनुसार केवल डीज़ल की लागत में 3000 रुपये से अधिक की वृद्धि हो गई है. एक और बात का ध्यान रखें. न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ सभी किसानों को नहीं मिलता है. ज़ाहिर है 6000 रुपये की पी एम किसान सम्मान निधि अब कम पड़ती होगी. लेकिन इन सब पर सोचने का वक्त तब मिलेगा जब हिन्दू मुस्लिम टापिक से मुक्ति मिलेगी. 

जब देश में दिन रात हिन्दू मुस्लिम टापिक पर बहस चल रही हो, तमाम तरह के अधर्मों के साथ धर्म की बात हो रही है उसी दौरान बिहार में 60 फुट लंबे लोहे के पुल की चोरी हो गई है. इसके आरोप में दो सरकारी अधिकारियों समेत आठ लोगों को गिरफ्तार किया गया है. रोहतास के पुलिस अधीक्षक के अनुसार,मौसम विभाग के अधिकारी अरविंद कुमार ने एक समूह का नेतृत्व किया था, जो गैस कटर और अन्य उपकरणों से लैस था. समूह ने कुछ दिन पहले पुल को ध्वस्त कर दिया था.'' इलाके के एसडीओ राधे श्याम सिंह इसके मास्टरमाइंड थे. एसडीओ को उनके साथियों के साथ गिरफ्तार किया गया है.''एसपी ने कहा कि वारदात में इस्तेमाल की गई जेसीबी मशीन, पिकअप वैन और गैस कटर को भी जब्त कर लिया गया है. मामले की जांच जारी है. 

यूपी के लखीमपुर में बिजली विभाग में लाइनमैन की नौकरी करने वाले गोकुल प्रसाद ने आत्महत्या कर ली. मरते वक्त जो बयान दिया है उसके अनुसार जब तबादले की मांग की तो अधिकारी ने कथित रुप से कहा कि एक रात के लिए पत्नी को भेज दो. गोकुल दास अपमान बर्दाश्त नहीं कर सके. अगर आप मानसिक रुप से परेशान हैं तो केंद्र सरकार के इस टोल फ्री नंबर पर संपर्क कर सकते हैं 1800-500-0019 ,आत्महत्या से जुड़ी हर खबर में यह बात बताई जानी चाहिए.जूनियर इंजीनियर और क्लर्क को गिरफ्तार कर लिया गया है. ऐसा कहने वाला अधिकारी क्या फेसबुक पर राष्ट्रवाद और धर्म के गौरव की बातें लिखता होगा? वह कितना राष्ट्रवादी था, कितना धर्मपरायण, इतना और जानने का मन है.जान कर भी क्या करना है, 

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