लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है.
उर्दू और हिंदी के मशहूर शायर राहत इंदौरी के शेर को आज कुछ ऐसे पढ़ें तो गलत नहीं होगा...
अरावली कटी तो आएंगे कई देश जद में... ये मुद्दा सिर्फ राजस्थान का थोड़ी है
राहत इंदौरी साहब के शेर को मोडिफाई करने की वजह बहुत खास है. वजह है अरावली. जिसपर हंगामा बरपा हुआ है. टीवी चैनलों पर डिबेट हो रही है. अखबारों में संपादकीय लिखे जा रहे हैं. सोशल मीडिया पर कैंपेन चल रहे हैं. इन सबसे एक बात तो स्पष्ट है कि यह मुद्दा जंगल बनाम विकास की बहस का है ही नहीं. यह उस सोच की परीक्षा है, जो मानती है कि पहाड़ काटे जा सकते हैं, हवा बांटी जा सकती है और पानी को फाइलों में सीमित किया जा सकता है. अरावली पर चला हर बुलडोजर सिर्फ अलवर या गुरुग्राम की जमीन नहीं छीलता, वह दक्षिण एशिया की साझा सांसों पर असर डालता है. यह वही पहाड़ी है जो रेगिस्तान को रोकती है, मानसून को थामती है और धूल को सीमाओं के भीतर कैद रखती है. इसलिए जब अरावली कटती है, तो जद में सिर्फ राजस्थान-हरियाणा नहीं आता... पड़ोसी देश, साझा नदियां और पूरे इलाके का भविष्य सवालों के घेरे में आ जाता है.
अरावली को लेकर चल रहा संकट अक्सर 'स्थानीय पर्यावरण विवाद' की तरह देखा जाता रहा है, लेकिन हकीकत इससे कहीं बड़ी है. दुनिया अरावली को सिर्फ भारत की पहाड़ियों की एक श्रृंखला नहीं, बल्कि जलवायु, जैव-विविधता और मानव सुरक्षा से जुड़े एक संवेदनशील इको-सिस्टम के रूप में देख रही है. अरावली जो गुजरात से दिल्ली तक फैली है, इसका संकट सिर्फ पर्यावरणीय नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति और विकास की परिभाषा से भी जुड़ा हुआ है और यही वजह है कि दुनिया इस बहस को चुपचाप, लेकिन गंभीरता से देख रही है.
अरावली क्यों 'लोकल' मुद्दा नहीं
अरावली को दुनिया के पर्यावरण वैज्ञानिक 'Desert Barrier System' मानते हैं. UNEP(United Nations Environment Programme) और कई क्लाइमेट स्टडीज में यह दर्ज है कि अरावली की हरियाली थार के रेगिस्तान को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकती है. अगर यह दीवार कमजोर होती है, तो असर सिर्फ राजस्थान या दिल्ली तक सीमित नहीं रहेगा. यह एशिया के और देशों को भी प्रभावित करेगा.
हवा की समस्या, जो सीमाएं नहीं मानती
अंतरराष्ट्रीय रिसर्च में उत्तर भारत को 'South Asian Dust Corridor' का हिस्सा माना जाता है. अरावली के क्षरण से धूल के तूफान बढ़ेंगे. PM10 और PM2.5 का स्तर एशिया के दूसरे हिस्सों तक जाएगा. इसका असर नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और आगे इंडो-गैंगेटिक प्लेन से जुड़ी वैश्विक हवा पर पड़ेगा.
यानी दिल्ली की धूल, अंततः दुनिया की हवा का मुद्दा बनेगी.
जैव-विविधता और माइग्रेशन रूट
अरावली अफ्रीका-यूरेशिया माइग्रेशन रूट पर आने वाले कई पक्षियों के लिए स्टॉपओवर ज़ोन है. विदेशी कंज़र्वेशन एजेंसियां इसे Biodiversity Link Zone और Climate Refuge Landscape के रूप में देखती हैं. इसके टूटने से असर वैश्विक वन्यजीव नेटवर्क पर पड़ेगा.
क्या भारत के बाहर इसका फर्क पड़ेगा?
सीधा जवाब: हां, और तीन स्तरों पर.
पहला: जलवायु चेन रिएक्शन
अरावली का नुकसान मानसून पैटर्न को अस्थिर करेगा. नॉर्थ इंडिया में हीट वेव्स में बढ़ोतरी होगी और इसका प्रभाव दक्षिण एशिया के मौसम मॉडल में दर्ज होगा. ये वही डेटा हैं जिन्हें IPCC जैसी संस्थाएं इस्तेमाल करती हैं.
दूसरा: जल संकट सबसे बड़ा मुद्दा
अरावली भूजल रिचार्ज की बड़ी बेल्ट है. दिल्ली-NCR, हरियाणा, राजस्थान की जल सुरक्षा इससे जुड़ी है. ऐसे में अगर पानी खत्म होगा → कृषि प्रभावित होगी → क्लाइमेट माइग्रेशन बढ़ेगा. यूरोप और UN एजेंसियां ऐसे माइग्रेशन पैटर्न को पहले ही Global Risk Factor मानती हैं.
तीसरा: भारत की पर्यावरणीय साख पर असर
दुनिया में भारत खुद को क्लाइमेट लीडर, ग्लोबल साउथ की आवाज के तौर पर पेश करता है. अगर अरावली जैसे प्राचीन इको-सिस्टम को कानून या नीति से कमजोर किया जाता है, तो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की Credibility को झटका लगेगा. ग्रीन फाइनेंस, ESG निवेश और क्लाइमेट डिप्लोमेसी प्रभावित होगी.
दुनिया की नजर में अरावली क्या है?
साफ शब्दों में कहें तो विदेशी रिसर्च और कंजर्वेशन नेटवर्क अरावली को Climate Buffer Zone, Biodiversity Corridor, Desert Control System के रूप में मानते हैं. यह इलाका कई माइग्रेटरी बर्ड्स और स्थानीय प्रजातियों के लिए जीवन रेखा है. जब यह टूटेगा, तो नुकसान सिर्फ भारत का नहीं, बल्कि वैश्विक जैव-विविधता श्रृंखला का होगा.
असली संकट पहाड़ नहीं, नीति है.
अरावली को लेकर मौजूदा बहस दरअसल एक बड़ा सवाल उठाती है.
क्या भारत पर्यावरण को अब भी सिर्फ 'भूमि' की तरह देखता है, या 'जीवित सिस्टम' की तरह? 100 मीटर, राजस्व रिकॉर्ड, तकनीकी परिभाषाएं, ये सब जरूरी हैं. लेकिन जब नीति इकोलॉजी की आत्मा को समझे बिना बनती है, तो कानून संरक्षण नहीं, बल्कि कमजोरी का औजार बन जाता है.
दुनिया भारत को आज क्लाइमेट सॉल्यूशन का लीडर, ग्लोबल साउथ की आवाज मानती है. ऐसे में अरावली का मामला एक लोकल डिस्प्यूट नहीं, बल्कि भारत की पर्यावरणीय सोच का टेस्ट केस बन गया है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एनडीटीवी में चीफ सब एडिटर हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.)