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This Article is From Oct 11, 2014

उमाशंकर सिंह की कलम से : एक बीजेपी सांसद का दर्द

Umashankar Singh
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 19, 2014 16:01 pm IST
    • Published On अक्टूबर 11, 2014 13:11 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 19, 2014 16:01 pm IST

प्रधानमंत्री ने आज ही सांसद आदर्श ग्राम योजना की शुरुआत की है। इस योजना को लेकर सांसदों में मन में किस तरह की शंका-आशंका है, वो उनसे बातचीत में सामने आई। पेश है बातचीत का ब्योरा...

कुछ दिनों पहले की बात है। बीजेपी के एक सांसद से कहीं मुलाक़ात हो गई। शुरुआती प्रणाम-पाती और इधर-उधर की बातचीत के बाद मैंने कहा कि आपकी सरकार तो शानदार चल रही है। नंबर भी पूरे 282 हैं। अपने बूते की सरकार है, सो लंगड़ी लगाने वाली कोई सहयोगी पार्टी भी नहीं है। इसलिए आपलोगों के कामकाज़ में किसी रुकावट का कोई चक्कर ही नहीं है। सब मज़े में और मज़बूती से चलता नज़र आ रहा है।

मुझे नहीं पता था कि मेरा ऐसा कहना उनकी किसी दुखती रग को छू जाएगा। उनका गुबार फूट पड़ा... अरे साहब हमारा काम क्या ख़ाक मज़े में चलेगा। हमारी कोई पूछ ही नहीं है। अच्छा होता कि हम 282 की बजाय 12-14 कम होते। 268 ही होते। तब एक-एक सांसद का महत्व हमारी सरकार को पता होता। फिर हमारी भी सुनी जाती। अभी तो हालत यह है कि कोई काम लेकर किसी मंत्री के पास जाओ, तो सुनता ही नहीं। कहता है कि ये नहीं कर सकता, वो नहीं कर सकता। इसके लिए मोदी जी से पूछना होगा, उसके लिए उनसे परमिशन लेनी पड़ेगी।

सांसद महोदय आगे बोले, और आपको क्या बताऊं। अपने क्षेत्र में स्कूल, कॉलेज खोलने से लेकर इलाक़े के लोगों की ट्रांसफ़र, पोस्टिंग तक किसी भी काम के लिए स्मृति ईरानी जी के पास कोई भी सांसद जाता है, तो वह मना कर देती हैं। थोड़ा भी ज़ोर डालने की कोशिश करो, तो फोन हाथ में लेकर कहती हैं मोदी जी से बात कराऊं क्या। अब हम ठहरे भला छोटे आदमी। मोदी जी से क्या बात करेंगे। अपनी फ़ाइल-फत्तर लेकर वापस चले आते हैं।

सांसद महोदय बिना रुके बोलते जा रहे थे। कहने लगे कि जीवन मुश्किल होता जा रहा है। क्षेत्र में जाओ, तो लोग काम के लिए पूछते हैं। काम यहां हो नहीं रहा। ऊपर से हर सांसद को अपने क्षेत्र में एक आदर्श गांव बनाने की ज़िम्मेदारी दे दी है। पूरा सांसद निधि भी झोंक दे, तो आदर्श गांव नहीं बन सकता। ऊपर से मारामारी ये कि लोग आदर्श गांव के लिए अपने-अपने गांव का नाम देने की कोशिश करने लगे हैं। नहीं मानने पर नाराज़ होते हैं।

सांसद महोदय की बात रोककर मैंने बीच में जानने की कोशिश की कि सबके सामने लॉटरी से तय करने में भी दिक्कत है क्या। उन्होंने कहा, अरे साहब लॉटरी कौन मानता है। हमने तो सीधा सा रास्ता निकाला। झंझट से बचने के लिए हमने एक गांव का नाम तय कर ये कह दिया कि मोदी जी ने फ़ाइनल किया है। हम क्यों अपने सिर पर लें, जब हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं। लेकिन इसमें भी डर ये है कि अगली बार जब दूसरे गांवों में वोट मांगने जाएंगे, तो वहां के लोग ये न कहें कि जाओ जिस गांव को मोदी जी ने फ़ाइनल किया, उसी गांव से वोट मांगो। पांच साल में पांच आदर्श गांव बना भी दें, तो सिर्फ पांच गांव के वोट से तो जीतेंगे नहीं न।

सांसद ये भी मानते हैं कि मोदी जी के दिशा निर्देश के पीछे मंशा अच्छी है। वो ग्रामीण इलाक़ों में भी बड़े बदलाव चाहते हैं। गांववालों की ज़िंदगी बेहतर बनाना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए संसाधन कहां से आएगा, कितना आएगा। अगर सिर्फ सांसद निधि के भरोसे ही करना होगा, तो पूरे संसदीय क्षेत्र के दूसरे काम कहां से होंगे। साल में पांच करोड़ रुपये का मतलब सीधे तौर पर निकालें तो बस पांच किलोमीटर लंबी सड़क ही बन सकती है इसमें।

सांसद महोदय ने ये भी कहा कि इस चुनाव में कितना पैसा खर्च हुआ है। ये भी कि 5 साल बाद ही सही चुनाव में तो जाना है ना। उसके लिए कुछ चाहिए। दो नंबर से ना सही, एक नंबर के किसी तरीक़े से ही। पैसा तो चाहिए ही होता है चुनाव में। सांसद जी ने ये भी बताया कि जिसके ख़िलाफ़ वो चुनाव जीतकर आए हैं, उस उम्मीदवार ने किस तरह करोड़ों रुपये खर्चे। अगली बार भी इसी तरह के उम्मीदवारों से पार पाना होगा। भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी पर अंकुश लगे ये तो ठीक है, लेकिन क्षेत्र में अपनी राजनीति बचाने के लिए ज़रूरी है कि क्षेत्र के लोगों के काम तो हों। सिर पर डंडा लटकाने और नीचे तलवार की धार पर चलाने से तो काम नहीं चलेगा न।

सांसद महोदय की सीधी शिकायत फिलहाल मोदी जी से नहीं है। बल्कि उन मंत्रियों से थी, जो या तो मोदी जी के प्रभामंडल का इस्तेमाल कर या फिर उनका डर दिखाकर सांसदों के साथ पेश आ रहे हैं। हर बात की ख़बर रखने वाले मोदी जी को ऐसा नहीं है कि इस तरह की बात की जानकारी नहीं होगी। लेकिन या तो वो अपनी ज़िम्मेदारियों में इतने व्यस्त है कि सांसदों की सुधि लेने का फिलहाल वक्त नहीं, या फिर उन्हें ये अभी उतना ज़रूरी नहीं लगता।

हालांकि बाद में कुछ सांसदों से बात करने पर पता चला है कि उन्होंने सांसदों को भरोसा दिया है कि अगली बार चुनाव में जाने तक ऐसा बहुत कुछ हो जाएगा, जिससे बूते वे ज़्यादा आत्मविश्वास के साथ अपने अपने संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं के पास जा सकेंगे।

एक पत्रकार के तौर पर अभी तक आम लोगों की समस्याओं को सुना करता था। पहली बार है कि इस तरह से सांसद की समस्या सुन रहा था। लगा कि जब एक सांसद इतना लाचार महसूस कर रहा है तो वो अपने क्षेत्र की जनता को क्या दे पाएगा। सिर्फ ज़बानी जमाखर्च से उसका तो काम नहीं चलेगा। कई बहुत व्यवहारिक किस्म की समस्याएं है।

कुछ सांसद ये भी बताते हैं कि अभी सभी इंतज़ार करो और देखो की स्थिति अपना रहे हैं। अपनी स्थिति हाशिए पर जाता देख साल दो साल बाद सांसद पार्टी के भीतर वे ज़्यादा मुखर हो सकते हैं। कुल मिला कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस ‘कसावट’ के साथ काम कर रहे हैं उससे सांसदों के बीच एक गुबार भी पनप रहा है। और वो गुबार कभी सार्वजनिक तौर पर भी फूट सकता है। आख़िरकार किसी सांसद की राजनीति का अपना इलाक़ा बचा रहेगा तभी तो वो किसी के साथ खड़ा रह सकेगा!

(नोट – यहां सांसद महोदय का नाम आदि का ख़ुलासा नहीं किया जा रहा। पहचान ज़ाहिर होने पर उनके ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई की आशंका है)

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