आजकल हर तरफ हिन्दी फिल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' या 'डीडीएलजे' के 1,000 हफ्ते पूरे होने के रिकॉर्ड और उसे मिल रही पब्लिसिटी की चर्चा है, हालांकि इस चर्चा ने कहीं न कहीं उससे पांच साल पहले रिलीज़ हुई आईकॉनिक फिल्म 'मैंने प्यार किया' के स्वर्णिम 25 साल पूरे होने की खुशी और उमंग को कमतर या पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया है। वैसे इस बात में कोई शक नहीं कि शाहरुख खान और चोपड़ा ग्रुप पीआर और पब्लिसिटी में सलमान खान और सूरज बड़जात्या से कहीँ आगे हैं।
'डीडीएलजे' जहां वर्ष 1994 के अंत में रिलीज़ हुई थी, वहीं 'मैंने प्यार किया' साल 1989 के दिसंबर के अंतिम सप्ताह में। हममें से जिसने भी अपना बचपन, या यूं कहे टीन-एज 1990 के पहले पांच साल में शेयर किया है, वह अपने आपको पूरी तरह इस फिल्म से जोड़कर देख सकता है। फिर चाहे वह तब की दिल्ली या मुंबई का रहने वाला हो, लखनऊ, पटना या रांची जैसे छोटे शहरों का हो या फिर समस्तीपुर या इलाहाबाद में बसे किसी कस्बे या गांव का बाशिंदा हो।
यह वह दौर था, जब स्कूलों में को-एजुकेशन को इन सभी इलाकों में बसने वाले मध्यमवर्गीय परिवारों में स्वीकार किया जाने लगा था। मैं खुद अपने परिवार की पहली लड़की हूं, जिसकी शिक्षा को-एजुकेशन यानि सह-शिक्षा में हुई और इसके लिए मेरे माता-पिता को पूरे परिवार से, जिसमें दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ, मामा-मामी, मौसा-मौसी के साथ तकरीबन 15 साल की एक लंबी और अघोषित लड़ाई लड़नी पड़ी।
हम पहली बार लड़कों के साथ पिकनिक पर जाते थे, उनके साथ खो-खो और बेसबॉल खेला करते थे... क्लास में नोट्स शेयर किया करते थे, डिबेट्स में उनके तर्कों को धूल चटाते थे, इसकी परवाह किए बगैर कि वे लड़के हैं या उनके प्रति हमारे मन में कोई सॉफ्ट कॉर्नर है और हां, हम साथ-साथ फिल्में भी देखते थे... कभी 'बॉर्डर' तो कभी 'फायर' (घरवालों से छिपकर)...
फिर जैसे, हमारी फीमेल फ्रेंड्स का हमारे घरों में आना-जाना था, वैसे ही लड़कों का आना भी स्वीकार्य हो गया। लैंडलाइन पर फोन कॉल्स आना, नए साल और बर्थ-डे पर कार्ड्स आना, ग्रुप स्टडी पर जाना आदि धीरे-धीरे हमारी परवरिश का हिस्सा हो गया। हालांकि तब भी इसे स्वीकार्यता सिर्फ माता-पिता से ही मिल पाई थी... परिवार जैसी सामूहिक और समाज जैसी बड़ी इकाई से नहीं। तब हमारा हर मेल क्लासमेट हमारा फ्रेंड ही होता था... और दोस्ती हमारे रिश्ते या मिलने-जुलने का आधार। कई बार तो आश्चर्यजनक तौर पर हमारे माता-पिता हमारे मेल फ्रेंड्स से रिक्वेस्ट किया करते थे - बेटा, परीक्षा खत्म होने के बाद या क्लास खत्म होने के बाद इसे हमारे कॉलोनी या मोहल्ले तक छोड़ते जाना... हां, तब एक और चीज़ हुआ करती थी... प्लेटॉनिक लव, जिसका इस्तेमाल हम बड़े ही धड़ल्ले किया करते थे। एडोर, एडमायर, सॉफ्ट कॉर्नर, लाइकिंग जैसे शब्द हमारी कोमल भावनाओं की ढाल हुआ करते थे। हमारे किशोर प्रेम में सब कुछ होता था, लेकिन सेक्स का अंडर करंट नहीं होता था। 'मैंने प्यार किया' हमारे जैसे लाखों-करोड़ों '90 के दशक में किशोर होते और यौवन की दहलीज़ पर कदम रखने वाले किशोरों का पहला ऐलान था... जिस शक्ल में दुनिया के सामने आया वह 'मैंने प्यार किया' था।
इसकी बनिस्बत 'दिलवाले...' अपर और अपर-मिडिल क्लास के प्यार, उनकी जीवन शैली, उनके खुलेपन, उनकी सनक और उनके रोमांस का परिचायक था। ऐसा प्यार, जिसने बाज़ार का उदारीकरण देख लिया था... जहां शहर भी विदेशी था और कपड़े भी ब्रांडेड... जहां हीरोईन ट्यूनिक पहना करती थी और हीरो का पिता उसे अपने प्यार के लिए सब कुछ छोड़कर लड़की के पीछे जाने को कहता है। '90 के दशक के प्यार की अगली सीढ़ी 'दिलवाले...' थी, जिसका बेस 'मैंने प्यार किया' ने तैयार कर दिया था। 'दिलवाले...' का राहुल 30 साल का नौजवान था... और 'मैंने प्यार किया' का प्रेम 24 साल का मां से बेहद प्यार करने वाला शख्स, जो अपनी प्रेमिका में अपनी मां का अक्स ढूंढ रहा था।
आज जब हर तरफ 'दिलवाले...' की सफलता की धूम है, तब मेरा मन सिर्फ यह कहना चाहता है, 'मैंने प्यार किया...'
This Article is From Dec 31, 2014
स्वाति अर्जुन की कलम से : 'मैंने प्यार किया' ने तैयार की थी 'डीडीएलजे' की ज़मीन...
Swati Arjun, Vivek Rastogi
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Updated:दिसंबर 31, 2014 16:42 pm IST
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Published On दिसंबर 31, 2014 16:38 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 31, 2014 16:42 pm IST
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