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This Article is From Dec 01, 2014

सुशील महापात्रा की समीक्षा : बाउंसर पर बवाल क्यों?

Sushil Mohapatra
  • Blogs,
  • Updated:
    दिसंबर 02, 2014 13:49 pm IST
    • Published On दिसंबर 01, 2014 20:41 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 02, 2014 13:49 pm IST

फिलिप ह्यूज की मौत के बाद बाउंसर को लेकर बवाल शुरू हो गया है। क्रिकेट प्रेमियों के मन में एक सवाल उठ रहा है कि क्या बाउंसर पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए? फेसबुक से लेकर ट्विटर तक हर जगह इस पर चर्चा गर्म है कि क्या बिना बाउंसर के क्रिकेट नहीं खेला जा सकता? लेकिन यह सवाल सिर्फ आज का नहीं, जब भी किसी खिलाड़ी की मौत की वजह गेंदबाज़ का घातक बाउंसर रहा है, यह सवाल उठता रहा है।

क्रिकेट में बाउंसर का इतिहास काफी पुराना है, और इसकी शुरुआत वर्ष 1932-33 में इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट सीरीज़ के दौरान हुई थी। लेकिन बाउंसर की खतरनाक असलियत 1954-55 में ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच एशेज सीरीज़ के दौरान सामने आई। सिडनी क्रिकेट ग्राउंड में खेले गए सीरीज़ के दूसरे टेस्ट मैच के दौरान इंग्लैंड के फ्रैंक टाइसन और ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी रे लिंडवॉल के बीच हुई लड़ाई ने सभी को हैरान कर दिया। टाइसन पूरे मैच के दौरान लिंडवॉल पर बाउंसर से बार-बार प्रहार करते रहे। उल्लेखनीय है कि उस वक्त हेल्मेट का उपयोग नहीं होता था और लिंडवॉल को काफी मुसीबत का सामना करना पड़ रहा था। आखिरकार, टाइसन ने लिंडवॉल को पैवेलियन चलता कर दिया, लेकिन लिंडवॉल ने भी इसका बखूबी बदला लेने का मन बना रखा था और जब टाइसन बैटिंग करने आए तब लिंडवॉल ने उन पर बाउंसर बरसाना शुरू कर दिया, जिससे टाइसन घायल भी हुए, और आउट भी।

लेकिन अपने ही हथियार को यूं खुद पर इस्तेमाल होता देख गुस्साए टाइसन भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे और घायल होने के बावजूद दूसरी पारी में गेंदबाज़ी करने आए और अपनी घातक गेंदों से ऑस्ट्रेलियाई टीम के परखच्चे उड़ाते हुए छह विकेट झटके, जिसमे लिंडवॉल का विकेट भी शामिल था।

इंग्लैंड ने यह मैच 38 रन से जीता और इसके बाद से बाउंसर का भविष्य चमकने लगा। गेंदबाज़ों को एहसास हुआ कि बाउंसर फेंकना एक कला है और अगर इसका सही इस्तेमाल किया जाए, तो यह बल्लेबाज़ों को खासी मुश्किल में डाल सकता है।

'80 का दशक आते-आते बाउंसर का इस्तेमाल बढ़ता ही गया और वेस्ट इंडीज़ के गेंदबाज इसी बाउंसर के सहारे अपनी अलग पहचान बना पाए। मैल्कम मार्शल से लेकर कर्टली एम्ब्रोस तक सारे कैरेबियाई गेंदबाज़ अपनी गेंद की रफ्तार से बैट्समैन का पसीना निकाल देते थे।

हालांकि '90 के दशक में बाउंसर पर इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया का दबदबा रहा। सन 2000 आते-आते ब्रेट ली, शोएब अख्तर, शेन बॉन्ड जैसे खतरनाक बॉलर बाउंसर के बादशाह बन गए। शोएब अख्तर ने ब्रायन लारा जैसे महान खिलाड़ी को अपने बाउंसर से घायल किया, लेकिन लारा ने फिर भी यही कहा, बाउंसर क्रिकेट का हिस्सा है, और इस पर लगाम नहीं लगाई जानी चाहिए।

बाउंसर को लेकर अंतराराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) ने भी कई बार अपना निर्णय बदला है। वर्ष 1991 में आईसीसी ने नियम बनाया कि कोई भी बॉलर एक ओवर में एक से ज्यादा बाउंसर नहीं फेक सकता। हालांकि इस नियम से खिलाड़ी खुश नहीं थे और इसकी वजह से आईसीसी को अपना निर्णय बदलना पड़ा और एक ओवर में दो बाउंसर की इजाजत दे दी गई। लेकिन वर्ष 2001 में एक ओवर में एक बाउंसर का पुराना निर्णय फिर वापस लाया गया और साल 2012 में पारित आईसीसी के नए नियमों के तहत एक बॉलर को एक ओवर में दो बाउंसर डालने की इजाजत दे गई।

समीक्षा सुशील की

क्रिकेट में सिर्फ बाउंसर से नहीं, दूसरे कारणों से भी जान को जोखिम हो सकता है। स्ट्रेट ड्राइव को भी गेंदबाज़ों और अंपायर के लिए काफी खतरनाक माना जाता है। अगर गेंदबाज या अंपायर सही वक्त पर बॉल की लाइन से खुद को नहीं हटा पाए तो गंभीर परिणाम हो सकते हैं। सिर्फ बैट्समैन ही क्यों, सिली प्वाइंट और शॉर्ट लेग जैसी पोजीशन पर फील्डिंग करते हुए फील्डर पर भी घायल होने का खासा खतरा रहता है। भारतीय खिलाडी रमन लाम्बा की मौत शॉर्ट लेग पर फील्डिंग करते हुए ही हुई थी, सो, ऐसे में सिर्फ बाउंसर पर सवाल क्यों...?

क्रिकेट खेलते वक्त खिलाड़ियों की मौत होना क्रिकेट का बड़ा नुकसान है, जिसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता, और हम सबको मानना होगा कि यह एक हादसा है, जिस पर किसी का भी नियंत्रण नहीं। लेकिन सिर्फ बाउंसर पर लगाम लगाना इसका समाधान नहीं, क्योंकि बाउंसर क्रिकेट का हिस्सा है और इसे किस्सा नहीं बनाना चाहिए।

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