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जब भोंपू लेकर सड़क पर उतरे सुशील मोदी और जीत लिया चुनाव

Mihir Gautam
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    May 14, 2024 22:36 IST
    • Published On May 14, 2024 22:36 IST
    • Last Updated On May 14, 2024 22:36 IST

सुशील मोदी अब हमारे बीच नहीं हैं. पिछले छह महीने से वो राजनीति में भी ऐक्टिव नहीं थे. गले के कैंसर की वजह से खुद को उन्होंने सियासत से दूर कर लिया था. एक ट्वीट कर सबको इसकी जानकारी दी और इसके कुछ दिनों बाद ही उनका दिल्ली के एम्स में निधन हो गया. सुशील मोदी जैसा नेता बनना आज की सियासत में बेहद मुश्किल है. ना कभी परिवार को उन्होंने राजनीति में आगे किया और ना ही कभी उन पर इतने लंबे सियासी करियर में भ्रष्टाचार के आरोप रहे. छात्र राजनीति में बेहद सक्रिय रहे, जेपी आंदोलन में जेल गए और पढ़ाई तक छोड़ने में पीछे नहीं हटे. हम बात सुशील मोदी की सियासत की करेंगे.

सुशील मोदी को समझने के लिए 1990 में जाना ज़रूरी है. बिहार में विधानसभा का चुनाव हो रहा था, तब की बीजेपी और अबकी बीजेपी में ज़मीन आसमान का अंतर था. संसाधन ना के बराबर थे, पैसा भी नहीं था. तब रोड शो कहां संभव था, रोज़ का चुनाव ख़र्च तक के लिए पैसै नहीं थे. लेकिन सुशील मोदी जैसे समर्पित कार्यकर्ता थे. जो पार्टी के लिए बहुत बड़ी पूंजी थी. 1990 में पटना मध्य सीट से बीजेपी ने सुशील मोदी को चुनाव में उतारा.

ये वो दौर था, जब जनता दल और बीजेपी के बीच तालमेल था. हालाकि कुछ सीटों पर फ़्रेंडली फ़ाइट भी थी. उसी में एक सीट थी पटना मध्य की. जनता दल ने यहां से युवा राजीव रंजन प्रसाद को मौका दिया था. इस सीट पर कायस्थ जाति का दबदबा था, उस वक्त और जनता दल को उम्मीद थी कि राजीव रंजन प्रसाद आसानी से जीत जाएंगे, क्योंकि जाति का गणित उनके पक्ष में दिख रहा था. मुक़ाबला कांग्रेस के अकील हैदर के ख़िलाफ़ था, जो वहां से सीटिंग विधायक थे.

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चुनाव प्रचार के लिए सुशील मोदी ने पैदल घूमना शुरू किया और जनता के बीच जाने लगे. उनके पास एक भोंपू था और 15, 20 युवा कार्यकर्ता. सुशील मोदी चर्चा का केंद्र बन रहे थे. उनके हर किसी से मिलने का अंदाज़ और बिना किसी लाग-लपेट अपनी बात कहने का तरीका सबको भाने लगा था. कांग्रेस के अकील हैदर सीटिंग विधायक थे, 1985 में वो अच्छे मार्जिन से जीते थे. लेकिन 1990 का चुनाव बदलने लगा था, अकील हैदर के चुनाव कार्यालय से दिन रात प्रचार हो रहा था. तो दूसरी तरफ़ सुशील मोदी पैदल प्रचार कर जनता के बीच लोकप्रिय हो रहे थे. 324 सीटों में बीजेपी 39 सीट जीत पाई और तब बिहार में पहली बार लालू प्रसाद सीएम बने, उन्हें बीजेपी का समर्थन भी हासिल था. सुशील मोदी ने इस सीट से जीत की हैट्रिक लगाई और लगातार उनकी लोकप्रियता का ग्राफ़ बढ़ता जा रहा था.

राजनीति में जब बड़ी गाड़ी लेकर चलने का दौर शुरू ही हुआ था. उस समय भी सुशील मोदी कई बार अपने स्कूटर पर दिख जाते थे. उनकी पत्नी शिक्षिका की नौकरी कर रहीं थी और बच्चे पढ़ाई. लेकिन राजनीति में उन्होंने कभी परिवार को नहीं आने दिया और नेता के बच्चे होने पर जिस राज्य में कई लोगों की कहानियां सामने आती हैं, उसी राज्य में लंबे समय तक सत्ता और विपक्ष के केंद्र रहने के बावजूद सुशील मोदी के बच्चों का ज़िक्र कभी नहीं आया. पटना के राजेंद्र नगर स्थित अपने आवास पर वो हमेशा समर्थकों और जनता के लिए उपलब्ध रहे.

फिर एक बार सुशील मोदी की राजनीति पर लौटते हैं. वो 1996 से 2004 तक विपक्ष के नेता रहे. ये वो दौर था जब लालू प्रसाद यादव का दबदबा बिहार की सियासत पर दिखता है. लेकिन सुशील मोदी मज़बूती से जनता की आवाज़ उठाते रहे और सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहे. लालू प्रसाद यादव के ख़िलाफ़ कोर्ट में उन्होंने जनहित याचिका भी डाली और चर्चित चारा घोटाले को उजागर करने में भी उनकी भूमिका रही.

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सुशील मोदी 2004 में लोकसभा चुनाव भागलपुर से जीते, लेकिन बिहार की सियासत में उन्होंने एक साल बाद ही वापसी कर ली. 2005 में विपक्ष के नेता के रूप में नहीं, बल्कि बिहार के डिप्टी सीएम के रूप में. बिहार में जेडीयू-बीजेपी की सरकार में कम से कम मतभेद हों, इसके लिए सुशील मोदी से बेहतर कोई रणनीतिकार नहीं था. उन्होंने कभी सीएम बनाम डिप्टी सीएम बनने ही नहीं दिया. वो विकास योजनाओं पर काम कर रहे थे और सरकार मज़बूत बनी रहे इस पर भी लगातार उनका ध्यान रहा.

कई बीजेपी नेता पीठ पीछे ये कहते थे कि जो बड़े बड़े बैनर लगे सरकार के काम के उसमें नीतीश कुमार तो थे, लेकिन सुशील मोदी नहीं थे या थे तो उनकी तस्वीरें बहुत छोटी थी. लेकिन सुशील मोदी ने इन बातों पर शायद ही कभी बहुत गौर किया. सुशील मोदी के बारे में ये तक कुछ लोगों ने कहा कि उन्होंने बिहार में बीजेपी को नीतीश की बी टीम बना दिया है. लेकिन इसमें रत्ती भर सच्चाई नहीं थी, ये सुशील मोदी के पार्टी के लिए किए गए काम को देखकर समझा जा सकता है.

इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि बीजेपी के पास बिहार में बहुत नेता रहे, कई अपने-अपने इलाकों में काफी प्रभाव रखते हैं. लेकिन पूरे राज्य में तालमेल के लिए अगर कोई नाम सबकी ज़ेहन में आता है तो वो सुशील मोदी ही थे. उन्होंने राज्य में पार्टी को एकजुट रखा और उसका विस्तार भी करते रहे. नीतीश कुमार और सुशील मोदी की जोड़ी का बिहार के बदलाव में बड़ा योगदान रहा है, लेकिन 2013 में ये जोड़ी टूट गई. नरेंद्र मोदी के पीएम पद के मुद्दे पर नीतीश कुमार ने अलग राह ले ली. लेकिन सुशील मोदी कहां रुकने वाले थे. वो पार्टी लाइन पर बोल रहे थे, साथ में इस प्रयास में लगे रहे कि दोबारा सरकार बन सके. आखिरकार 2017 में आरजेडी-जेडीयू सरकार गिरी. इस सरकार के गिरने और नीतीश को फिर से बीजेपी खेमे में लाने में सुशील मोदी की अहम भूमिका मानी जाती है.

बीजेपी के एक तबके को लग रहा था कि अब पार्टी को अपने बलबूते चुनाव लड़ना चाहिए और सरकार बनानी चाहिए, लेकिन वो नेता भूल गए कि जब 2015 में ये मौका आया और पार्टी अकेले लड़ी तो कितनी सीटें मिली. सुशील मोदी समीकरण समझते थे और उन्हें पता था कि अकेले लड़कर लालू प्रसाद की पार्टी का मुक़ाबला मुश्किल होगा, लिहाज़ा साथ रहना ही बेहतर है. शायद पार्टी में वैसे नेता बढ़ रहे थे जो खुद तो पार्टी को आगे नहीं ले जा पा रहे थे, लेकिन सुशील मोदी पर सवाल खड़े कर रहे थे.

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2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी, जेडीयू से बड़ी पार्टी बनकर उभरी. बीजेपी ने वादा निभाते हुए नीतीश कुमार को सीएम बनाया. वहीं डिप्टी सीएम बदल दिए गए. ये फ़ैसला हैरान करने वाला ही था कि सुशील मोदी की जगह दो डिप्टी सीएम बीजेपी ने बना दिए. बिहार की सियासत में सुशील मोदी का क़द कम होता दिख रहा था. उन्हें राज्यसभा सांसद बना दिया गया, दिल्ली भेज दिया गया. जिन्हें बिहार में ज़िम्मेदारी दी गई वो सरकार को ज़्यादा दिन तक एक मंच पर नहीं रख सके. फिर से नीतीश कुमार ने आरजेडी का दामन थाम लिया.

सुशील मोदी इस प्रयास में लगे रहे कि फिर से बिहार में बीजेपी-जेडीयू की सरकार बने. इस बार जब सरकार बनी, तब तक सुशील मोदी बीमार पड़ चुके थे. हालाकि वो पार्टी के कार्यक्रमों में कभी-कभी दिख रहे थे. बिहार में जेडीयू-बीजेपी की सरकार बनी. सीएम नीतीश कुमार ही बने और डिप्टी सीएम की ज़िम्मेदारी विजय सिन्हा और सम्राट चौधरी को दी गई. बिहार की सियासत से सुशील मोदी 2020 में ही दूर कर दिए गए थे और बाद में बीमार भी हो गए.

सुशील मोदी को पार्टी ने जो पद दिया, जो ज़िम्मेदारी दी उसे उन्होंने पूरी ईमानदारी से निभाया, जब ज़िम्मेदारी नहीं दी तो भी ईमानदार रहे. कभी पलटकर उन्होंने पार्टी से सवाल नहीं किया. आज की राजनीति में जब दल बदलने वाले नेताओं की एक पूरी फ़ौज दिखती है, जब हर रोज़ राजनीति में आदर्श बदलते लोग दिखते हों. उस वक्त सुशील मोदी जैसे नेताओं की कमी और ज़्यादा खलेगी.

मिहिर गौतम NDTV इंडिया में न्यूज़ एडिटर हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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