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This Article is From Aug 24, 2019

अलविदा खय्याम : संगीत जो सुना जाता रहेगा जी भर के...

Suryakant Pathak
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 27, 2019 00:19 am IST
    • Published On अगस्त 24, 2019 06:32 am IST
    • Last Updated On अगस्त 27, 2019 00:19 am IST

प्रख्यात संगीतकार मोहम्मद जहूर खय्याम हाशमी यानी कि खय्याम हिन्दी सिनेमा को कभी न भुलाए जाने वाले संगीत का तोहफा देकर दुनिया से रुखसत हो गए. उनका संगीत सुकून देने वाला, तरंगित करने वाला और शांति का अलौकिक अहसास कराने वाला है. यह वह संगीत है जो आपके सिरहाने बैठकर आपको मधुरता की थपकियां देकर दूर कहीं ऐसी जगह ले जाता है जहां तनाव लुप्त हो जाता है. ऐसा संगीत जो नीरवता के अंतरालों के साथ अपने अलग अर्थ प्रकट करता, अलग आस्वाद देता है. खय्याम फिल्म अभिनेता बनना चाहते थे अच्छा हुआ बाद में उन्होंने यह इरादा छोड़ दिया अन्यथा भारतीय सिनेमा जगत और संगीत प्रेमी उनकी बेजोड़ रचनाओं से महरूम रहते.     

हिन्दी सिनेमा में जितने में संगीतकार हुए उनमें खय्याम सबसे अलग दिखे. उनकी संगीत रचना शैली का उनके बाद के जयदेव जैसे कुछ संगीतकारों ने अनुसरण जरूर किया लेकिन खय्याम तो खय्याम ही थे. उनकी कम्पोजीशनों में समानता देखने को नहीं मिलेगी, सब अलग-अलग रंगों में हैं. 'फिर सुबह होगी' का गीत 'वो सुबह कभी तो आएगी...' को सुनें और फिर 'त्रिशूल' का गीत 'गापूची गापूची गम गम किशीकी किशीकी कम कम...' भी सुन लें. इन दोनों किस्म की म्युजिक कम्पोजीशन के बीच खय्याम के संगीत रचना संसार का स्वर विस्तार महसूस किया जा सकता है.        

खय्याम ने संगीत रचनाओं में बीच-बीच में एक खास किस्म के क्षणिक अंतराल का प्रयोग किया. फिल्म 'शंकर हुसैन' के गीत  'आप यूं फासलों से...' के अलावा 'रजिया सुल्तान' के 'ए दिले नादां...' में बीच-बीच में जो ठहराव है वह गजब का प्रभाव पैदा करने वाला है. सुर थमते हैं और फिर क्षणिक नीरवता के बाद फिर बहने लगते हैं. रजिया सुल्तान के गीत में तो इसी ठहराव के बीच निस्तब्धता को तबले की गमक तोड़ती है और फिर सुरों का प्रवाह शुरू हो जाता है. इस तरह के प्रयोग खय्याम की उस कल्पनाशीलता की देन हैं जो उनके संगीत को अलग ढंग से परिभाषित करती है.          

संगीत रचनाओं में प्रयोगों के साथ नए-नए कलाकारों का उन्होंने जैसा युक्तिपूर्ण प्रयोग किया वैसा बहुत कम संगीतकारों ने किया. इसके पीछे उनकी डूबकर काम करने की प्रवृत्ति थी. फिल्म की कहानी, चरित्र से लेकर सिचुएशन तक सभी चीजों को आपस में गूंथकर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि खय्याम का संगीत बाकी सबसे अलग क्यों है. फिल्म 'रजिया सुल्तान' में गीत था 'हां ये जंजीर की झनकार, खुदा खैर करे...' इसे गाने वाले कलाकार थे कब्बन मिर्जा. कब्बन मिर्जा यानी मर्सिया और नोहे गाने वाले और साथ में लखनऊ में आकाशवाणी के 'हवामहल' और 'छायागीत' जैसे कार्यक्रमों के प्रस्तोता. फिल्म में हब्शी के रोल में धर्मेंद्र, गीत के लिए सिचुएशन, उसकी धुन और फिर सबसे बढ़कर कब्बन मिर्जा की गायकी, इन सभी को जोड़कर देखिए, कमाल दिखाई देगा. वे सिनेमा के लिए ऐसा मुकम्मल संगीत तैयार करते थे जिसमें कहीं कोई असंगतता ढूंढने की कोई गुंजाइश नहीं होती थी.     

फिल्म 'फुटपाथ' 1953 में आई थी. इस फिल्म के लिए तलत मोहम्मद ने गीत गाया 'शामे गम की कसम आज गमगीन हैं हम...' उस जमाने में इस फिल्म के संगीत में गिटार का प्रयोग नया था. सन 1961 की फिल्म 'शोला और शबनम' में रफी ने गाया 'जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखे मुझमें, राख के ढेर में शोला है न चिन्गारी है...' यही वह फिल्म थी जिसका संगीत ऐसा हिट हुआ कि आज भी सुना-गुनगुनाया जा रहा है. इसी संगीत ने खय्याम को एक संगीतकार के रूप में सिनेमा जगत में स्थापित किया. सन 1967 में आई फिल्म 'आखिरी खत' में लता मंगेशकर के सुरों से सजे गीत 'बहारो मेरा जीवन भी संवारो..' को सुनिए, गाने का टेस्ट सर्वथा अलग है.   

सन 1977 में आई कमाल अमरोही की फिल्म 'शंकर हुसैन' फ्लाप हो गई लेकिन इसका संगीत कालजयी बन गया. इस फिल्म के लिए लता मंगेशकर के गाए गीत 'अपने आप रातों में, चिलमनें सरकती हैं...' ,  'आप यूं फासलों से गुजरते रहे...' और मोहम्मद रफी का गाया गाना 'कहीं एक मासूम नाजुक सी लड़की, बहुत खूबसूरत, मगर सांवली सी...' हिन्दी सिनेमा के संगीत की मधुरता की मिसाल हैं. यह संगीत बेजोड़ है जो सुनने वालों के मन में हमेशा रस घोलता रहेगा.

खय्याम कभी समझौता नहीं करते थे, चाहे वह फिल्म की कहानी हो या उसके गीत हों, वे सिर्फ वही काम करते थे जो उनके मन को भाता था. जब फिल्म की कहानी ठीक लगे तो उसमें गीतों की सिचुएशन और फिर जरूरत के मुताबिक गीतों की शब्द रचना... यह सब होने पर ही वे संगीत देने के लिए हामी भरते थे. वे अपनी शर्तों पर काम करते थे और हमेशा खुद को बेहतर साबित भी करते रहे. वे गीत और शायरी के गहरे जानकार थे. वे सिर्फ पैसे कमाने के लिए अपने फन का इस्तेमाल नहीं करते थे बल्कि इससे बढ़कर आत्मसंतोष के लिए ऐसा संगीत रचते रहे जिससे न सिर्फ उन्हें सुकून मिले बल्कि सुनने वाला भी सुकून महसूस कर सके.  

'देख लो आज हमको जी भर के..कोई आता नहीं है, फिर मर के...'  फिल्म 'बाजार' का यह गीत जगजीत कौर ने गाया था. वही जगजीत कौर जिन्होंने फिल्म 'शगुन' का गीत - 'तुम अपना रंजो गम, अपनी परेशानी मुझे दे दो...' गाया था. उन्होंने 'उमराव जान' का गाना 'काहे को ब्याहे बिदेश, अरे लखिया बाबुल मोरे...' भी गाया. जगजीत कौर यानी संगीतकार खय्याम की जीवन संगिनी. संगीत ही उन्हें और खय्याम को एक-दूसरे के पास ले आया था. जहां खय्याम का संगीत अन्य संगीतकारों से जुदा है वहीं जगजीत कौर के सुर भी अलग रंग लिए हुए हैं.  

खय्याम और जगजीत कौर ने जीवन भर सुरों में साझेदारी की और फिर करीब 10 करोड़ रुपये की साझा विरासत भी अपने मधुर संगीत की तरह समाज की झोली में उड़ेल दी. जब खय्याम 90 साल के हुए थे तो उन्होंने और जगजीत कौर ने अपनी समूची संपत्ति के लिए एक ट्रस्ट बनाया. यह ट्रस्ट उन कलाकारों की मदद के लिए बनाया जो किसी भी कारण से गर्दिश में हैं. खय्याम साहब '....कोई आता नहीं है फिर मरके', लेकिन आप जाएंगे कहां...आपको चहने वाले आपका संगीत तो सुनते ही रहेंगे हमेशा जी भर के...

सूर्यकांत पाठक Khabar.ndtv.com के डिप्टी एडिटर हैं.

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