वास्तव में आज जब महात्मा गांधी के जन्म के डेढ़ सौ साल पूरे हो रहे हैं, तब भी क्या उनके बाद कोई ऐसा इंसान हुआ जिसे समूची मानवता का प्रतिनिधि समझा जा सके? गांधीवाद की राह पर चलने वाले, गांधी के आदर्शों का अनुसरण करने वाले तो बहुत हैं लेकिन कोई गांधी नहीं हुआ. वह गांधी जो समाज के लिए अपना जीवन दांव पर लगाने में भी कतई संकोच नहीं करता था. जो विदेशी हुकूमत के खिलाफ अपने नैतिक बल, अकाट्य तर्कों के आधार पर ताजिंदगी संघर्ष करता रहा और इसके साथ भेदभाव, जात-पात, सामाजिक वैमनस्यता, साम्प्रदायिकता, कुरूढ़ियों आदि के खिलाफ भी अलख जगाता रहा.
उच्च आदर्श स्थापित करने वाले महात्मा गांधी को विस्मृत नहीं किया जा सकता. भारतीय जनमानस के अहसास गांधी के साथ काफी गहरे जुड़े हैं. गांधी वास्तव में सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक जीवन दर्शन है जो भारतीय समाज की जीवन शैली में रच-बस गया है. इसके पीछे सहिष्णुता को लेकर वह सामाजिक स्वीकार्यता है जिसका दायरा सिर्फ भारत तक सीमित नहीं रहता बल्कि वैश्विक हो जाता है. गांधी दर्शन ने समूचे विश्व को प्रभावित किया है. गांधी का चिंतन किसी क्षेत्रीय सीमा से नहीं बंधा क्योंकि वह मानव मात्र के लिए है, वह मानव जो दुनिया के किसी भी कोने का हो सकता है.
गांधी एक ऐसा व्यक्तित्व है, जिसके प्रभाव से कोई जुदा नहीं हो सका, यहां तक कि गांधी की आलोचना करने वाले भी. गांधी प्रतीकों में सामने आए हैं और समाज के अंतर्मन में बैठे हैं. गांधी की टोपी आजादी के आंदोलन में भारतीय अस्मिता की प्रतीक बनी. यह वह टोपी है जो कभी खत्म नहीं होती, जिसका असर खत्म नहीं होता. गांधी के प्रबल आलोचक भी, जिन पर गांधी की हत्या का दाग है, गांधी टोपी को अपनाए हैं, भले ही टोपी को बदले हुए रंग में अपनाया गया. आखिर कैसे अनदेखा कर दें वे गांधी को, गांधी उस व्यक्तित्व का नाम है जो उच्च आदर्शों के साथ अडिग है. गांधी उस पुरातन भारतीय परंपरा के ध्वजवाहक हैं जिसकी आत्मा में सामाजिक समरसता कूट-कूटकर भरी है. समय गुजर गया है, गांधी की कांग्रेस अब नहीं है लेकिन टोपी मौजूद है. यह टोपी फिर-फिर अपना असर दिखाती है. यह बात अलग है कि इस टोपी को धारण कर लेने वाले न तो गांधी हो जाते हैं न ही ऐसे अधिकतर लोग उन आदर्शों को अंगीकार करते हैं, जो गांधी ने दिए हैं. इसका उपयोग अस्त्र की तरह भी हुआ क्योंकि इस प्रतीक के आगे सब बौने हो जाते हैं. अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन में गांधी टोपी ने ऐसा असर दिखाया कि आगे जाकर एक राजनीतिक पार्टी और फिर पूरी सरकार ही टोपी वाली बन गई.
खादी को आप सिर्फ कपड़ा नहीं कह सकते, यह भारतीय अस्मिता की प्रतीक है. खादी वास्तव में हमारी खुद्दारी है. यह ऐसा प्रतीक है जो भारत को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करता है. गांधी के सिद्धांतों के अनुसार पराधीनता में वह सब कुछ शामिल है जिसके लिए हम विदेशों पर निर्भर हों. विदेशी वस्तुओं को अपनाने का अर्थ अपने देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर करना है. गांधी ने हमेशा बकरी का दूध पिया. वे हमेशा गौ-पालन को प्रोत्साहित करते रहे. गांधी की ग्राम स्वराज्य की अवधारणा में खेती-बाड़ी से साथ-साथ मवेशी पालन को ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बहुत महत्वपूर्ण पक्ष माना गया है. कहने को भले ही खादी को सिर्फ एक कपड़ा मान लें या बकरी को सिर्फ एक मवेशी, लेकिन यह वे प्रतीक हैं जो संदेश देते हैं कि जब गांव आत्मनिर्भर होंगे तभी सही मायने में देश का विकास हो सकेगा.
गांधी के आदर्श प्रतीकों के जरिए हमारे समाज में अनजाने ही कैसे पीढ़ियों में हस्तांतरित होते रहते हैं इसका एक उदाहरण देता हूं. कुछ साल पहले मैं महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर में था. मेरा छोटा बेटा उस समय करीब छह साल का था. एक दिन वह स्कूल से लौटा और अपनी यूनिफार्म उतारी. इसके बाद उसने बजाय दूसरे कपड़े पहनने के वहां रखी एक सफेद चादर आधी नीचे लपेटी और बाकी ऊपर से कंधे पर डाल ली. मैंने पूछा यह क्या हो रहा है? वह पहले कुछ नहीं बोला. मैंने फिर पूछा कि यह चादर ऐसी क्यों लपेट ली. उसने कहा, गांधी जी ऐसे ही पहनते हैं. मैंने पूछा तुमने कहां देखा? उसने कहा स्कूल में लगी तस्वीर में...मैंने पूछा इससे क्या होता है? उसने कहा एक ही कपड़ा पहनना पड़ता है. फिर मैंने पूछा कि इससे क्या फायदा, क्यों एक ही कपड़ा पहना जाए? उसने ऐसी बात कही कि मैं हतप्रभ रह गया. उसने कहा- एक ही कपड़े से काम चलता है तो दूसरे की क्या जरूरत? मैंने पूछा कि क्या यह तुम्हें तुम्हारी टीचर ने बताया...उसने कहा नहीं. मैं सोच में पड़ गया कि पहली कक्षा में तो गांधी जी के बारे में शायद कुछ पढ़ाया भी नहीं जाता, फिर कैसे यह ऐसी बात कर रहा है? जब मैंने फिर पूछा तो उसने कहा...वह तो गांधी जी की फोटो में ही दिख रहा है कि वे एक ही कपड़ा पहने हैं. गांधी के आदर्श प्रतीक रूप में कुछ इसी तरह आ जाते हैं. गांधी बिना कुछ कहे बहुत कुछ कहते हैं.
गांधी को अपना समझना आसान है क्योंकि वे हमेशा हमारे आसपास के आम इंसान बने रहे हैं. अपनी जरूरतें न्यूनतम करके जीवन यापन का उनका सिद्धांत आडंबरों से दूर सात्विक जीवन की ओर ले जाता है. वास्तव में सत्य की कसौटी पर परखें तो आडंबरों को हमेशा निरर्थक ही पाएंगे.
अब राजनीति की पारी शुरू करने जा रहे फिल्म अभिनेता कमल हासन ने हाल ही में कहा वे गांधी को महात्मा नहीं बोलते क्योंकि ऐसा करने से वे खुद को गांधी से दूर पाते हैं. गांधी से वे दूरी बनाना नहीं चाहते इसलिए उन्हें सिर्फ गांधी कहते हैं. यहां तक कि उन्होंने गांधी के नाम एक चिट्ठी लिखी जिसमें उन्होंने गांधी को मोहन संबोधित किया. यह एक कलाकार का अहसास है. यह अपनापन का गहरा अहसास है. कमल हासन ने कहा कि उन्होंने गांधी को 20 साल तक समझा चिंतन किया और उसके बाद फिल्म बनाई- 'हे राम.' उन्होंने कहा कि ऐसी फिल्म आज के दौर में बनाना कठिन हो गया है क्योंकि अब असहिष्णुता का माहौल बन गया है.
मेरी 81 साल की मां रोज रात में सोने से पहले कुछ भजन गाती हैं जिनमें से एक है- 'रघुपति राघव राजा राम पतीत पावन सीता राम...' मैं यह बचपन से ही देख रहा हूं. वर्धा का गांधी महिला आश्रम उनका स्कूल रहा है. वे वहां (1951 से 1955) तब पढ़ती थीं जब आम लड़कियों का अपने गांव (बुंदेलखंड) से सुदूर स्थान (विदर्भ) पर हॉस्टल में रहकर पढ़ना तो दूर, अपने गांव के स्कूल जाना भी स्वीकार नहीं किया जाता था. वे बताती हैं कि हॉस्टल में वे अपने सारे काम खुद करती रहीं जिसमें तब की सर्विस लैट्रिन से मैला उठाना भी शामिल था. वे वहां दीक्षित हुईं और गांधी उनके जीवन का हिस्सा बन गए. जब हम हाथ में झाड़ू उठा लेते हैं तो गांधी के करीब पहुंच जाते हैं. मेरा मां आज भी यथासंभव अपने काम खुद कर रही हैं. पराधीनता से मुक्त रहने और आत्मनिर्भर बने रहने का यह अहसास उन्हें गांधी ने दिया है.
गांधी ने कहा था किसी के साथ ऐसा व्यवहार न करें जैसे व्यवहार की आप किसी से अपेक्षा नहीं करते. किसी को कष्ट पहुंचाने से पहले सोच लें, कोई आपको भी चोट पहुंचा सकता है. गांधी के विचारों को जरूर ही पढ़ा जाना चाहिए लेकिन गांधी के बारे में सिर्फ पढ़-लिख लेने से वे हमारे जीवन में नहीं आ जाते, उन्हें महसूस करना होता है. गांधी के आदर्शों को पहनने, ओढ़ने और बिछाने की जरूरत है.
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था - 'आने वाली पीढ़ियों को यह मुश्किल से विश्वास होगा कि हाड़-मांस का कोई ऐसा भी मानव धरती पर जन्मा था.' वास्तव में जिस तरह जाति-धर्म को लेकर विद्वेष का माहौल बनता जा रहा है, जिस तरह से जाति और धर्म आधारित वोटों की राजनीति होने लगी है.. जिस तरह समाज में विदेशी वस्तुओं और विदेशी संस्कृति के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है... तो क्या कुछ और साल बाद इसी देश में गांधी के जन्म लेने पर कोई विश्वास कर पाएगा?
सूर्यकांत पाठक Khabar.ndtv.com के डिप्टी एडिटर हैं.
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